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मौलिक अधिकारों की विशेषताएं

1.कुछ मूल अधिकार केवल नागरिकों को दिये गये हैं, ये हैं-

  • नागरिकों के मध्य केवल मूल वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध अनुच्छेद (15)
  • राज्य के अधीन सेवाओं में अवसर की समता का अधिकार (अनुच्छेद 16)
  • वाक् स्वतांत्रय आदि विषयक कुछ अधिकार, (अनुच्छेद 19)
  • अल्पसंख्यक वर्गो के हितों का संरक्षण, (अनुच्छेद 29)
  • शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गो का अधिकार, (अनुच्छेद 30)

उक्त पाँचों के अतिरिक्त भारत में निवास करने वाले व्यक्तियों को जो भारत के नागरिक न हो, संविधान में अन्तर्विष्ट सभी मूलाधिकार प्राप्त हैं।

2.मूल अधिकारों पर युक्तियुक्त निर्बन्धन लगाये जा सकते हैं, ताकि व्यक्तिगत अधिकारों को जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए सीमित किया जा सके। निर्बन्धन युक्तियुक्त  है या नही, इसका निर्णय न्यायालय करता है।

3.अनुच्छेद 20 तथा 21 में अन्तर्विष्ट मूलाधिकारों (अपराधों के लिए दोषसिद्धि के सम्बंध में संरक्षण तथा प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण) को छोड़कर सभी मूलाधिकार राष्ट्रीय आपातकाल में निलंबित हो जाते हैं। राष्ट्रीय आपातकाल में अनुच्छेद 19 में अन्तर्विष्ट मूलाधिकार (वाक् स्वातन्त्र्य आदि विषयक कुछ अधिकार) स्वतः निलंबित हो जाते है, जबकि अन्य मूलाधिकार राष्ट्रपति के आदेश से निलंबित होते हैं।

4.मूल अधिकारों का निलंबन किया जा सकता है लेकिन संविधान से इन्हे निकाला नहीं जा सकता।

5.संविधान में अंतर्विष्ट मूलाधिकारों में से कुछ नकारात्मक है क्योंकि वे राज्य की शक्ति को सीमित करते है, जैसे अनुच्छेद 15 में वर्णित मूलाधिकार जबकि कुछ अधिकार सकारात्मक है, जो नागरिको को स्वतंत्रताएं प्रदान करते हैं, जैसे अनुच्छेद 19 में उल्लिखित मूलाधिकार।

6.मूल अधिकारों का अल्पीकरण नहीं किया जा सकता। मूल अधिकारों का अल्पीकरण करने वाली विधियां अल्पीकरण करने की सीमा तक शून्य होती है। (अनुच्छेद 13) (2)

7.मूल अधिकारों की उलंघन की स्थिति में उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर अनुतोष प्राप्त किया जा सकता है।

8.जिन व्यक्तियों को मूलाधिकार प्रदान किया गया है, वे उनका अधित्याग नहीं कर सकते।

 

सामान्य अधिकार एवं मूल अधिकार में अंतर

  • सामान्य विधिक अधिकार देश की विधि द्वारा संरक्षित और प्रवृत्ति किया जाता है। सामान्य विधिक अधिकार के उदाहरण है, उपभोक्ता के अधिकार, शेयर धारक के अधिकार, बंधककर्ता के अधिकार संविदा के पक्षकारों के अधिकार, आदि। मूल अधिकार संविधान द्वारा रक्षित होता है और संविधान ही उसे प्रवृत्त करता है।
  • सामान्य अधिकारों को साधारण विधायी प्रक्रिया द्वारा बदला जा सकता है। मूल अधिकार में परिवर्तन के लिए संविधान का संशोधन करना आवश्यक है, मूल अधिकार का निलंबन या न्यूनीकरण संविधान में विहित रीति से ही किया जा सकता है।
  • सामान्य अधिकार साधारणतः किसी अन्य व्यक्ति पर उसका प्रतिरूप कर्त्तव्य अधिरोपित करता है। मूल  अधिकार ऐसा अधिकार है जिसमें किसी व्यक्ति को राज्य के विरूद्ध अधिकार प्राप्त होता है। अतएव मूल अधिकार राज्य को भी आबद्ध करते है।
  • सामान्य अधिकार व्यक्तियों के विरूद्ध उपलब्ध होता है और कुछ मामलों में राज्य के विरूद्ध भी। मूल अधिकार केवल राज्य के विरूद्ध प्रवर्तनीय है।
  • मूल अधिकारों पर कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका आक्रमण न करे इसलिए सुरक्षा की व्यवस्था की जाती है। यदि कोई विधि या कार्यपालिका का कार्य ऐसे अधिकारों के प्रतिकूल होता है या अधिकारों को संक्षिप्त करता है तो वह विधि या कार्य शून्य और निष्प्रभावी होगा।
  • हमारे संविधान में मूल अधिकार के प्रवर्तन के लिए उच्चतम न्यायालय में अनुच्छेद 32 के तहत रित याचिका दायर करने का अधिकार प्रत्याभूत है। इस प्रकार यह उपचार भी एक मूल अधिकार है। इससे यह ज्ञात होता है कि किस प्रकार यह अधिकार अन्य दूसरे अधिकारों से भिन्न है। उच्चतम न्यायालय मूल अधिकारों का संरक्षक है।
  • सभी संवैधानिक अधिकार मूल अधिकार नहीं होते । उदाहरण के लिए यह अधिकार कि विधि के प्राधिकार के बिना कराधान नहीं किया जाएगा। (अनुच्छेद 265), संपत्ति का अधिकार (अनुच्छेद 300 क), व्यापार और वाणिज्य का अधिकार (अनुच्छेद 301)।
  • सभी मूल अधिकार विधायी शक्ति को मर्यादित करते हैं।

 

मूल अधिकारों का अधित्यजन

उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि संविधान में मूल अधिकार रखने का प्रयोजन केवल व्यक्तियों को फायदा पहुंचाना नहीं था। यह अधिकार एक नीति के परिणामस्वरूप है। इसलिए अधित्यजन का सिद्वांत मूल अधिकारों पर लागू नहीं होता। राज्य किसी व्यक्ति के मूल अधिकार को इस आधार पर भंग नहीं कर सकता कि किसी व्यक्ति ने उसका अधित्यजन कर दिया था।

 

मूल अधिकारों का निलंबन

संविधान के अनुच्छेद 358 तथा 359 के तहत मूल अधिकारों के निलंबन का उपबंध किया गया हैं। अनुच्छेद 358, अनु. 19 के निलंबन के बारे में है। अनु. 359 अन्य मूल अधिकारों के निलंबन के विषय में बताता है।

इन अनुच्छेदों का प्रभाव इस प्रकार है-

  • सभी मूलाधिकार विधायी शक्ति को मर्यादित करते हैं।
  • जब भी अनु. 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा की जाती है तो राज्य अनु. 19 द्वारा लगाये गये बंधनों  या मर्यादाओं से मुक्त हो जायेगा। राष्ट्रपति अनु. 259 के आधीन आदेश निकाल कर मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए न्यायालय में समावेदन करने का अधिकार निलंबित कर सकता है। इस आदेश में वे अधिकार विनिर्दिष्ट किए जायेंगे जो प्रवृत्त नहीं कराए जा सकते।
  • अनु. 359 तक प्रवर्तन में आता है जब अनु. 352 की अधीन युद्व या बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के आधार पर आपातकाल की घोषणा की जाती है किंतु अनु. 358 तब लागू होता है जब आपात की घोषणा युद्ध या बाहरी आक्रमण के आधार पर की जाती है , सशस्त्र विद्रोह के आधार पर नहीं।
  • अनुच्छेद 352 के आधीन आपातकाल की घोषणा होने पर अनु. 358 स्वतः प्रवर्तित हो जाता है किंतु अनु. 359 तभी प्रवृत्त होगा जब राष्ट्रपति द्वारा ऐसा आदेश निकाला जाए। ऐसे आदेश में वह मूल अधिकार विनिर्दिष्ट किया जाना जरूरी है जिसका प्रवर्तन निलंबित किया जा रहा है।
  • अनु. 359 में यह उपबंध किया गया है कि अनु. 20 और 21 का प्रवर्तन निलंबित नहीं किया जा सकता। अतएव जिस अवधि में आपातकाल की घोषणा विद्यमान है उसमें भी प्रत्येक व्यक्ति को अपने प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के संरक्षण का अधिकार बना रहता है।
  • अनु. 358 और 359 में यह अपेक्षा है कि वे सुसंगत मूल अधिकार के प्रवर्तन का निलंबन तभी करेंगे जबकि उस विधि में जो अधिकार प्रभावी करती है यह कथन हो कि वह आपात की घोषणा से संबंधित है। यदि विधि में ऐसा कथन नहीं है तो उस विधि या ऐसी विधि के अधीन कार्यपालिका द्वारा की गई कार्यवाही पर इस आधार पर आक्षेप किया जा सकता है कि वह मूल अधिकार छीनती है  या न्यून करती है। इन अनुच्छेदों का उद्देश्य स्वतंत्रता पर आक्रमण को रोकना है।

 

मूल अधिकारों की सीमाएं 

  • साधारणतया  प्रत्येक अधिकार की सीमा होती है चाहे संविधान में स्पष्ट शब्दों में ऐसा न कहा गया हो। कोई अधिकार असीम नहीं होता। सबकी सीमाएं और मर्यादाएं होती हैं। हमारे सामने अमरीकी और अन्य संविधानों के अनेक उदाहरण हैं जहाँ न्यायालय को अधिकारों को सीमा के भीतर बांधने के लिए मर्यादाओं का अविष्कार करना पड़ा।
  • हमारे संविधान में कुछ अनुच्छेदों में वह आधार विनिर्दिष्ट किए गए हैं जिनका अवलंब लेकर युक्तियुक्त निर्वधन अधिरोपित किए जा सकते हैं। अनुच्छेद 19 (1) द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रताओं पर लगाई जा सकने वाली अभिव्यक्त मर्यादाएं अनु.19 (2, से 6 तक) के खंडों में दी गई। ऐसी ही परिसीमाएं अनु. 16, 23, 25, और 26 में देखने को मिलती हैं।
  • संविधान के तीसरे भाग में कुछ अधिकार ऐसे है जिन पर कोई अभिव्यक्त परिसीमा नहीं है जैसे अनु., 14, 17, 18, 20, और 241।

 

मौलिक अधिकारों के उपांतरण की संसद की शक्ति

संसद को यह अधिकार है कि वह निम्नलिखित व्यक्तियों के संबंध में मूल अधिकार को उपांतरित करके यह व्यवस्था कर सकती है कि मूलाधिकार कि सीमा तक उन व्यक्तियों के लिए लागू हो-

  • सशस्त्र बलों के सदस्यों को,
  • लोक व्यवस्था बनाएं रखने के लिए उत्तरदायी सुरक्षा बलों के सदस्यों को,
  • आसूचना या प्रति आसूचना के उद्देश्य  के लिए राज्य द्वारा स्थापित किसी व्यूरो या अन्य संगठन में नियोजित व्यक्तियों तथा
  • उक्त तीनों प्रयोजनों के लिए स्थापित दूर संचार प्रणाली या उसके संबंध में नियोजित व्यक्तियों को।

 

मौलिक अधिकार का संशोधन

  • संविधान के अनुच्छेद-13 में स्पष्ट रूप से प्रावधान किया गया है कि संसद कोई ऐसा कानून नहीं बनाएगी जो संविधान द्वारा प्रत्याभूत मूलाधिकारों को संक्षिप्त करे या उनका उल्लंघन करें।
  • गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा अवधारित किया गया था कि संसद अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधान के मूल अधिकार को परिवर्तित करने के लिए कोई संशोधन नहीं कर सकती हैं।
  • इस निर्णय के प्रभाव को समाप्त करने के उद्देश्य से संसद ने 1971 में 24वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 13 में खंड (4) को जोड़कर यह प्रावधान कर दिया कि संवैधानिक संशोधन अनुच्छेद 13 में वर्णित विधि के अंतर्गत नहीं आता।
  • केशवानन्द भारती बनाम भारत संघ (1973) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने 24वें संविधान संशोधन द्वारा संसद को प्रदत्त संशोधन के अधिकार पर निर्बन्धन लगा दिया जिसके अनुसार संसद मूल ढांचे को परिवर्तित नहीं कर सकती।
  • इस मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के प्रभाव को समाप्त करने के उद्देश्य से 1976 में 42वां संविधान संशोधन करके यह प्रावधान किया गया कि संसद की संविधान संशोधन की शक्ति असीमित है और संविधान संशोधन को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।
  • मिनर्वा मिल बनाम भारत संघ नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने 42वां संविधान संशोधन को असंवैधानिक करार दिया और धारित किया कि संसद संविधान के मूल ढांचे में परिवर्तन नहीं कर सकती।

 

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