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Study Material



परिचय

  • अतीत में घटी घटनाओं का विवरण, जिनके बारे में लिखित साक्ष्य हो और जिन्हें पढ़ा जा चुका हो उसे इतिहास कहते हैं
  •  प्राचीन भारतीय इतिहास की विशद सामग्री को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से इतिहासकारों ने तीन भागों में बांटा है-

1. प्रागैतिहासिक काल  

2. आद्य-ऐतिहासिक काल 

3. ऐतिहासिक काल 

प्रागैतिहासिक काल

  •  इस काल का इतिहास पूर्णतः पुरातात्विक साधनों पर निर्भर है इस काल का कोई लिखित साधन उपलब्ध नहीं है, क्योंकि मानव का जीवन अपेक्षाकृत असभ्य एवं बर्बर था।
  • मानव सभ्यता के इस प्रारम्भिक काल को सुविधानुसार तीन भागों में बांटा गया है-

1. पुरा पाषाण काल 

2. मध्य पाषाण काल 

3. नव पाषाण काल या उत्तर पाषाण काल ।

1. पुरापाषाण काल

  •  हैण्ड-ऐक्स, क्लीवर और स्क्रैपर आदि विशिष्ट उपकरणों पर आधारित पुरापाषाण कालीन संस्कृति के अवशेष सोहन नदी घाटी, बेलन नदी घाटी तथा नर्मदा नदी घाटी एवं भोपाल के पास भीमबेटका नामक चित्रित शैलाश्रयों से प्राप्त हुआ है।

2. मध्य पाषाण काल

  • मध्य पाषाण काल में प्रयुक्त होने वाले उपकरण बहुत छोटे होते थे इसलिए इन्हें ‘माइक्रोलिथ कहते हैं।
  •  मध्य प्रदेश में आदमगढ़ और राजस्थान में बागोर पशुपालन का प्राचीनतम साक्ष्य इस काल में प्रस्तुत करते हैं।
  • इस काल में मानव के अस्थिपंजर (शारीरिक प्रारूपों) का सबसे पहला अवशेष प्रतापगढ़(उत्तर प्रदेश) के सराय नाहर तथा महदहा नामक स्थान से प्राप्त हुआ है।

3. नव पाषाण काल

  •  नव पाषाण काल के प्रथम प्रस्तर उपकरण उत्तर प्रदेश के टोंस नदी घाटी में सर्वप्रथम 1860 में लेन्मेसुरियर ने प्राप्त किया।
  •  नव पाषाण युगीन प्राचीनतम बस्ती पाकिस्तान में स्थित बलूचिस्तान प्रान्त में मेहरगढ़ में है। मेहरगढ़ में कृषि के प्राचीनतम् साक्ष्य मिले हैं।
  •  नव पाषाण कालीन स्थल-बुर्जहोम एवं गुफकराल (कश्मीर प्रान्त) से अनेक  गर्तावास(गड्ढाघर) अनेक प्रकार के मृदभाण्ड एवं प्रस्तर तथा हड्डी के अनेक औजार प्राप्त हुए हैं।
  • बुर्जहोम से प्राप्त कब्रों में पालतू कुत्तों को मालिक के साथ दफनाया जाता था। यह प्रथा भारत के किसी भी अन्य नव पाषाण कालीन स्थल से नहीं प्राप्त होती है।
  •  चिरांद (बिहार प्रान्त) नामक नव पाषाण कालीन पुरास्थल एक मात्र ऐसा पुरास्थल है जहां से प्रचुर मात्रा में हड्डी के उपकरण पाये गये हैं, जो मुख्य रूप से हिरण के सींगों के हैं। ये उपकरण ताम्रपाषाणिक अवस्था के प्रतीत होते हैं।
  •  इलाहाबाद में स्थित कोल्डिहवा एक मात्र ऐसा नव पाषाणिक पुरास्थल है जहां से चावल का प्राचीनतम साक्ष्य लगभग 6000 ई.पू. प्राप्त हुआ है।
  •  नव पाषाण काल के निवासी सबसे पुराने कृषक समुदाय के थे। वे मिट्टी और सरकंडे के बने गोलाकार या आयताकार घरों में रहते थे।
  •  मेहरगढ़ में बसने वाले नव पाषाण युग के लोग अधिक उन्नत थे। वे गेहूँ, जौ और रूई उपजाते थे, और कच्ची ईंटों के घरों में रहते थे।
  •  दक्षिण भारत में नव पाषाण कालीन सभ्यता का मुख्य स्थल बेलारी,कर्नाटक प्रान्त है।
  •  नव पाषाण स्तर की प्रमुख उपलब्धि खाद्य उत्पादन का आविष्कार, पशुओं के उपयोग की जानकारी और स्थिर ग्राम्य जीवन का विकास है।
  • कुम्भकारी सर्वप्रथम इसी काल में दृष्टिगोचर होती है

आद्य ऐतिहासिक काल

  • यह काल साहित्यिक एवं पुरातात्विक दोनों प्रकार के साधनों पर निर्भर है। हड़प्पा की संस्कृति तथा वैदिक संस्कृति की गणना आद्य इतिहास में की जाती है। परन्तु आद्य-ऐतिहासिक काल की लिपियों को पढ़ने में सफलता नहीं मिली है।
  • गैरिक एवं कृष्ण लोहित मृदभांड संस्कृति इस काल से संबंधित है।

 

ताम्र पाषाणिक काल

  • जिस काल में मनुष्य ने पत्थर एवं तांबे के औजारों का साथ-साथ प्रयोग किया, उस काल को ताम्र पाषाणिक काल कहते हैं।
  • सर्वप्रथम जिस धातु को औजारों में प्रयुक्त किया गया वह थी तांबा। ऐसा माना जाता है कि तांबे का सर्वप्रथम प्रयोग लगभग 5000 ई.पू.में किया गया।
  • ताम्र पाषाण काल के लोग मुख्यतः ग्रामीण समुदाय के थे।
  • भारत में ताम्र पाषाण अवस्था के मुख्य क्षेत्र दक्षिण-पूर्वी राजस्थान (अहार एवं गिलुंड) पश्चिमी महाराष्ट्र तथा दक्षिणी-पूर्वी भारत है।
  • मालवा ताम्रपाषाण संस्कृति की एक विलक्षणता है, मालवा मृदभाण्ड ताम्र पाषाण मृदभाण्डों में उत्कृष्टतम् माना गया है।
  • सबसे विस्तृत उत्खनन पश्चिमी महाराष्ट्र में हुए हैं। जहां उत्खनन हुए हैं वे स्थल हैं-अहमदनगर के जोर्वे, नेवासा एवं दैमाबाद पुणे में चन्दोली, सोनगांव एवं इनामगांव आदि ये सभी स्थल जोरवे संस्कृति के हैं।
  • जोर्वे संस्कृति ग्रामीण थी फिर भी इसकी कई बस्तियां जेसे दैमाबाद और इनामगांव में नगरीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गई थी। जोर्वे स्थलों में सबसे बड़ा दैमाबाद है
  • अहार का प्राचीन नाम ताम्बवती अर्थात तांबावाली जगह है। इस संस्कृति का काल 2100 से 1500 ई.पू.के बीच कहीं रखा जाता है। गिलुन्द इस संस्कृति का स्थानीय केन्द्र माना जाता है। यहां एक प्रस्तर फलक उद्योग के अवशेष मिलते हैं।
  • इस काल के लोग गेहूं, धान और दाल की खेती करते थे। लगभग ये सभी अनाज मध्यप्रदेश में नर्मदा नदी के तट पर स्थित नवदाटोली में भी पाये गये हैं। खुदाई के परिणाम स्वरूप इतने सारे अनाज भारत के अन्य किसी भी स्थान में शायद नहीं मिले हैं।
  • अहार के लोग पत्थर के बने घरों में रहते थे।
  • दैमाबाद की ख्याति भारी संख्या में कांसे की वस्तुओं की उपलब्धि के लिए है। इनमें से कुछ वस्तुओं पर हड़प्पा संस्कृति का प्रभाव लक्षित होता है।
  • इनाम गांव ताम्र पाषाण युग की एक बड़ी  बस्ती थी।  यह बस्ती किला बंद तथा खाई से घिरी  हुई थी | 
  • ताम्र पाषाण के लोग वस्त्र निर्माण से सुपरिचित थे। इसके अतिरिक्त इनामगांव में कुम्भकार, धातुकार, हाथी दांत के शिल्पी, चूना बनाने वाले और खिलौने की मिट्टी की मूर्ति (टेराकोटा) बनाने वाले कारीगर भी दिखाई दिये हैं।
  • इस काल के लोगों के संस्कारों और धार्मिक सम्प्रदायों के बारे में कुछ आ भास मिलता है। महाराष्ट्र में लोग मृतक को अस्थिकलश में रखकर अपने घर के फर्श के अन्दर उत्तर-दक्षिण  दिशा में गाड़ते थे।
  • ताम्र पाषाण के लोग मातृदेवी की पूजा करते थे तथा वृषभ धार्मिक सम्प्रदाय का प्रतीक था।
  • इस काल में सामाजिक असमानता आरम्भ हो चुकी थी। महाराष्ट्र में पाई गई कई जोर्वे बस्तियों में एक तरह का निवासगत अधिक्रम (ऊँच-नीच का क्रम) दिखाई देता है। इससे जोरवे में द्विस्तरीय निवास का आभास मिलता है।
  • तिथिक्रम के अनुसार भारत में ताम्र-पाषाण बस्तियों की अनेक श्रृंखलाएं हैं। कुछ तो प्राक् हड़प्पीय हैं, कुछ हड़प्पा संस्कृति की समकालीन हैं तथा कुछ हड़प्पोत्तर काल की हैं।
  • प्राक् हड़प्पा अवस्था संस्कृति के अन्तर्गत राजस्थान के कालीबंगा एवं हरियाणा के बनवाली स्पष्टतः ताम्र पाषाणिक हैं। सिन्ध प्रान्त के कोटदीजी भी ताम्र पाषाणिक अवस्था की है
  • कायथा के मृद्भाण्डों पर  प्राक-हड़प्पन, हड़प्पन और हड़प्पोत्तर संस्कृति का प्रभाव दिखाई देता है।
  • 1200 ई.पू.के लगभग ताम्र पाषाणिक संस्कृति का लोप हो गया। केवल जोर्बे संस्कृति ही 700 ई.पू.तक जीवित रही
  • ताम्र पाषाणिक बस्तियों के लुप्त होने का कारण अत्यल्प वर्षा (सूखा) माना जाता है।

ताम्र पाषाण अवस्था का महत्व

  • सभी ताम्र पाषाण समुदाय चाकों पर बने काले व लाल मृद्भाण्डों का प्रयोग करते थे।
  • चित्रित मृद्भाण्डों का प्रयोग सर्वप्रथम ताम्र पाषाणिक लोगों ने ही किया था।
  • दक्षिण भारत में नव पाषाण अवस्था अलक्षित रूप से ही ताम्र पाषाण अवस्था में परिणत हो गई, अतः इन संस्कृतियों को नवपाषाणीय ताम्र पाषाण संस्कृति का नाम दे दिया गया।
  • मालवा एवं मध्य भारत में जैसे कायथा और एरण की बस्तियां ताम्र पाषाण काल की सबसे प्राचीन बस्ती है। पश्चिमी महाराष्ट्र की बस्तियां बाद की मालूम होती हैं।
  • सर्वप्रथम ताम्र पाषाण के लोगों ने ही प्रायद्वीपीय भारत में बड़े-बड़े गांव बसाए।
  • मध्य प्रदेश में कायथा एवं एरण की और पश्चिमी महाराष्ट्र में इनामगांव की बस्तियां किलाबन्द हैं।
  • पश्चिमी भारत में सम्पूर्ण शवाधान तथा पूर्वी भारत में आंशिक शवाधान प्रचलित था।
  • ताम्र पाषाण स्थलों से हल और फावड़ा भी पाया गया है।
  • ताम्र पाषाण युग के लोग लेखन कला से अनभिज्ञ थे तथा वे न ही नगरों में रहते थे, जबकि कांस्य युगीन (हड़प्पा कालीन) लोग नगरवासी हो गये थे।
  • सबसे बड़ी ताम्र निधि मध्य प्रदेश के गुन्गेरिया से प्राप्त हुई है। इसमें 424 तांबे के औजार एवं हथियार तथा 102 चांदी के पतले पत्तर हैं।

ऐतिहासिक काल

  • इस काल को इतिहासकार उस काल की संज्ञा देते हैं जिसके लिए लिखित साधन उपलब्ध हैं, और जिसमें मानव सभ्य बन गया था। यह काल पुरातात्विक साहित्यिक तथा विदेशियों के वर्णन पर निर्भर है।

कुछ महत्वपूर्ण तथ्य

  •  पुरापाषाण काल के मनुष्य मुख्यतः नेग्रिटो  जाति के थे।
  • मध्य पाषाण कालीन मिली समाधियों में मानव अस्थि पंजर के साथ-साथ कुत्ते के भी अस्थि पंजर मिले हैं।
  • प्रमुख स्थल-

 भीमबेटका-भोपाल के समीप स्थित इस पुरा पाषाण कालीन स्थल से अनेक चित्रित गुफाएं, शैलाश्रय (चट्टानों से बने शरण स्थल)तथा अनेक प्रागैतिहासिक कलाकृतियां प्राप्त हुई हैं।

 आदमगढ़ एवं बागोर- मध्यप्रदेश  के आदमगढ़ एवं राजस्थान के बागोर नामक मध्य पाषाणिक पुरास्थल से पशुपालन के प्राचीनतम साक्ष्य मिले हैं। जिनका समय लगभग 5000 ई0पू0 हो सकता है।

 बुर्जहोम एवं गुफ्फकराल-कश्मीरी नवपाषाणिक पुरास्थल से गर्तावास (गड्ढ़ा घर)कृषि तथा पशुपालन के साक्ष्य मिले हैं।

 चिरांद-बिहार प्रान्त में एक मात्र नव पाषाणिक पुरास्थल जहां से प्रचुर मात्रा में हड्डी के उपकरण प्राप्त हुए हैं।

 पिकलीहल-कर्नाटक स्थित इस नव पाषाणिक पुरास्थल से शंख के ढेर और निवास स्थान दोनों पाये गये हैं।

 मेहरगढ़-बलूचिस्तान स्थित इस नव पाषाणिक पुरास्थल से कृषि के प्राचीनतम साक्ष्य एवं नव पाषाणिक प्राचीनतम बस्ती एवं कच्चे घरों के साक्ष्य मिले हैं।

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