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संवैधानिक प्रयास

ब्रिटिश शासन के समय से ही पंचायतें स्थानीय शासन के रूप में कार्य करती रही हैं। परंतु यह कार्य सरकारी नियंत्रण में होता था। ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायतों और शहरों में नगरपालिकाओं द्वारा स्थानीय स्वशासन का कार्य किया जाता था। स्वतंत्र भारत में इस पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 40 ने इसकी पुष्टि इस प्रकार से की है- ‘राज्य, ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठाएगा और उनकी ऐसी शक्तियां और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हो।

सामुदायिक विकास कार्यक्रम के रूप में 1952  में भारत में विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया का शुभारम्भ हुआ | 1957 में बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिश पर त्रिस्तरीय पंचायती राज प्रणाली को अपनाया गया | तत्पश्चात अशोक मेहता समिति ने 1977 में, जी.वी. के. राव समिति, एम.एल.सिंघवी समिति ने अपने विचार रखे और 64 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1989 द्वारा संवैधानिक सुधार के प्रयास किये गए परन्तु ये सफल नहीं रहे | भारतीय संसद द्वारा पंचायतों तथा नगरपालिकाओं के लिए ऐतिहासिक कदम उठाते हुए भारतीय संविधान में 73वां तथा 74वां संशोधन 1992 में किया गया। संविधान का 73वां संशोधन अधिनियम 25 अप्रैल, 1993 से तथा 74वां संशोधन अधिनियम 1 जून, 1993 से लागू हो गया है। 73वें तथा 74वें संविधान संशोधन ने क्रमशः पंचायती राज तथा नगर पालिकाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।

बलवंत राय मेहता समिति 

बलवंत राय मेहता समिति का गठन 'पंचायती राज व्यवस्था' को मजबूती प्रदान करने के लिए वर्ष 1956 में बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में किया गया था। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट 1957 में प्रस्तुत कर दी थी। सिफारिशों को 1 अप्रैल, 1958 को लागू किया गया।

  • सन 1957 में योजना आयोग ने बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में "सामुदायिक परियोजनाओं एवं राष्ट्रीय विकास" सेवाओं का अध्ययन दल के रूप में एक समिति बनाई, जिसे यह दायित्व दिया गया की वह उन कारणों का पता करे, जो सामुदायिक विकास कार्यक्रम की संरचना तथा कार्यप्रणाली की सफलता में बाधक थी। मेहता दल ने 1957 के अंत में अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की, जिसके अनुसार- "लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण और सामुदायिक विकास कार्यक्रम को सफल बनाने हेतु पंचायती राज व्यवस्था की तुरंत शुरुआत की जानी चाहिए।"
  • पंचायती राज व्यवस्था को मेहता समिति ने "लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण " का नाम दिया। समिति ने ग्रामीण स्थानीय शासन के लिए त्रिस्तरीय व्यवस्था का सुझाव दिया, जो निम्न प्रकार था-
  • ग्राम- ग्राम पंचायत
  • खंड- पंचायत समिति
  • ज़िला- ज़िला परिषद

अशोक मेहता समिति

  • अशोक मेहता समिति का गठन दिसम्बर, 1977 ई. में अशोक मेहता की अध्यक्षता में किया गया था। 'बलवंत राय मेहता समिति' की सिफ़ारिशों के आधार पर स्थापित पंचायती राज व्यवस्था में कई कमियाँ उत्पन्न हो गयी थीं, इन कमियों को ही दूर करने तथा सिफ़ारिश करने हेतु 'अशोक मेहता समिति' का गठन किया गया था।
  • इस समिति में 13 सदस्य थे। समिति ने 1978 में अपनी रिपोर्ट केन्द्र सरकार को सौंप दी, जिसमें पंचायती राज व्यवस्था का एक नया मॉडल प्रस्तुत किया गया था। समिति द्वारा दी गई रिपोर्ट में केवल 132 सिफ़ारिशें की गयी थीं। इसकी प्रमुख सिफ़ारिशें थीं-
    • राज्य में विकेन्द्रीकरण का प्रथम स्तर ज़िला हो,
    • ज़िला स्तर के नीचे मण्डल पंचायत का गठन किया जाए, जिसमें क़रीब 15000-20000 जनसंख्या एवं 10-15 गाँव शामिल हों,
    • ग्राम पंचायत तथा पंचायत समिति को समाप्त कर देना चाहिए,
    • मण्डल अध्यक्ष का चुनाव प्रत्यक्ष तथा ज़िला परिषद के अध्यक्ष का चुनाव अप्रत्यक्ष होना चाहिए,
    • मण्डल पंचायत तथा परिषद का कार्यकाल 4 वर्ष हो,
    • विकास योजनाओं को ज़िला परिषद के द्वारा तैयार किया जाए
    • अशोक मेहता समिति की सिफ़ारिशों को अपर्याप्त माना गया और इसे अस्वीकार कर दिया गया।

जी बी के राव समिति

योजना आयोग ने जी बी के राव की अध्यक्षता में 1985 में ग्रामीण विकास और गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के लिए प्रशासनिक प्रबंधन विषय पर एक समिति का गठन किया गया तथा समिति ने अपनी रिपोर्ट 1988 में सरकार को सौंप दी और कहा कि लोकतांत्रिकरण की जगह विकासात्मक प्रशासन पर नौकरशाही की छाया पड़ने से पंचायती राज की संस्थाएं निर्बल हुई है तथा उनकी स्थिति बिना जड़ के घास जैसी हो गई है |

समिति ने विकेंद्रीकरण के तहत नियोजन एवं विकास कार्य में पंचायतों की भूमिका को बल प्रदान किया इसी के तहत जी बी के राव समिति की सिफारिशें, दांतवाला समिति 1978 जो कि ब्लॉक नियोजन से संबंधित थी तथा 1984 में जिला स्तर के नियोजन से संबंधित हनुमंत राव समिति की रिपोर्ट से भिन्न है |

जी बी के राव समिति ने निम्न सिफारिशें प्रस्तुत की -

  • विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया में जिला परिषद की सशक्त भूमिका होनी चाहिए, क्योंकि नियोजन एवं विकास कार्य के लिए जिला एक उपयुक्त स्तर है |
  • विकास कार्यक्रमों का पर्यवेक्षण नियोजन कार्यालय जिला या उसके निचले स्तर की पंचायती संस्थाओं द्वारा किया जाना चाहिए |
  • जिला विकास आयुक्त के पद का सृजन किया जाए तथा उसे जिले के विकास कार्यों का प्रभारी बनाया जाए |
  • नियमित चुनाव कराने चाहिए |
  • राज्य स्तर पर राज्य विकास परिषद, जिला स्तर पर जिला विकास परिषद, मंडल स्तर पर मंडल पंचायत तथा ग्राम स्तर पर ग्राम सभा की सिफारिश की |

एल एम सिंघवी समिति

1986 में राजीव गांधी सरकार द्वारा ‘रिवाइटलाइजेशन ऑफ पंचायती राज इंस्टीट्यूशंस फॉर डेमोक्रेसी एंड डेवलपमेंट’ विषय पर एल एम सिंघवी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया | इस समिति ने निम्न सिफारिशें सरकार को सौंपी | प्रमुख सिफारिशें-

  • पंचायती राज्य संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया जाए और संविधान में इसके लिए अलग अध्याय को जोड़ा जाए तथा इन संस्थाओं के नियमित चुनाव के लिए संविधान में प्रावधान किया जाए |
  • कई गांवों को मिलाकर न्याय पंचायतों का गठन किया जाए |
  • पंचायतों के लिए कई गांवों का पुनर्गठन किया जाए |
  • पंचायतों को वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराए जाएं |
  • पंचायतों से जुड़े मामलों (जैसे चुनाव, समय से पूर्व पंचायतें भंग करने तथा कार्यप्रणाली) को हल करने के लिए राज्य में न्यायिक अधिकरण की स्थापना की जाए |

73 वें संविधान संशोधन अधिनियम,1992

पंचायतों को संवैधानिक मान्यता दिलाने हेतु वर्ष 1989 में राजीव गाँधी सरकार द्वारा विधेयक संसद में पेश किया गया जो लोकसभा में तो पारित हो गया किंतु राज्यसभा में पारित नहीं हो सका , क्योकिं  इसमें केंद्र  को मजबूत बनाने प्रावधान था | वर्ष 1990 में वी.पी. सिंह सरकार ने पंचायतों से संबंधित एक विधेयक लोकसभा में पेश किया किंतु सरकार गिर जाने के साथ ही विधेयक भी समाप्त हो गया |अततः नरसिम्हा राव सरकार द्वारा 73 वें संविधान संशोधन  अधिनियम 1992 के द्वारा पंचायतों को संवैधानिक मान्यता प्राप्त हो गयी | इसकी प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • इस अधिनियम के अंतर्गत भारतीय संविधान में एक नया भाग–9  पंचायती राज, अनु.–243 के अंतर्गत सम्मिलित किया गया |  संविधान में 11वीं अनुसूची  जोड़ी गयी, जिसके अंतर्गत पंचायतों की 29 कार्यकारी विषय–वस्तुओं को शामिल किया गया |
  • इस अधिनियम के द्वारा संविधान के अनु.-40 को एक व्यवहारिक रूप दिया गया जिसमें कहाँ गया है कि राज्य ग्राम पंचायतों के गठन के लिए कदम उठाएगा और उन्हें आवश्यक अधिकारों एवं शक्तियों से विभूषित करेगा |
  • पंचायती राज व्यवस्था के उपबंधो को दो वर्गों में विभाजित किया गया है –
  • एक, अनिवार्य – पंचायती राज व्यवस्था के गठन को राज्य कानून में शामिल किया जाना अनिवार्य है |
  • दूसरा, स्वैच्छिक–भौगोलिक, राजनैतिक व प्रशासनिक तथ्यों को ध्यान में रखकर पंचायती राज पद्धति को अपनाने का अधिकार सुनिश्चित करता है  |
  • इसमें त्रिस्तरीय प्रतिनिधि शासन की बात की गयी-
    • ग्राम सभा, मध्यवर्ती पंचायत एवं जिला पंचायत | लेकिन जिन राज्यों की जनसंख्या 20 लाख से अधिक नहीं है वहां मध्यवर्ती पंचायत नहीं होगी अर्थात द्विस्तरीय संरचना का प्रावधान किया गया |
  • सदस्यों व अध्यक्ष का चुनाव – राज्यों में ग्राम, ब्लाक/माध्यमिक और जिला स्तर पर सभी सदस्य लोगों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाएंगे,  किंतु   ब्लाक/माध्यमिक और जिला स्तर पर पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव निर्वाचित सदस्यों द्वारा उन्हीं के मध्य से अप्रत्यक्ष रूप से किया जाएगा जबकि ग्राम स्तर पर अध्यक्ष का चुनाव विधानमंडल द्वारा निर्धारित तरीके से किया जाएगा |
  • आरक्षण –  पंचायतों के तीनों स्तर पर अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति को उनकी जनसँख्या के कुल अनुपात में सीटों पर आरक्षण का प्रावधान है साथ ही ग्राम या अन्य स्तर पर पंचायत्तों में  अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए अध्यक्ष पद के लिए भी आरक्षण का प्रावधान है |
    • महिलाओं के लिए 33% आरक्षण का प्रावधान किया गया | साथ ही पंचायत के प्रत्येक स्तर पर अध्यक्षों के पदों की कुल संख्या के न्यूनतम 33% पद महिलाओं के लिए आरक्षित रखे गए |
  • संविधान द्वारा पंचायतों के लिए 5 वर्ष का कार्यकाल निश्चित किया गया है किंतु उसे समय से पूर्व भी विघटित किया जा सकता है , किंतु विघटित होने की दशा में 6 माह के भीतर पुन: नई पंचायत का गठन आवश्यक है |
  • जहाँ पंचायत  के कार्यकाल पूरा होने में 6 माह शेष है इस अवधि में पंचायत का विघटन होने पर नई पंचायत के लिए चुनाव कराना आवश्यक नहीं है | इस स्थिति में भंग पंचायत ही कार्य करती रहती है |
  • पंचायतों की वित्तीय स्थिति की जांच के लिए प्रत्येक 5 वें वर्ष वित्त आयोग का गठन किया जाएगा |
  • राज्य विधान मंडल कानून बनाकर पंचायतों को कर लगाने, उन्हें वसूल करने तथा प्राप्त धन को व्यय करने का अधिकार प्रदान कर सकती है|
  • पंचायती राज अधिनियम जम्मू–कश्मीर, नागालैंड, मेघालय, मिजोरम और कुछ अन्य विशेष क्षेत्रों पर लागू नहीं होता है, जैसे –
  • उन राज्यों के अनुसूचित आदिवासी क्षेत्रों में 
  • मणिपुर के उन पहाड़ी क्षेत्रों में जहाँ जिला परिषद् का अस्तित्व हो 
  • पश्चिम बंगाल (West Bangal) के दार्जिलिंग में जहाँ पर दार्जिलिंग गोरखा हिल परिषद् अस्तित्व में हो 

किंतु यदि संसद चाहे तो इस अधिनियम को ऐसे अपवादों और संशोधनों के साथ अनुसूचित क्षेत्रों एवं जनजाति क्षेत्रों में लागू कर सकती है |

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