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Study Material



मौलिक अधिकारों का वर्गीकरण

समता का अधिकार (अनु0 14-18)

भारतीय संविधान के अध्याय, में अनु. 12 से 35 तक मौलिक अधिकारों का प्रावधान किया गया हैं। ये अधिकार 6 प्रकार के है यथा

  • स्वतंत्रता का अधिकार (अनु. 19-22)
  • शोषण के विरूद्ध अधिकार (अनु. 23-24)
  • धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनु. 25-28)
  • संस्कृति और शिक्षा संबन्धी अधिकार (अनु. 29-30)
  • सैवैधानिक उपचार का अधिकार (अनु. 32)

 मूल संविधान में 7 मौलिक अधिकार थे, किंतु 1978 में 44 वें संशोधन के तहत संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार से हटा कर इसे साधारण विधिक अधिकार के रूप में संविधान के अनुच्छेद 300() में शामिल किया गया है।

समता का अधिकार (अनु. 14-18)

अनुच्छेद 14 के तहत प्रत्येक व्यक्ति विधि के समक्ष समान है, सभी व्यक्तियों को विधि का समान संरक्षण प्राप्त है।

  • अनु.-15 समता का अधिकार (1) के तहत राज्य किसी नागरिक के विरूद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति-लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।
  • लेकिन अनु. 15 (3) के अनुसार राज्य स्त्रियों और बालकों के लिए और सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि  से पिछड़े हुए नागरिकों  के किन्हीं वर्गो की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों  और जनजातियों के लिए कोई विशेष कानून बना सकेगा। अनु. 15 (2) कहता है कि कोई नागरिक केवल  धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान के आधार पर दुकानों, सार्वजतिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजनिक  मनोंरजन के स्थानों में प्रवेश या पूर्णतः या अंशतः राज्य द्वारा पोषित सर्वसाधारण के लिए कुंओं, तालाबों, स्नानघरों, सार्वजनिक समागम के स्थानों  या सड़कों के उपयोग  के आयोग्य नहीं समझा जाएगा।
  • अनुच्छेद 16 के अनुसार सभी नागरिकों के लिए राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में समानता होगी। पंरतु इस प्रावधान के दो अपवाद हैः
    • संसद किसी राज्य के अधीन निश्चित नियुक्तियों के संबंध में राज्य क्षेत्र  के भीतर निवास के विषय में शर्त लगा सकती है तथा
    • नागरिकों के पिछड़े वर्गो के लिए राज्य की नियुक्तियों में स्थान आरक्षित किया जा सकता है।
    • अनु. 17 कहता है कि कोई भी व्यक्ति अस्पृश्य नहीं माना जायेगा तथा अस्पृश्यता का प्रयोग करने वाला व्यक्ति विधि के अनुसार दंडित किया जाएगा। जबकि अनु. 18 में सेना या विद्या संबंधी उपाधि के सिवाय राज्य द्वारा कोई उपाधि देने की मनाही ही गयी है। भारतीय नागरिक विदेशों से उपाधि नही ले सकता तथा भारत सरकार के नियोजन में कार्यरत विदेशी भी विना राष्ट्रपति के अनुमति के विदेशी उपाधि नही ग्रहण कर सकते

स्वतंत्रता का अधिकार (अनु. 19-22)

भारतीय संविधान का उद्देश्य विचार, भिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वाधीनता सुनिश्चित करना है। भारतीय संविधान में केवल समानता का ही उल्लेख नहीं मिलता, बल्कि विविध स्वतंत्रताओं का भी व्यापक वर्णन किया गया है। स्वतंत्रता का अधिकार (अनु. 19-22) में स्वतंत्रता के अधिकार की व्यापक व्याख्या की गई है। संविधान द्वारा प्राप्त स्वतंत्रताएं इस प्रकार हैः

अनुच्छेद-19 (1) भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

 भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्रात्मक राज्य व्यवस्था के संचालन का एक अनिवार्य अंग हैं भारत के सभी नागरिकों को विचार करने, भाषण देने और अपने अन्य व्यक्तियों के विचारों को प्रकट करने की स्वतंत्रता प्राप्त है। प्रेस भी विचारों के प्रचार का एक साधन होने के कारण इसी में शामिल है । 44 वें संशोधन द्वारा संविधान मं एक नया अनु. 361 जोड़ दिया गया है | जिसके अंतर्गत समाचार पत्रों  को संसद विधानमंडलो की कार्रवाई  प्रकाशित करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की गई है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार रेडियो और दूरदर्शन पर भी लागू होता है । संविधान में यह प्रावधान किया गया है। कि वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर राज्य द्वारा भारत की प्रभुता और अखण्डता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बंधों, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार या सदाचार के हितों में अथवा न्यायालय की अवमानता, मानहानि या अपराध उद्दीपन के आधार पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है।

शांतिपूर्ण सम्मेलन की स्वतंत्रता 

  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार तभी न्यायसंगत सिद्व होता है जब जनता के स्वतंत्रतापूर्वक एकत्रित होने का अधिकार प्राप्त हो इसलिए संविधान में शांतिपूर्ण ढंग से बिना किसी अस्त्र-शस्त्र के सभा या सम्मेलन आयेजित करने का अधिकार प्रत्याभूत किया गया है। उदाहरण के लिए, दूरदर्शन जुलूस की स्वतंत्रता का यह अर्थ नहीं कि यातायात को ठप्प कर दिया जाए । एकत्रित होने के अधिकार पर केवल सार्वजनिक व्यवस्था की रक्षा के लिए प्रतिबंध लगाया जा सकता है।
  • हड़ताल करने का अधिकार मूल अधिकारों के अंतर्गत कोई मूल अधिकार नहीं है अतएव किसी भी व्यक्ति को हड़ताल करने  से रोका जा सकता है प्रदर्शन जब हड़ताल का रूप धारण कर लेता है तो वह विचारों को अभिव्यक्त करने का साधन मात्र  नहीं रह जाता।
  • समुदाय या संगठन के निर्माण की स्वतंत्रताः सभी नागरिकों को संघ तथा संगठन बनाने का अधिकार संविधान द्वारा प्रत्याभूत किया गया है। अपवाद-स्वतंत्रता की आड़ में नागरिक ऐसे समुदायों का निर्माण नहीं कर सकते जो षडयंत्र अथवा शांतिव्यवस्था को भंग करें। तात्पर्य यह है कि उनका उद्देश्य सुरक्षा शांति को खतरा पहुंचाना या अनैतिकता के प्रोत्साहन देना हो वेश्याओं और सैनिकों को संघ बनाने की स्वतंत्रता नहीं है।

सर्वत्र आने जाने और निवास की स्वतंत्रता

  •  अनु. 19 के अनुसार, भारत के सभी नागरिकों को किसी भी व्यवसाय, वृत्ति, उपजीविका अथवा व्यापार की स्वतंत्रता प्रदान की गयी है। किंतु राज्य, सामान्य जनता के हित में इन स्वतंत्रताओं पर उचित प्रतिबंध लगा सकता है। उदाहरण के लिए आवश्यक पदार्थो के उत्पादन वितरण पर उचित नियंत्रण लगाए जा सकते हैं। किसी भी व्यवसाय अथवा काराबार के लिए कुछ व्यावसायिक  अथवा तकनीकी योग्यताएं निर्धारित की जा सकती है। उदाहरण के लिए, वही या डाक्टर का पेशा अपनाने के लिए यह जरूरी है कि नागरिक व्यवसायिक योग्यता रखते हों
  • अपराध की दोषसिद्धि के विषय में संरक्षणः अनु. 20 में कहा गया है कि किसी व्यक्ति को उस समय तक अपराधी नहीं ठहराया जा सकता जब तक कि उसने अपराध के समय में लागू किसी कानून का उल्लंघन किया हो। किसी व्यक्ति पर एक अपराध के लिए एक बार से अधिक मुकदमा चलाया जाएगा, एक बार से अधिक सजा दी जाएगी किसी अपराध में अभियुक्त व्यक्ति को स्वयं अपने विरूद्ध गवाही देने के लिए बाध्य नही किया जा सकता।
  • केदारनाथ बनाम पश्चिम बंगाल राज्य 1954 के बाद में न्यायालय ने यह स्थिर किया कि जब विधान मण्डल किसी कार्य को अपराध घोषित करता है या किसी अपराध के दण्ड का उपबंध करता है तो वह विधि को भूतलक्षी बनाकर उन व्यक्तियों पर प्रतिकूल  प्रभाव नहीं डाल सकता जिन्होंने उस विधि के अधिनियम किये जाने से पूर्व कार्य किए थे। 
  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा जीवन की सुरक्षाः अनु. 21 में कहा गया है कि "कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया  को छोड़कर अन्य किसी तरीके से किसी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा
  • 44वें संवैधानिक संशोधन (1978) द्वारा जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को और अधिक महत्व प्रदान किया गया है। जब आपातकाल की स्थित में भी जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को समाप्त या सीमित नही किया जा सकता ।
  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा जीवन की सुरक्षा के अंतर्गत निम्नलिखित को शामिल किया गया है-
    •  विदेश में जाने या विदेश में भ्रमण की स्वतंत्रता।
    •  त्वरित  अन्वेषण तथा विचारण का अधिकार।
    • निःशुल्क विधिक सहायता का अधिकार।
    •  यातना दिये जाने के अधिकार को  शामिल करके मानवीय गरिमा का अधिकार।
    •  निरूद्ध व्यक्ति द्वारा अपने विधिक सलाहकार तथा कुटुम्ब के सदस्यों और मित्रों के साथ मुलाकात करने का अधिकार
    • पुलिस की क्रूरता के विरूद्ध अधिकार।
    •  लोक स्वास्थ्य को बनाये रखने तथा उसकी प्रोन्नति का अधिकार।
    •  दोष मुक्ति के बाद अवैध रूप से कारागार में निरूद्ध रखने पर प्रतिकार का अधिकार।
    •  अपील करने का कानूनी अधिकार।
    • जीविकोपार्जन का अधिकार।

गिरफ्तारी और नजरबंदी की अवस्था में संरक्षण

 अनुच्छेद 22 में नागरिकों के निम्नलिखित तीन अधिकारों का उल्लेख किया गया है-

  • (1) बंदी बनाए गए व्यक्ति को उसके अपराध अथवा बंदी बनाये जाने के कारणों को बतलाए बिना अधिक समय तक बंदीगृह में नहीं रखा जा सकता।
  • (2) बंदी बनाए गए व्यक्ति को वही से परामर्श करने और अपने बचाव के लिए प्रबंध करने का अधिकार प्राप्त होगा।
  • (3) जिसे बंदी बनाया गया है उसे 24 घंटो के भीतर निकटस्थ मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित करना आवश्यक होगा। मजिस्ट्रेट की आज्ञा के बिना किसी को भी 24 घंटे से अधिक समय के लिए बंदी नहीं रखा जा सकता ये अधिकार दो प्रकार के अपराधियें पर लागू नहीं होंगे प्रथम-शत्रु देश के निवासियों पर  और द्वितीय-निवारक निरोध अधिनियम के अंतर्गत गिरफ्तार व्यक्तियों पर।

निवारक निरोध

  •   निवारक निरोध का तात्पर्य वास्तव में किसी प्रकार का अपराध किये जाने से पूर्व और बिना किसी प्रकार की न्यायिक प्रक्रिया के ही नजरबंदी है। निवारक निरोध किसी गैर-कानूनी कार्य को रोकने के लिए होता है, कि गैर-कानूनी कार्य के लिए किसी व्यक्ति को दंड देने के लिए।
  • अनुच्छेद 22 संसद को निवारक निरोध का उपबंध करने वाला ऐेसा कानून बनाने का अधिकार देता है जिसमें यह निर्धरित किया गया हो कि किसी व्यक्ति को किन परिस्थितियों में, किस वर्ग के मामलों में, अधिक से अधिक कितनी अवधि के लिए निरूद्ध किया जा सकता है
  • भारतीय संविधान के अनुसार निवारक निरोध  सामान्यकाल तथा संकटकाल दोनों परिस्थितियों में लागू होता है। विशेष बात यह है कि ऐसी व्यवस्था किसी भी लोकतांत्रिक राज्य में नहीं पाई जाती। ब्रिटेन और अमेरिका आदि देश केवल युद्ध काल में ही इसको लागू करते हैं, जबकि भारत में युद्ध और शान्ति दोनो ही परिस्थितियों में लागू किया जा सकता है।
  • निवारक निरोध अधिनियमः संसद द्वारा 1950 . में निवारक निरोध अधिनियम पारित किया गया समय-समय पर इस अधिनियम की अवधि बढ़ायी जाती रही यह अधिनियम 31 दिसंबर 1969 तक ही अस्तित्व में रहा क्योंकि इसके पश्चात इसकी अवधि में विस्तार नहीं किया जा सका ।
  • आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम, 1971 निवारक निरोध अधिनियम के विकल्प के रूप में 7 मई 1971 को राष्ट्रपति द्वारा आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम 'अध्यादेशजारी कर जून 1971 में इसे कानून बना दिया गया। इस कानून को बोलचाल की भाषा में  'मीसाकहा जाता है। यह अधिनियम निवारक निरोध अधिनियम की अपेक्षा अधिक कठोर है।
  • निवारक निरोध अधिनियम के अंतर्गत नजरबंदी की अधिकतम अवधि एक वर्ष थी। मीसा के अंतर्गत यह व्यवस्था की गई कि एक व्यक्ति को परामर्शदाता मण्डल से सलाह प्राप्त किए बिना संकट काल की अवधि में अधिक-से-अधिक 21 माह तक नजरबंद रखा जा सकता है इस कानून द्वारा किसी भी ऐसे व्यक्ति का नजरबंद किया जा सकता है जो कि भारत की प्रतिरक्षा, सुरक्षा  समाज के लिए आवश्यक आपूर्ति और सेवाओं की सुरक्षा  के विरूद्ध कार्यवाही करता है । आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम 44वें संविधान संशोधन के प्रतिकूल था इस कारण अप्रैल 1979 में यह स्वतः ही समाप्त हो गया।

राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम 1983

  • 24 सितंबर, 1983 को सरकार ने  ’राष्ट्रीय सुरक्षा अध्यादेशके नाम से एक अध्यादेश जारी किया। इस आध्यादेश का उद्देश्य साम्प्रदायिक और जातीय दंगों और देश की सुरक्षा के लिए खतरनाक अन्य गतिविधियों के लिए उत्तरदायी व्यक्तियों के निरूद्ध करना है।
  • इस अधिनियम के अंतर्गत निरोध की तिथि से 10 दिनों के भीतर निरोध के आधार बताए जाने का उपबंध है। निरूद्ध व्यक्ति विरोध की विधिमान्यता को न्यायालय में चुनौती दे सकता है।

विदेशी मुद्रा संरक्षण सरकारी निरीक्षण अधिनियम 1974

  •  आर्थिक क्षेत्र मेंराष्ट्रीय सुरक्षा कानूनकी श्रेणी का यह कानून  19 दिसंबर 1974 से लागू है। 13 जुलाई, 1984 को एक अध्यादेश के आधार पर इस अधिनियम में सेशोधन कर तस्करों के लिए नजरबंदी की सीमा एक वर्ष से बढ़ा कर दो वर्ष कर दी गई।
  • टाडा (TADA) भारत में बढ़ रहे आतंकवाद एवं विध्वंसक गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिएआतंकवाद एवं विध्वंसक गतिविधि निरोधक अधिनियम 1985 में लागू किया गया इस अधिनियम में निम्नलिखित प्रावधान किये गये 1. पुलिस अभियुक्त को 180 दिनों तक हिरासत में रख सकती है। दण्डाधिकारी के समक्ष उपस्थित कर फिर अगले 180 दिनांक तक हिरासत में रखा जा सकता है। 2. पुलिस के समक्ष की गई अपराध स्वीकृति को सबूत माना जा सकता है। 3. इसे एक राज्य से दूसरे राज्य में स्थानांतरित किया जा सकता है। 4. अभियुक्त को आरोपी और गवाहों की जानकारी से वंचित रखा जा सकता है। 5. इसके लिए अपील मात्र 30 दिनों के भीतर केवल सर्वोच्च न्यायालय में की जा सकती है। 23 मई 1995 को टाडा की अवधि समाप्त हो गई।

शोषण के विरूद्ध अधिकार

  • न्याय का एक आवश्यक पहलू यह भी है कि एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति का शोषण समाप्त किया जाये। संविधान द्वारा न्याय के      इस आदर्श की पुष्टि के लिए शोषण को अपराध घोषित किया गया
  •  अनुच्छेद 23 द्वारा मानव व्यापार तथा किसी भी व्यक्ति से बेगार या जबरदस्ती काम लेना गैरकानूनी घोषित किया गया है। यह अनुच्छेद अमेंरिकी संविधान के 13वें संशोधन की तरह है जिसमें दासता का अंत किया गया है भारत में भी सदियों से किसी किसी रूप में दासता की प्रथा विद्यमान थी, जिसके अनुसार हरिजन, खेतिहर श्रमिकों तथा स्त्रियों पर विभिन्न प्रकार के अत्याचार किए जाते थे। अतः संविधान में मानवीय शोषण के इन सभी रूपों को कानून के अनुसार दण्डनीय घेष्ति कर दिया गया है। इस अधिकार का एक महत्वपूर्ण अपवाद भी है। राज्य, सार्वजतिक उद्देश्य से अनिवार्य श्रम की योजना लागू कर सकता है, लेकिन ऐसा करते समय राज्य नागरिकों के बीच धर्म, मूलवंश, जाति, वर्ण या सामाजिक स्तर के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा।
  •  अनु0 24 के अनुसार 14 वर्ष से कम आयु वाले किसी बच्चे को कारखानों या अन्य किसी जोखिम भरे काम पर नियुक्त नहीं किया जा सकता यह निषेध मानव अधिकारों संबंधी अवधारणाओं तथा संयुक्त राष्ट्र के सिद्वांतों के अनुरूप है वस्तुतः शोषण के विरूद्ध अधिकार का उद्देश्य एक वास्तविक सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना करना है।

धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार         

धार्मिक स्वतंत्रता का अभिप्राय है कि किसी भी धर्म में आस्था रखने या रखने के बारे में राज्य कोई हस्तक्षेप नहीं करता। भारतीय संविधान के अनु0 25,26,27,28,धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करते है।

1.अंतःकरण की स्वतंत्रताः अनु-25 के अनुसार सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता तथा कोई भी धर्म स्वीकार करने या उसका प्रचार करने का अधिकार प्राप्त होगा।

  • कृपाण धारण करना सिख धर्म को मानने का अंग समझा जाएगा और इस अनु0 के प्रयोजनों के लिए सिख, जैन और बौद्ध भी हिंदुआं में शामिल होंगे।
  • उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय के अनुसार धर्म का प्रचार करने के अधिकार में बलात धर्म परिवर्तन का कोई अधिकार शामिल नहीं है क्योंकि इस लोक व्यवस्था अस्थिर हो सकती है।
  • आनन्द मार्ग के मामले में, सार्वजनिक जुलूस में घातक हथियारों तथा मनुष्य की खोपड़ियों के साथ तांडव नृत्य करने को अनिवार्य धार्मिक आचरण नही माना गया था और लोक व्यवस्था के हित में विधि द्वारा इसका प्रतिषेध किया जा सकता है।

2.धार्मिक मामलों में प्रबन्ध करने की स्वतंत्रताः अनुच्छेद 26 के अनुसार प्रत्येक धर्म के अनुयायियों को निम्न अधिकार प्रदान किये गये हैं।

  • प्रथमः धार्मिक संस्थाओं तथा दान से पोसित सार्वजनिक सेवा संस्थाओं की स्थापना तथा उनके संचालन का अधिकार।
  • द्वितीयः धर्म संबंधी निजी मामलों के प्रबंध का अधिकार।
  • तृतीयः चल और अचल सम्पत्ति के अर्जन और स्वामित्व का अधिकार।
  • चतुर्थः उक्त सम्पत्ति का विधि के अनुसार संचालन करने का अधिकार। अनु0-26 के अधीन अधिकार भी लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के आधीन है, लेकिन वे अन्य मूल अधिकारों के आधीन नही है। अनु0 25 के अधीन किए गए प्रावधान के अनुसार न्यायालयों ने धर्म के जरूरी तथा गैर जरूरी पक्षों के बीच विभेद किया है। न्यायालयों के अनुसार धार्मिक संस्थाओं की संपत्ति के प्रशासन विधि द्वारा विनियमित किया जा सकता है किन्तु प्रशासन के अधिकार को पूरी तरह छीना नही जा सकता (रतिलाल बनाम बम्बई राज्य1954), (रामानुज बनाम तमिलनाडु राज्य, 1961), (सरूप बनाम पंजाब राज्य, 1959), (नरेन्द्र बनाम गुजरात राज्य, 1974), (राम बनाम पंजाब राज्य, 1981)

3.धर्म की अभिवृद्धि के लिए कर देने की स्वतंत्रताः अनु0 27 में उल्लेख किया गया है कि किसी भी व्यक्ति को किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि या पोषण में किए गए खर्च के लिए कोई कर अदा करने लिए विवश नहीं किया जाएगा। तात्पर्य यह है कि यदि करों का इस्तेमाल सभी धमों की अभिवृद्धि के लिए किया जाता है तो कोई आपत्ति नहीं हो सकती। यह पंथनिरपेक्षता की अवधारण के अनुरूप है और इसका अर्थ है सर्वधर्म समभाव। संविधान किसी विशेष धर्म पर किये जाने वाले व्यय को कर से मुक्त करता है लेकिन यदि राज्य किसी धार्मिक सम्प्रदाय के लिए काई कार्य करता है, तो ऐसे कार्य के लिए राज्य उस धार्मिक सम्प्रदाय के लोगों से शुल्क वसूल सकता है। कर और शुल्क में अंतर होता है। राज्य बिना किसी सेवा के कर वसूलता है, जबकि सेवा करने के कारण राज्य शुल्क वसूलता है।

4.राजकीय शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा का निषेधः अनु0 28 में कहा गया है कि राजकीय निधि से संचालित किसी भी शिक्षण संस्था में किसी प्रकार की धार्मिक शिक्षा प्रदान नहीं की जाएगी।

      इसके अतिरिक्त राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त या आर्थिक सहायता प्राप्त शिक्षण संस्था में किसी व्यक्ति को किसी धर्म विशेष की शिक्षा ग्रहण करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकेगा।

      उपरोक्त तथ्य से यह स्पष्ट है कि संविधान ने धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना की है। धर्म निरपेक्ष राज्य अधार्मिक अथावा धर्मविरोधी नही होता लोक व्यवस्था एवं सदाचार के लिए राज्य उपरोक्त स्वतंत्रताओं  पर आवश्यक प्रतिबंध लगा सकता है। उदाहरण के लिए, धार्मिक स्वतंत्रता की आड़ में कोई बालवध या कन्या वध जैसे जघन्य अपराध नही कर सकता कमिश्नर, हिदू रिलीजिअस एंडोंमेंट्स बनाम लक्ष्मीन्द्र के विवाद में न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि धार्मिक स्वतंत्रता के प्रावधान-भारत के नागरिकों के लिए ही नहीं परन् सभी व्यक्तियों  के लिए हैं, जिनमें विदेशी भी शामिल है।

 

संस्कृत और शिक्षा संबंधी अधिकार

1.भाषा, लिपि और संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार- अनु0 29 भारत में कही भी निवास करने वाले ’’नागरिकों के प्रत्येक वर्ग को जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाए रखने के अधिकार की गारंटी देता है। किसी भी नागरिक को राज्य द्वारा चलाई जाने वाली अथवा उससे सहायता प्राप्त किसी भी शिक्षा संस्था में केवल धर्म, मूलवंश, जाति या भाषा के कारण प्रवेश देने से इंकार नहीं किया जाएगा।

2.शिक्षण संस्थाएं कायम करने का अधिकार- सभी अल्पसंख्यक वर्गो को अपनी पसंद की शिक्षण संस्थाएं कायम करने और उनका प्रबंध करने का अधिकार होगा। राज्य आर्थिक सहायता देने में ऐसी संस्थाओं के साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करेगा।

नोट-44वें संवैधानिक संशोधन द्वारा सम्पत्ति के मूल अधिकार को समाप्त करने का जो कार्य किया गया है उसके संबंध में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इससे अल्पसंख्यकों के अपनी रूचि की शिक्षण संस्थाओं की स्थापना तथा इन शिक्षण संस्थाओं के प्रशासन के अधिकार पर कोई आघात नहीं पहुंचेग। सेंट स्टीफेंस कॉलेज बनाम दिल्ली विश्वविद्यालय (1992) के विवाद में न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि पंथनिरपेक्षता या अल्पसंख्यकों के नाम पर अल्पसंख्यकों को अधिक अधिकार नही दिये जा सकते क्योंकि राष्ट्र की एकता और सद्भावना के लिए बहुसंख्यकों का विश्वास भी समान रूप से आवश्यक है अतः अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान अपने समुदाय के विद्यार्थियों के लिए अधिकतम 50 प्रतिशत तक स्थान आरक्षित कर सकते हैं।

संविधान में अल्पसंख्यकों को दी गई विशिष्टता का यह अर्थ कदापि नहीं है कि अल्पसंख्यक राष्ट्रीय जीवन की मुख्य धारा में घुल मिल सकें इसका अभिप्राय यह है कि देश की प्रगति के साथ-साथ बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों को एक-दूसरे से अलग करने वाले अवरोध धी-धीरे कम होते जाएं और भारत का परम्परावादी, नियमनिष्ठ समाज एक समन्वित, गतिशील समाज बनकर राष्ट्रीय आदर्शो और आकांक्षाओं के साथ उन्नति के पथ पर अग्रसर होता रहे।

 

मौलिक अधिकारों का वर्गीकरण

भारतीय संविधान के अध्याय, में अनु0 12 से 35 तक मौलिक अधिकारों का प्रावधान किया गया हैं। ये अधिकार 6 प्रकार के है यथा

  • समता का अधिकार (अनु0 14-18)
  • स्वतंत्रता का अधिकार (अनु0 19-22)
  • शोषण के विरूद्ध अधिकार (अनु0 23-24)
  • धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनु0 25-28)
  • संस्कृति और शिक्षा संबन्धी अधिकार (अनु0 29-30)
  • सैवैधानिक उपचार का अधिकार (अनु0 32)

      मूल संविधान में 7 मौलिक अधिकार थे, किंतु 1978 में 44 वें संशोधन के तहत संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार से हटा कर इसे साधारण विधिक अधिकार के रूप में संविधान के अनुच्छेद 300() में शामिल किया गया है।

समता का अधिकार (अनु0 14-18)

  • अनुच्छेद 14 के तहत प्रत्येक व्यक्ति विधि के समक्ष समान है, सभी व्यक्तियों को विधि का समान संरक्षण प्राप्त है।
  • अनु0-15 समता का अधिकार (1) के तहत राज्य किसी नागरिक के विरूद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति-लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।
  • लेकिन अनु0 15 (3) के अनुसार राज्य स्त्रियों और बालकों के लिए और सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि  से पिछड़े हुए नागरिकों  के किन्हीं वर्गो की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों  और जनजातियों के लिए कोई विशेष कानून बना सकेगा। अनु0 15 (2) कहता है कि कोई नागरिक केवल  धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान के आधार पर दुकानों, सार्वजतिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजनिक  मनोंरजन के स्थानों में प्रवेश या पूर्णतः या अंशतः राज्य द्वारा पोषित सर्वसाधारण के लिए कुंओं, तालाबों , स्नानघरों, सार्वजनिक समागम के स्थानों  या सड़कों के उपयोग  के आयोग्य नहीं समझा जाएगा।
  • अनुच्छेद 16 के अनुसार सभी नागरिकों के लिए राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में समानता होगी। पंरतु इस प्रावधान के दो अपवाद हैः
  • संसद किसी राज्य के अधीन निश्चित नियुक्तियों के संबंध में राज्य क्षेत्र  के भीतर निवास के विषय में शर्त लगा सकती है तथा
  • नागरिकों के पिछड़े वर्गो के लिए राज्य की नियुक्तियों में स्थान आरक्षित किया जा सकता है।
  • अनु0 17 कहता है कि कोई भी व्यक्ति अस्पृश्य नहीं माना जायेगा तथा अस्पृश्यता का प्रयोग करने वाला व्यक्ति विधि के अनुसार दंडित किया जाएगा। जबकि अनु0 18 में सेना या विद्या संबंधी उपाधि के सिवाय राज्य द्वारा कोई उपाधि देने की मनाही ही गयी है। भारतीय नागरिक विदेशों से उपाधि नही ले सकता तथा भारत सरकार के नियोजन में कार्यरत विदेशी भी विना राष्ट्रपति के अनुमति के विदेशी उपाधि नही ग्रहण कर सकते

स्वतंत्रता का अधिकार (अनु0 19-22)

भारतीय संविधान का उद्देश्य विचार, भिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वाधीनता सुनिश्चित करना है। भारतीय संविधान में केवल समानता का ही उल्लेख नहीं मिलता, बल्कि विविध स्वतंत्रताओं का भी व्यापक वर्णन किया गया है। अनु0 स्वतंत्रता का अधिकार (अनु0 19-22) में स्वतंत्रता के अधिकार की व्यापक व्याख्या की गई है। संविधान द्वारा प्राप्त स्वतंत्रताएं इस प्रकार हैः

अनुच्छेद-19 

  •  भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताः भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्रात्मक राज्य व्यवस्था के संचालन का एक अनिवार्य अंग हैं भारत के सभी नागरिकों को विचार करने, भाषण देने और अपने अन्य व्यक्तियों के विचारों को प्रकट करने की स्वतंत्रता प्राप्त है।
  • प्रेस भी विचारों के प्रचार का एक साधन हाने के कारण इसी में शामिल है। 44 वें संशोधन द्वारा संविधान मं एक नया अनु0 361 जोड़ दिया गया है जिसके अंतर्गत समाचार पत्रों  को संसद विधानमंडलां की कार्रवाई  प्रकाशित करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की गई है।
  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार रेडियो और दूरदर्शन पर भी लागू होता है। संविधान में यह प्रावधान किया गया है। कि वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर राज्य द्वारा भारत की प्रभुता और अखण्डता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बंधों, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार या सदाचार के हितों में अथवा न्यायालय की अवमानता, मानहानि या अपराध उद्दीपन के आधार पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है।

शांतिपूर्ण सम्मेलन की स्वतंत्रता

  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार तभी न्यायसंगत सिद्व होता है जब जनता के स्वतंत्रतापूर्वक एकत्रित होने का अधिकार प्राप्त हो इसलिए संविधान में शांतिपूर्ण ढंग से बिना किसी अस्त्र-शस्त्र के सभा यया सम्मेलन आयेजित करने का अधिकार प्रत्याभूत किया गया है। उदाहरण के लिए, प्र्रदर्शन जुलूस की स्वतंत्रता का यह अर्थ नहीं कि यातायात को ठप्प कर दिया जाए। एकत्रित होने के अधिकार पर केवल सार्वजनिक व्यवस्था की रक्षा के लिए प्रतिबंध लगाया जा सकता है।
  • हड़ताल करने का अधिकार मूल अधिकारों के अंतर्गत कोई मूल अधिकार नहीं है अतएव किसी भी व्यक्ति को हड़ताल करने  से रोका जा सकता है प्रदर्शन जब हड़ताल का रूप धारण कर लेता है तो वह विचारों को अभिव्यक्त करने का साधन मात्र  नहीं रह जाता।
  • समुदाय या संगठन के निर्माण की स्वतंत्रताः सभी नागरिकों को संघ तथा संगठन बनाने का अधिकार संविधान द्वारा प्रत्याभूत किया गया है। अपवाद-स्वतंत्रता की आड़ में नागरिक ऐसे समुदायों का निर्माण नहीं कर सकते जो षडयंत्र अथवा शांतिव्यवस्था को भंग करें। तात्पर्य यह है कि उनका उद्देश्य सुरक्षा शांति को खतरा पहुंचाना या अनैतिकता के प्रोत्साहन देना हो वेश्याओं और सैनिकों को संघ बनाने की स्वतंत्रता नहीं है।

सर्वत्र आने जाने और निवास की स्वतंत्रता 

  • अनु0 19 के अनुसार, भारत के सभी नागरिकों को किसी भी व्यवसाय, वृत्ति, उपजीविका अथवा व्यापार की स्वतंत्रता प्रदान की गयी है। किंतु राज्य, सामान्य जनता के हित में इन स्वतंत्रताओं पर उचित प्रतिबंध लगा सकता है। उदाहरण के लिए आवश्यक पदार्थो के उत्पादन वितरण पर उचित नियंत्रण लगाए जा सकते हैं। किसी भी व्यवसाय अथवा काराबार के लिए कुछ व्यावसायिक  अथवा तकनीकी योग्यताएं निर्धारित की जा सकती है। उदाहरण के लिए, वही या डाक्टर का पेशा अपनाने के लिए यह जरूरी है कि नागरिक व्यवसायिक योग्यता रखते हों

अपराध की दोषसिद्धि के विषय में संरक्षण

  • अनु0 20 में कहा गया है कि किसी व्यक्ति को उस समय तक अपराधी नहीं ठहराया जा सकता जब तक कि उसने अपराध के समय में लागू किसी कानून का उल्लंघन किया हो। किसी व्यक्ति पर एक अपराध के लिए एक बार से अधिक मुकदमा चलाया जाएगा, एक बार से अधिक सजा दी जाएगी किसी अपराध में अभियुक्त व्यक्ति को स्वयं अपने विरूद्ध गवाही देने के लिए बाध्य नही किया जा सकता।
  • केदारनाथ बनाम पश्चिम बंगाल राज्य 1954 के बाद में न्यायालय ने यह स्थिर किया कि जब विधान मण्डल किसी कार्य को अपराध घोशित करता है या किसी अपराध के दण्ड का उपबंध करता है तो वह विध को भूतलक्षी बनाकर उन व्यक्तियों पर प्रतिकूल  प्रभाव नहीं डाल सकता निन्हों ने उस विधि के अधिनियम किये जाने से पूर्व कार्य किए थे। 

व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा जीवन की सुरक्षा

  • अनु0 21 में कहा गया है कि ’’कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया  को छोड़कर अन्य किसी तरीके से किसी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा
  • 44वें संवैधानिक संशोधन (1978) द्वारा जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को और अधिक महत्व प्रदान किया गया है। जब आपातकाल की स्थित में भी जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को समाप्त या सीमित नही किया जा सकता।
  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा जीवन की सुरक्षा के अंतर्गत निम्नलिखित को शामिल किया गया है-
    •  विदेश में जाने या विदेश में भ्रमण की स्वतंत्रता।
    •  त्वरित  अन्वेषण तथा विचारण का अधिकार।
    •  निःशुल्क विधिक सहायता का अधिकार।
    •  यातना दिये जाने के अधिकार को  शामिल करके मानवीय गरिमा का अधिकार।
    •  निरूद्ध व्यक्ति द्वारा अपने विधिक सलाहकार तथा कुटुम्ब के सदस्यों और मित्रों के साथ मुलाकात करने का अधिकार
    •  पुलिस की क्रूरता के विरूद्ध अधिकार।
    •  लोक स्वास्थ्य को बनाये रखने तथा उसकी प्रोन्नति का अधिकार।
    •  दोष मुक्ति के बाद अवैध रूप से कारागार में निरूद्ध रखने पर प्रतिकार का अधिकार।
    •  अपील करने का कानूनी अधिकार।
    •  जीविकोपार्जन का अधिकार।

गिरफ्तारी और नजरबंदी की अवस्था में संरक्षण 

अनुच्छेद 22 में नागरिकों के निम्नलिखित तीन अधिकारों का उल्लेख किया गया है-

(1) बंदी बनाए गए व्यक्ति को उसके अपराध अथवा बंदी बनाये जाने के कारणों को बतलाए बिना अधिक समय तक बंदीगृह में नहीं रखा जा सकता।

(2) बंदी बनाए गए व्यक्ति को वही से परामर्श करने और अपने बचाव के लिए प्रबंध करने का अधिकार प्राप्त होगा।

(3) जिसे बंदी बनाया गया है उसे 24 घंटो के भीतर निकटस्थ मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित करना आवश्यक होगा। मजिस्ट्रेट की आज्ञा के बिना किसी को भी 24 घंटे से अधिक समय के लिए बंदी नहीं रखा जा सकता यं अधिकार दो प्रकार के अपराधियें पर लागू नहीं होंगे प्रथम-शत्रु देश के निवासियों पर  और द्वितीय-निवारक निरोध अधिनियम के अंतर्गत गिरफ्तार व्यक्तियों पर।

निवारक निरोध

  •   निवारक निरोध का तात्पर्य वास्तव में किसी प्रकार का अपराध किये जाने से पूर्व और बिना किसी प्रकार की न्यायिक प्रक्रिया के ही नजरबंदी है। निवारक निरोध किसी गैर-कानूनी कार्य को रोकने के लिए होता है, कि गैर-कानूनी कार्य के लिए किसी व्यक्ति को दंड देने के लिए।
  • अनुच्छेद 22 संसद को निवारक निरोध का उपबंध करने वाला ऐेसा कानून बनाने का अधिकार देता है जिसमें यह निर्धरित यि गया हो कि किसी व्यक्ति को किन परिस्थितियों में, किस वर्ग के मामलों में, अधिक से अधिक कितनी अवधि के लिए निरूद्ध किया जा सकता है
  • भारतीय संविधान के अनुसार निवारक निरेध सामान्यकाल तथा संकटकाल दोनों परिस्थितियों में लागू होता है। विशेष बात यह है कि ऐसी व्यवस्था किसी भी लोकतांत्रिक राज्य में नहीं पाई जाती। ब्रिटेन और अमेरिका आदि देश केवल युद्ध काल में ही इसको लागू करते हैं, जबकि भारत में युद्ध और शान्ति दोनो ही परिस्थितियों लागू किया जा सकता है।
  • निवारक निरोध अधिनियमः संसद द्वारा 1950 . में निवारक निरोध अधिनियम पारित किया गया समय-समय पर इस अधिनियम की अवधि बढ़ायी जाती रही यह अधिनियम 31 दिसंबर 1969 तक ही अस्तित्व में रहा क्योंकि इसके पश्चात इसकी अवधि में विस्तार नहीं किया जा सका।

आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम, 1971

  •  निवारक निरोध अधिनियम के विकल्प के रूप में 7 मई 1971 को राष्ट्रपति द्वारा 'आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम अध्यादेशजारी कर जून 1971 में इसे कानून बना दिया गया। इस कानून को बोलचाल की भाषा में  'मीसाकहा जाता है। यह अधिनियम निवारक निरोध अधिनियम की अपेक्षा अधिक कठोर है।
  • निवारक निरोध अधिनियम के अंतर्गत नजरबंदी की अधिकतम अवधि एक वर्ष थी। मीसा के अंतर्गत यह व्यवस्था की गई कि एक व्यक्ति को परामर्शदाता मण्डल से सलाह प्राप्त किए बिना संकट काल की अवधि में अधिक-से-अधिक 21 माह तक नजरबंद रखा जा सकता है इस कानून द्वारा किसी भी ऐसे व्यक्ति का नजरबंद किया जा सकता है जो कि भारत की प्रतिरक्षा, सुरक्षा  समाज के लिए आवश्यक आपूर्ति और सेवाओं की सुरक्षा  के विरूद्ध कार्यवाही करता है। आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम 44वें संविधान संशोधन के प्रतिकूल था इस कारण अप्रैल 1979 में यह स्वतः ही समाप्त हो गया।

राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम 1983

24 सितंबर, 1983 को सरकार ने  ’राष्ट्रीय सुरक्षा अध्यादेशके नाम से एक अध्यादेश जारी किया। इस आध्यादेश का उद्देश्य साम्प्रदायिक और जातीय दंगों और देश की सुरक्षा के लिए खतरनाक अन्य गतिविधियों के लिए उत्तरदायी व्यक्तियों के निरूद्ध करना है। इस अधिनियम के अंतर्गत निरोध की तिथि से 10 दिनों के भीतर निरोध के आधार बताए जाने का उपबंध है। निरूद्ध व्यक्ति विरोध की विधिमान्यता को न्यायालय में चुनौती दे सकता है।

विदेशी मुद्रा संरक्षण सरकारी निरीक्षण अधिनियम 1974 

आर्थिक क्षेत्र में 'राष्ट्रीय सुरक्षा कानूनकी श्रेणी का यह कानून  19 दिसंबर 1974 से लागू है। 13 जुलाई, 1984 को एक अध्यादेश के आधार पर इस अधिनियम में सेशोधन कर तस्करों के लिए नजरबंदी की सीमा एक वर्ष से बढ़ा कर दो वर्ष कर दी गई।

टाडा (TADA) 

भारत में बढ़ रहे आतंकवाद एवं विध्वंसक गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिएआतंकवाद एवं विध्वंसक गतिविधि निरोधक अधिनियम 1985 में लागू किया गया इस अधिनियम में निम्नलिखित प्रावधान किये गये 1. पुलिस अभियुक्त को 180 दिनों तक हिरासत में रख सकती है। दण्डाधिकारी के समक्ष उपस्थित कर फिर अगले 180 दिनांक तक हिरासत में रखा जा सकता है। 2. पुलिस के समक्ष की गई अपराध स्वीकृति को सबूत माना जा सकता है। 3. इसे एक राज्य से दूसरे राज्य में स्थानांतरित किया जा सकता है। 4. अभियुक्त को आरोपी और गवाहों की जानकारी से वंचित रखा जा सकता है। 5. इसके लिए अपील मात्र 30 दिनों के भीतर केवल सर्वोच्च न्यायालय में की जा सकती है। 23 मई 1995 को टाडा की अवधि समाप्त हो गई।

शोषण के विरूद्ध अधिकार

 न्याय का एक आवश्यक पहलू यह भी है कि एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति का शोषण समाप्त किया जाये। संविधान द्वारा न्याय के इस आदर्श की पुष्टि के लिए शोषण को अपराध घोषित किया गया

(1) अनुच्छेद 23 द्वारा मानव व्यापार तथा किसी भी व्यक्ति से बेगार या जबरदस्ती काम लेना गैरकानूनी घोषित किया गया है। यह अनुच्छेद अमेंरिकी संविधान के 13वें संशोधन की तरह है जिसमें दासता का अंत किया गया है भारत में भी सदियों से किसी किसी रूप में दासता की प्रथा विद्यमान थी, जिसके अनुसार हरिजन, खेतिहर श्रमिकों तथा स्त्रियों पर विभिन्न प्रकार के अत्याचार किए जाते थे। अतः संविधान में मानवीय शोषण के इन सभी रूपों को कानून के अनुसार दण्डनीय घेष्ति कर दिया गया है। इस अधिकार का एक महत्वपूर्ण अपवाद भी है। राज्य, सार्वजतिक उद्देश्य से अनिवार्य श्रम की योजना लागू कर सकता है, लेकिन ऐसा करते समय राज्य नागरिकों के बीच धर्म, मूलवंश, जाति, वर्ण या सामाजिक स्तर के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा।

(2) अनु0 24 के अनुसार 14 वर्ष से कम आयु वाले किसी बच्चे को कारखानों या अन्य किसी जोखिम भरे काम पर नियुक्त नहीं किया जा सकता यह निषेध मानव अधिकारों संबंधी अवधारणाओं तथा संयुक्त राष्ट्र के सिद्वांतों के अनुरूप है वस्तुतः शोषण के विरूद्ध अधिकार का उद्देश्य एक वास्तविक सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना करना है।

धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार      

धार्मिक स्वतंत्रता का अभिप्राय है कि किसी भी धर्म में आस्था रखने या रखने के बारे में राज्य कोई हस्तक्षेप नहीं करता। भारतीय संविधान के अनु0 25,26,27,28,धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करते है।

1.अंतःकरण की स्वतंत्रताः अनु-25 के अनुसार सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता तथा कोई भी धर्म स्वीकार करने या उसका प्रचार करने का अधिकार प्राप्त होगा।

कृपाण धारण करना सिख धर्म को मानने का अंग समझा जाएगा और इस अनु0 के प्रयोजनों के लिए सिख, जैन और बौद्ध भी हिंदुआं में शामिल होंगे।

उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय के अनुसार धर्म का प्रचार करने के अधिकार में बलात धर्म परिवर्तन का कोई अधिकार शामिल नहीं है क्योंकि इस लोक व्यवस्था अस्थिर हो सकती है।

आनन्द मार्ग के मामले में, सार्वजनिक जुलूस में घातक हथियारों तथा मनुष्य की खोपड़ियों के साथ तांडव नृत्य करने को अनिवार्य धार्मिक आचरण नही माना गया था और लोक व्यवस्था के हित में विधि द्वारा इसका प्रतिषेध किया जा सकता है।

2.धार्मिक मामलों में प्रबन्ध करने की स्वतंत्रताः अनुच्छेद 26 के अनुसार प्रत्येक धर्म के अनुयायियों को निम्न अधिकार प्रदान किये गये हैं।

प्रथमः धार्मिक संस्थाओं तथा दान से पोसित सार्वजनिक सेवा संस्थाओं की स्थापना तथा उनके संचालन का अधिकार।

द्वितीयः धर्म संबंधी निजी मामलों के प्रबंध का अधिकार।

तृतीयः चल और अचल सम्पत्ति के अर्जन और स्वामित्व का अधिकार।

चतुर्थः उक्त सम्पत्ति का विधि के अनुसार संचालन करने का अधिकार। अनु0-26 के अधीन अधिकार भी लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के आधीन है, लेकिन वे अन्य मूल अधिकारों के आधीन नही है। अनु0 25 के अधीन किए गए प्रावधान के अनुसार न्यायालयों ने धर्म के जरूरी तथा गैर जरूरी पक्षों के बीच विभेद किया है। न्यायालयों के अनुसार धार्मिक संस्थाओं की संपत्ति के प्रशासन विधि द्वारा विनियमित किया जा सकता है किन्तु प्रशासन के अधिकार को पूरी तरह छीना नही जा सकता (रतिलाल बनाम बम्बई राज्य1954), (रामानुज बनाम तमिलनाडु राज्य, 1961), (सरूप बनाम पंजाब राज्य, 1959), (नरेन्द्र बनाम गुजरात राज्य, 1974), (राम बनाम पंजाब राज्य, 1981)

3.धर्म की अभिवृद्धि के लिए कर देने की स्वतंत्रताः अनु0 27 में उल्लेख किया गया है कि किसी भी व्यक्ति को किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि या पोषण में किए गए खर्च के लिए कोई कर अदा करने लिए विवश नहीं किया जाएगा। तात्पर्य यह है कि यदि करों का इस्तेमाल सभी धमों की अभिवृद्धि के लिए किया जाता है तो कोई आपत्ति नहीं हो सकती। यह पंथनिरपेक्षता की अवधारण के अनुरूप है और इसका अर्थ है सर्वधर्म समभाव। संविधान किसी विशेष धर्म पर किये जाने वाले व्यय को कर से मुक्त करता है लेकिन यदि राज्य किसी धार्मिक सम्प्रदाय के लिए काई कार्य करता है, तो ऐसे कार्य के लिए राज्य उस धार्मिक सम्प्रदाय के लोगों से शुल्क वसूल सकता है। कर और शुल्क में अंतर होता है। राज्य बिना किसी सेवा के कर वसूलता है, जबकि सेवा करने के कारण राज्य शुल्क वसूलता है।

4.राजकीय शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा का निषेधः अनु0 28 में कहा गया है कि राजकीय निधि से संचालित किसी भी शिक्षण संस्था में किसी प्रकार की धार्मिक शिक्षा प्रदान नहीं की जाएगी।

इसके अतिरिक्त राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त या आर्थिक सहायता प्राप्त शिक्षण संस्था में किसी व्यक्ति को किसी धर्म विशेष की शिक्षा ग्रहण करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकेगा।

 

उपरोक्त तथ्य से यह स्पष्ट है कि संविधान ने धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना की है। धर्म निरपेक्ष राज्य अधार्मिक अथावा धर्मविरोधी नही होता लोक व्यवस्था एवं सदाचार के लिए राज्य उपरोक्त स्वतंत्रताओं  पर आवश्यक प्रतिबंध लगा सकता है। उदाहरण के लिए, धार्मिक स्वतंत्रता की आड़ में कोई बालवध या कन्या वध जैसे जघन्य अपराध नही कर सकता कमिश्नर, हिदू रिलीजिअस एंडोंमेंट्स बनाम लक्ष्मीन्द्र के विवाद में न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि धार्मिक स्वतंत्रता के प्रावधान-भारत के नागरिकों के लिए ही नहीं परन् सभी व्यक्तियों  के लिए हैं, जिनमें विदेशी भी शामिल है।

 

संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार

 

1.भाषा, लिपि और संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार- अनु0 29 भारत में कही भी निवास करने वाले ’’नागरिकों के प्रत्येक वर्ग को जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाए रखने के अधिकार की गारंटी देता है। किसी भी नागरिक को राज्य द्वारा चलाई जाने वाली अथवा उससे सहायता प्राप्त किसी भी शिक्षा संस्था में केवल धर्म, मूलवंश, जाति या भाषा के कारण प्रवेश देने से इंकार नहीं किया जाएगा।

2.शिक्षण संस्थाएं कायम करने का अधिकार- सभी अल्पसंख्यक वर्गो को अपनी पसंद की शिक्षण संस्थाएं कायम करने और उनका प्रबंध करने का अधिकार होगा। राज्य आर्थिक सहायता देने में ऐसी संस्थाओं के साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करेगा।

           44वें संवैधानिक संशोधन द्वारा सम्पत्ति के मूल अधिकार को समाप्त करने का जो कार्य किया गया है उसके संबंध में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इससे अल्पसंख्यकों के अपनी रूचि की शिक्षण संस्थाओं की स्थापना तथा इन शिक्षण संस्थाओं के प्रशासन के अधिकार पर कोई आघात नहीं पहुंचेग। सेंट स्टीफेंस कॉलेज बनाम दिल्ली विश्वविद्यालय (1992) के विवाद में न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि पंथनिरपेक्षता या अल्पसंख्यकों के नाम पर अल्पसंख्यकों को अधिक अधिकार नही दिये जा सकते क्योंकि राष्ट्र की एकता और सद्भावना के लिए बहुसंख्यकों का विश्वास भी समान रूप से आवश्यक है अतः अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान अपने समुदाय के विद्यार्थियों के लिए अधिकतम 50 प्रतिशत तक स्थान आरक्षित कर सकते हैं।

            संविधान में अल्पसंख्यकों को दी गई विशिष्टता का यह अर्थ कदापि नहीं है कि अल्पसंख्यक राष्ट्रीय जीवन की मुख्य धारा में घुल मिल सकें इसका अभिप्राय यह है कि देश की प्रगति के साथ-साथ बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों को एक-दूसरे से अलग करने वाले अवरोध धी-धीरे कम होते जाएं और भारत का परम्परावादी, नियमनिष्ठ समाज एक समन्वित, गतिशील समाज बनकर राष्ट्रीय आदर्शो और आकांक्षाओं के साथ उन्नति के पथ पर अग्रसर होता रहे।

संवैधानिक उपचारों का अधिकार

संविधान न केवल अधिकारों की एक शानदार सूची प्रस्तुत करता है, बल्कि उन अधिकारों की रक्षा की भी व्यवस्था करता है। अधिकारों की रक्षा का उत्तरदात्विव उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों को सौंपा गया है।

संवैधानिक उपचारों के अधिकारों की व्यवस्था के महत्व को दृष्टि में रखते हुए डा. अम्बेडकर ने कहा था,  “यदि कोई मुझसे यह पूछे कि संविधान का वह कौन सा अनुच्छेद है जिसके बिना संविधान शून्य प्राय हो जाएगा, तो इस अनुच्छेद (32) को छोड़कर मै और किसी अनुच्छेद की ओर संकेत  नही कर सकता । यह संविधान का हृदय एवं आत्मा है।’’ यह अनुच्छेद उच्चतम न्यायालय को नागरिकों के मूल अधिकारों का सजग प्रहरी बना देता है।

बंदी प्रत्यक्षीकरण  

जब कभी किसी व्यक्ति को विधि की अनुमति के बिना बंदी बनाकर रखा जाता है तो,  जिसने उस व्यक्ति को बंदी बना रखा है, उस व्यक्ति या अधिकारी को न्यायालय यह आदेश जारी करता है कि वह बंदी को न्यायालय के सम्मुख प्रत्यक्ष (प्रस्तुत) करे तथा उन कारणों को बताए जिनके आधार पर उसको बंदी बनाया गया है। यदि न्यायालय जाँच  करने के पश्चात् इस निर्णय पर पहुँचता है कि उस बंदी को विधि विरूद्ध  बंद किया गया है तो वह उसे मुक्त करने का आदेश देता है।

परमादेश  

जब कोई शासक, न्यायालय, निगम अथवा सार्वजनिक अधिकारी अपने लिए निर्धारित कर्त्तब्य का पालन नहीं करता है तो उच्चतम न्यायालय उसे अपने कर्त्तब्य का पालन करने के लिए आदेश देता है। इसी प्रकार, जब वह कोई  ऐसा कार्य करता है जो उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है तब भी न्यायालय उसे उस कार्य को करने पर रोक लगा सकता है।

उत्प्रेषण  

इसमें उच्चतम न्यायालय किसी कनिष्ठ न्यायालय अधिकरण या अधिकारी को यह आदेश दे सकता है जो प्रकरण उसके विचाराधीन है  उससे संबंधित कार्यवाही कागजात उच्चतम न्यायालय को भेजे। न्यायालय उन कागजातों की जांच पड़ताल करता है और यदि आवश्यक हो तो उस प्रकरण को समाप्त कर देता है।

प्रतिषेध

जब कोई न्यायालय अथवा अधिकरण किसी प्रकरण पर विचार कर रहा हो तो इस लेख के द्वारा उच्चतम न्यायालय उसे आदेश देता है कि वह उस प्रकरण पर विचार रोक दे।

अधिकार पृच्छा  

जब कभी कोई व्यक्ति अवैध रूप से किसी सार्वजनिक पद पर आसीन है तो न्यायालय उससे पूछता है किक वह किस विधि के अनुसार उस पद को धारण किए हुए है। यदि न्यायालय इस निर्णय  पर पहुँचता कि वह व्यक्ति अनाधिकृत रूप में उस पद पर आसीन है तो न्यायालय उसे पद छोड़ने का आदेश दे सकता है।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि संविधान के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत उच्च न्यायालयों को भी ये सारे लेख जारी करने के अधिकार प्राप्त हैं। किंतु यदि कोई व्यक्ति इस अनुच्छेद के अंतर्गत उच्च न्यायालय की शरण लेता है तो वह उच्चतम न्यायालय में सीधे नहीं जा सकता। ऐसी स्थिति में वह उच्च न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध अपील के रूप में ही उच्चतम न्यायालय जा सकता है।

यह बात ध्यान देने योग्य है कि अनुच्छेद 32 (1) के अन्तर्गत संसद को यह अधिकार है कि वह विधि द्वारा बिना उच्चतम न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को प्रभावित किए, किसी भी अन्य न्यायालय को अधिकृत कर सके कि वह न्यायालय के किसी एक अथवा सभी अधिकारों का उपभोग अपनी स्थानीय सीमा क्षेत्र के भीतर ही कर सकता है।

 

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