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प्रशासन तथा आर्थिक जीवन

  • विजयनगर के शासकों के मस्तिष्क में राज्य का स्वरूप बहुत साफ़ था। राजनीति पर अपनी पुस्तक में कृष्णदेव राय राजा के लिए लिखता है कि, "तुम्हें बड़े ध्यान से यथाशक्ति सुरक्षा और दंड काम करना चाहिए। उसमें अपने देखे-सुने की अवहेलना नहीं करनी चाहिए।" वह राजा को "प्रजा पर उदार होकर कर लगाओं," जैसी सलाह भी देता है। विजयनगर साम्राज्य में राजा की सहायता के लिए एक मंत्रीमंण्डल होता था, जिसमें साम्राज्य के श्रेष्ठ विद्वान होते थे। साम्राज्य राज्य या मंडलम और उसके अंतर्गत नाडु, स्थल और ग्राम में विभक्त था।
  • विजयनगर के शासकों ने स्वायत्त ग्राम-प्रशासन की चोल परम्परा को बनाये रखां, लेकिन वंशानुगत नायक होने की परम्परा ने उस स्वतंत्रता को सीमित अवश्य कर दिया। प्रान्तों के गवर्नर पहले राजकुमार हुआ करते थे। बाद में साम्राज्य के शासक वंशों और सामंतों में से भी इस पद पर नियुक्तियाँ होने लगीं। प्रान्तीय प्रशासक काफ़ी सीमा तक स्वतंत्र होते थे। वे अपना दरबार लगाते थे। अपने अधिकारी नियुक्त करते थे और अपनी सेना भी रखते थे। वे अपने सिक्के भी चला सकते थे। परन्तु यह अधिकार छोटे सिक्कों के परिचालन तक सीमित था। प्रान्तीय प्रशासक की कार्यवाही निश्चित नहीं होती थी। वह उसकी योग्यता और शक्ति पर निर्भर करती थी। गवर्नर को नये कर लगाने या पुराने करों को हटाने का अधिकार भी था। प्रत्येक गवर्नर केन्द्र की सेवा में निश्चित संख्या में सैनिक और पैसा उपस्थित करता था। अनुमान है कि साम्राज्य कि कुल आय 12,000,000 पराडो थी, जिसमें आधा केन्द्रीय सरकार को मिलता था।
  • साम्राज्य में 'कबलकार' नाम का एक अधिकारी भी हुआ करता था, जो प्राय: सामाजिक एवं धार्मिक विषयों पर निर्णय देता था। इसे 'अरसुकवलकार' के नाम से भी जाना जाता था। नगर में बहुत से क्षेत्र ऐसे भी थे, जो अधीनस्थ शासकों द्वारा शासित थे, अर्थात उनके द्वारा जिन्हें युद्धों में परास्त करने के बाद छोटा राज्य लौटा दिया गया था। राजा सेनापतियों को भी निश्चित कर के एवज में कुछ अमरम प्रदान करता था। ये सेनापति पलाइयागार अथवा नायक कहलाते थे। इन्हें साम्राज्य की सेवा के लिए पैदल-सैनिकों, घुड़-सवारों और हाथियों की एक निश्चित संख्या रखनी पड़ती थी। नायकों को भी केन्द्रीय राजस्व में एक निश्चित राशि देनी पड़ती थी। ये साम्राज्य का एक शक्तिशाली वर्ग था और कभी-कभी राजा को इन्हें काबू में रखने के लिए काफ़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। विजयनगर साम्राज्य की इन कमज़ोरियों का बन्नीहट्ट या तालीकोटा अथवा राक्षस-तंगड़ी के युद्ध में उसकी पराजय और बाद में उसके विघटन में बहुत बड़ा हाथ था। तंजौर और मदुरई आदि स्थानों के नायक तभी से स्वतंत्र हो गए थे।

 

किसानों की स्थिति

  • विजयनगर साम्राज्य में किसानों की आर्थिक स्थिति पर सब इतिहासकार एक मत नहीं है। क्योंकि अधिकांश यात्रियों को ग्रामीण-जीवन का बहुत कम अनुभव हुआ था और उन्होंने इस विषय में मात्र सामान्य टिप्पणियाँ दी हैं। यह स्वीकार किया जा सकता है कि सामान्य नागरिक की आर्थिक स्थिति लगभग पहले जैसी ही रही। उनके मकान मिट्टी और फूस के थे, जिनके दरवाज़े भी छोटे थे। वे अक्सर नंगे पाँव चलते थे और कमर के ऊपर कुछ भी नहीं पहनते थे। उच्च वर्ग के लोग कभी-कभी मंहगे जूते, सिरों पर रेशमी पगड़ी पहनते थे, लेकिन कमर के ऊपर वे भी कुछ नहीं पहनते थे। सभी वर्गों के लोग आभूषणों के शौक़ीन थे और कानों, गर्दनों और बाज़ुओं पर कोई न कोई आभूषण पहनते थे। इस बात की कोई जानकारी नहीं मिलती कि किसान अपने उत्पादन का कितना अंश लगान के रूप में देते थे।
  • एक आलेख के अनुसार करों की दर इस प्रकार थी-
    • सर्दियों में 'कुरुबाई', चावल की एक क़िस्म, का 1/3
    • सीसम, रग्गी और चने आदि का 1/4
    • ज्वार और शुष्क भूमि पर उत्पन्न होने वाले अन्य अनाजों का 1/6

         इस प्रकार अनाज, भूमि, सिंचाई के साधनों के अनुसार लगान की दर अलग-अलग थी। लगान के अतिरिक्त सम्पत्ति कर, विक्रय-कर, व्यवसाय-कर, युद्ध के समय सैन्यकर, विवाह कर आदि भी थे। सोलहवीं शताब्दी का यात्री निकितिन कहता है कि "देश में जनसंख्या बहुत अधिक है, लेकिन ग्रामीण बहुत ग़रीब हैं जबकि सामंत समृद्ध हैं और ऐश्वर्यपूर्ण जीवन का आनन्द उठाते हैं।" इस प्रकार के कथन बहुत साधारण जानकारी देते हैं। ऐसी जानकारी को मध्ययुग के समस्त भारतीय समाज पर लागू किया जा सकता है।

 

केन्द्रीय व्यवस्था

  • विजयनगर साम्राज्य की शासन पद्धति राजतंत्रात्मक थी। राज्य एवं शासन के मूल को राजा, जिसे 'राय' कहा जाता था, होता था।
  • इस काल में प्राचीन राज्य की ‘सप्तांग विचारधारा’ का अनुसरण किया जाता था। राजा के चुनाव में राज्य के मंत्री एवं नायक महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते थे।
  • विजयनगर में संयुक्त शासक की भी परम्परा थी। राजा को राज्याभिषेक के समय प्रजापालन एवं निष्ठा की शपथ लेनी पड़ती थी। राज्याभिषेक के अवसर पर दरबार में अत्यन्त भव्य आयोजन होता था, जिसमें नायक, अधिकारी तथा जनता के प्रतिनिधि सम्मिलित होते थे।
  • अच्युतदेव राय ने अपना राज्याभिषेक तिरुपति वेंकटेश्वर मन्दिर में सम्पन्न कराया था। राजा के बाद ‘युवराज’ का पद होता था। युवराज राजा का बड़ा पुत्र व राज्य परिवार का कोई भी योग्य पुरुष बन सकता था। युवराज के राज्याभिषेक को 'युवराज पट्टाभिषेक' कहते थे। विजयनगर में संयुक्त शासन की परम्परा भी विद्यमान थी, जैसे - हरिहर प्रथम एवं बुक्का प्रथम। युवराज के अल्पायु होने की स्थिति में राजा अपने जीवन काल में ही स्वयं किसी मंत्री को उसका संरक्षक नियुक्त करता था। इस काल में कुछ महत्त्वपूर्ण संरक्षक थे- वीर नरसिंह, नरसा नायक एवं रामराय आदि।
  • कालान्तर में यही संरक्षक व्यवस्था ही विजयनगर के पतन में बहुत कुछ ज़िम्मेदार रही। विजयनगर के राजाओं ने अपने व्यक्तिगत धर्म के बाद भी धार्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया। यद्यपि राज्य निरंकुश होता था, पर बर्बर नहीं। उसकी निरंकुशता पर नियन्त्रण तथा प्रशासनिक कार्यों में सहयोग करने के लिए एक ‘मंत्रिपरिषद’ होती थी, जिसमें प्रधानमंत्री, मंत्री, उपमंत्री, विभागों के अध्यक्ष तथा राज्य के कुछ नज़दीक के सम्बन्धी होते थे।

 


प्रांतीय प्रशासन

  • विजयनगर साम्राज्य का विभाजन प्रान्त, राज्य या मंडल में किया गया था। कृष्णदेव राय के शासनकाल में प्रान्तों की संख्या सर्वाधिक 6 थी। प्रान्तों के गर्वनर के रूप में राज परिवार के सदस्य या अनुभवी दण्डनायकों की नियुक्ति की जाती थी। इन्हें सिक्कों को प्रसारित करने, नये कर लगाने, पुराने कर माफ करने एवं भूमिदान करने आदि की स्वतन्त्रता प्राप्त थी। प्रान्त के गर्वनर को 'भू-राजस्व' का एक निश्चित हिस्सा केन्द्र सरकार को देना होता था।
  • प्रान्त को ‘मंडल’ एवं मंडल को ‘कोट्म’ या ‘ज़िले’ में विभाजित किया गया था। कोट्टम को ‘वलनाडु’ भी कहा जाता था। कोट्टम का विभाजन ‘नाडुओं’ में हुआ था, जिसकी स्थिति आज के परगना एवं ताल्लुका जैसी थी। नाडुओं को ‘मेंलाग्राम’ में बाँटा गया था। एक मेलाग्राम के अन्तर्गत लगभग 50 गाँव होते थे। ‘उर’ या ‘ग्राम’ प्रशासन की सबसे छोटी ईकाई थी। इस सम गांवों के समूह को ‘स्थल’ एवं ‘सीमा’ भी कहा जाता था।
  • विभाजन का क्रम इस प्रकार था-
  1. प्रान्त - मंडल-कोट्टम या वलनाडु
  2. प्रकोट्टम - नाडु-मेलाग्राम-उर या ग्राम।
  • सामान्यतः प्रान्तों में राजपरिवार के व्यक्तियों (कुमार या राजकुमार) को ही नियुक्त किया जाता था। गर्वनरों को सिक्के जारी करने, नये कर लगाने, पुराने करों को माफ करने, भूमिदान देने जैसे अधिकार प्राप्त थे। संगम युग में गर्वनरों के रूप में शासन करने वाले राजकुमारों को 'उरैयर' की उपाधि मिली हुई थीचोल युग और विजयनगर युग के राजतंत्र में सबसे बड़ा अन्तर 'नायंकार व्यवस्था' थी।

 

नायंकार व्यवस्था

  • इस व्यवस्था की उत्पत्ति के बारे में इतिहासकारों में मतभेद हैं। कुछ का मानना है कि, विजयनगर साम्राज्य की सेना के सेनानायकों को ‘नायक’ कहा जाता था, कुछ का मानना है कि, नायक भू-सामन्त होते थे, जिन्हें वेतन के बदले एवं स्थानीय सेना के ख़र्च को चलाने के लिए विशेष भू-खण्ड, जिसे ‘अमरम’ कहा जाता था, दिया जाता था। चूंकि ये अमरम भूमि का प्रयोग करते थे, इसलिए इन्हे ‘अमरनायक’ भी कहा जाता था। अमरम भूमि की आय का एक हिस्सा केन्द्रीय सरकार के कोष के लिए देना होता था। नायक को अमरम भूमि में शांति, सुरक्षा एवं अपराधों को रोकने के दायित्व का भी निर्वाह करना होता था। इसके अतिरिक्त उसे जंगलों को साफ़ करवाना एवं कृषि योग्य भूमि का विस्तार भी करना होता था। नायंकारों के आंतरिक मामलों में राजा हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। इनका पद आनुवंशिक होता था। नायकों का स्थानान्तरण नहीं होता था। राजधानी में नायकों के दो सम्पर्क अधिकारी - एक नायक की सेना का सेनापति और दूसरा प्रशासनिक अभिकर्ता ‘स्थानपति’ रहते थे। अच्युतदेव राय ने नायकों की उच्छृंखता को रोकने के लिए ‘मंहामंडलेश्वर’ या 'विशेष कमिश्नरों' की नियुक्त की थी। नायंकार व्यवस्था में पर्याप्त रूप में सामंतवादी लक्षण थे, जो विजयनगर साम्राज्य के पतन का कारण बनी।

 

आयंगार व्यवस्था

  • प्रशासन को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए प्रत्येक ग्राम को एक स्वतन्त्र इकाई के रूप में संगठित किया गया था। इन संगठित ग्रामीण इकाइयों पर शासन हेतु एक 12 प्रशासकीय अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी, जिनकों सामूहिक रूप से ‘आयंगार’ कहा जाता था। ये अवैतनिक होते थे। इनकी सेवाओं के बदले सरकार इन्हे पूर्णतः कर मुक्त एवं लगान मुक्त भूमि प्रदान करती थी। इनका पद ‘आनुवंशिक’ होता था। यह अपने पद को किसी दूसरे व्यक्ति को बेच या गिरवी रख सकता था। ग्राम स्तर की कोई भी सम्पत्ति या भूमि इन अधिकारियों की इजाजत के बगैर न तो बेची जा सकती थी, और न ही दान दी जा सकती थी। 'कर्णिक' नामक आयंगार के पास ज़मीन के क्रय एवं विक्रय से सम्बन्धित समस्त दस्तावेज होते थे। इस व्यवस्था ने ग्रामीण स्वतंत्रता का गला घोंट दिया।

 

स्थानीय प्रशासन

  • विजयनगर काल में चोल कालीन सभा को कहीं-कहीं 'महासभा', 'उर' एवं 'महाजन' कहा जाता था। गाँव को अनेक वार्डों या मुहल्लों में विभाजित किया गया था। ‘सभा’ में विचार-विर्मश के लिए गाँव या क्षेत्र विशेष के लोग भाग लेते थे। ‘सभा’ नई भूमि या अन्य प्रकार की सम्पत्ति उपलब्ध कराने, गाँव की सार्वजनिक भूमि को बेचने, ग्रामीण की तरफ़ से सामूहिक निर्णय लेने, गाँव की भूमि को दान में देने के अधिकार अपने पास सुरक्षित रखती थी। यदि कोई भूमि स्वामी लम्बे समय तक लगान नहीं दे पाता था तो, ग्राम सभाएँ उसकी ज़मीन जब्त कर लेती थीं। न्यायिक अधिकारों के अन्तर्गत सभा के पास दीवानी मुकद्दमों एवं फ़ौजदारी के छोटे-छोटे मामलों का निर्णय करने का अधिकार होता था। ‘नाडु’ गाँव की बड़ी राजनीतिक इकाई के रूप में प्रचलित थी। नाडु की सभा को नाडु एवं सदस्यों को ‘नात्वार’ कहा जाता था। अधिकार क्षेत्र काफ़ी विस्तृत होते थे, पर शासकीय नियंत्रण में रहना पड़ता था। विजयनगर के शासन काल में इन स्थानीय इकाइयों का ह्मस हुआ। ‘सेनेटेओवा’ गाँव के आय-व्यय की देखभाल करता था, ‘तलरी’ गांव के चौकीदार को कहते थे। ‘बेगरा’ गाँव में बेगार, मज़दूरी आदि की देखभाल करता था। ब्रह्मदेव ग्रामों (ब्राह्मणों को भूमि-अनुदान के रूप में प्राप्त ग्राम) की सभाओं को 'चतुर्वेदीमंगलम' कहा गया है। ग़ैर ब्रह्मदेव ग्राम की सभा 'उर' कहलाती थी।

 

इस समय आय के प्रमुख स्रोत थे - लगान, सम्पत्ति कर, व्यवसायिक कर, उद्यागों पर कर, सिंचाई कर, चरागाह कर, उद्यान कर एवं अनेक प्रकार के अर्थ दण्ड।

विजयनगर साम्राज्य के प्रमुख पदाधिकारी

अधिकारी

प्रमुख

नायक

बड़े सेनानायक

महानायकाचार्य

ग्राम सभाओं का निरीक्षक अधिकारी

दण्डनायक

सैनिक विभाग प्रमुख तथा सेनापति

प्रधानी अथवा महाप्रधानी

मंत्रिपरिषद का प्रमुख

रायसम

सचिव

कर्णिकम

लेखाधिकारी

अमरनायक

सैन्य मदद देने वाला सामंतों का वर्ग

आयंगार

वंशानुगत ग्रामीण अधिकारी

पलाइयागार (पालिगार)

ज़मीदार

स्थानिक

मंदिरों की व्यवस्था करने वाला

सेनंटओवा

ग्राम का लेखाधिकारी

तलर

ग्राम का रखवाला

गौड

ग्राम प्रशासक

अंत्रिमार

ग्राम प्रशासन का एक अधिकारी

परूपत्यगार

राजा या गर्वनर का प्रतिनिधि

 

भू-राजस्व व्यवस्था

  • विजयनगर साम्राज्य द्वारा वसूल किये जाने वाले विविध करों के नाम थे - 'कदमाई', 'मगमाइ', 'कनिक्कई', 'कत्तनम', 'कणम', 'वरम', 'भोगम', 'वारिपत्तम', 'इराई' और 'कत्तायम' ‘शिष्ट’ नामक भूमिकर विजयनगर राज्य की आय का प्रमुख एवं सबसे बड़ा स्रोत था। राज्य उपज का 1/6 भाग कर के रूप में वसूल करता था। कृष्णदेव राय के शासन काल में भूमि का एक व्यापक सर्वेक्षण करवाया गया तथा भूमि की उर्वरता के अनुसार उपज का 1/3 या 1/6 भाग कर के रूप में निर्धारित किया गया। सम्भवतः राजस्व की दर विभिन्न प्रान्तों में अलग-अलग थी। आय का एक अन्य स्रोत था - सिंचाई कर, जिसे तमिल प्रदेश में ‘दासावन्दा’ एवं आन्ध्र प्रदेश व कर्नाटक में ‘कट्टकोडेज’ कहा गया। यह कर उन व्यक्तियों से लिया जाता था, जो सिंचाई के साधनों का उपयोग करते थे। ब्राह्मणों के अधिकार वाली भूमि से उपज का 20 वाँ भाग तथा मंदिरों की भूमि से उपज का 30वाँ भाग लगान के रूप में वसूला जाता था। विजयनगर साम्राज्य में कोई ऐसा वर्ग नहीं था, जिससे व्यवसायिक कर नहीं लिया जाता हो। रामराय ने केवल नाइयों को व्यावसायिक कर से मुक्त कर दिया। केन्द्रीय राजस्व विभाग को अठनवे (अयवन) कहा जाता था।

 

भूमि के प्रकार व कर

  • सामाजिक एवं सामुदायिक कर के रूप में विवाह कर लिया जाता था। विधवा से विवाह करने वाले इस कर से मुक्त होते थे। कृष्णदेव राय ने विवाह कर को समाप्त कर दिया था। राज्य का राजस्व वस्तु एवं नकद दोनों ही रूपों में वसूल किया जाता था। विजयनगर काल में मंदिरों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी। वे सिंचाई परियोजनाओं के साथ-साथ बैंकिग गतिविधियों का संचालन भी करते थे। इनके पास सुरक्षित भूमि को देवदान,अनुदान कहा जाता था। एक शिलालेख के उल्लेख के आधार पर माना जाता है कि, इस समय मंदिरों में लगभग 370 नौकर होते थे। भंडारवाद ग्राम वे ग्राम थे, जिनकी भूमि सीधे राज्य के नियंत्रण में थी। यहाँ के किसान राज्य को कर देते थे।

 

उंबलि - ग्राम में विशेष सेवाओं के बदले दी जानी वाली कर मुक्त भूमि की भू-धारण पद्धति ‘उंबलि’ थी।

रत्त (खत्त) कोड़गे - युद्ध में शौर्य का प्रदर्शन करने वाले या अनुचित रूप से युद्ध में मृत लोगों के परिवार को दी गई भूमि।

कुट्टगि - ब्राह्मण, मंदिर एवं बड़े भू-स्वामी, जो स्वयं खेती नहीं कर सकते थे, वे खेती के लिए किसानों को पट्टे पर भूमि देते थे। इस तरह की पट्टे पर ली गयी भूमि ‘कुट्टगि’ कहलाती थी

कुदि - वे कृषक मज़दूर होते थे, जो भूमि के क्रय-विक्रय के साथ ही हस्तांतरित हो जाते थे, परन्तु इन्हें इच्छापूर्वक कार्य से विलग नहीं किया जा सकता था।

 

व्यापार

  • विजयनगर काल में मलाया, बर्मा, चीन, अरब, ईरान, अफ़्रीका, अबीसीनिया एवं पुर्तग़ाल से व्यापार होता था। मुख्य निर्यातक वस्तुऐं थीं - कपड़ा, चावल, गन्ना, इस्पात, मसाले, इत्र, शोरा, चीनी आदि। आयात की जाने वाली वस्तुऐं थीं - अच्छी नस्ल के घोड़े, हाथी दांत, मोती बहुमूल्य पत्थर, नारियल, पॉम, नमक आदि। मोती फ़ारस की खाड़ी से तथा बहुमूल्य पत्थर पेगू से मंगाये जाते थे। नूनिज ने हीरों के ऐसे बन्दरगाह की चर्चा की है, जहाँ विश्व भर में सर्वाधिक हीरों की खानें पायी जाती थीं। व्यापार मुख्यतः चेट्टियों के हाथों में केन्द्रित था। दस्तकार वर्ग के व्यापारियों को 'वीर पांचाल' कहा जाता था।

 

मुद्रा व्यवस्था

  • विजयनगर में स्वर्ण का सर्वाधिक प्रसिद्ध सिक्का 'वराह' था, जिसका वज़न 52 ग्रेन था, और जिसे विदेशी यात्रियों ने हूण, परदौस या पगोड़ा के रूप में उल्लिखित किया है। चाँदी के छोटे सिक्के ‘तार’ कहलाते थेसोने के छोटे सिक्के को 'प्रताप' तथा 'फणम' कहा जाता था। विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक हरिहर प्रथम के स्वर्ण सिक्कों (वराह) पर हनुमान एवं गरुड़ की आकृतियाँ अंकित है। तुलुव वंश के सिक्कों पर गरुड़, उमा, महेश्वर, वेंकटेश और कृष्ण की आकृतियाँ एवं सदाशिव राय के सिक्कों पर लक्ष्मी, नारायण की आकृति अंकित है। अरविडु वंश के शासक वैष्णव धर्मानुयायी थे, अतः उनके सिक्कों पर वेंकटेश, शंख एवं चक्र अंकित हैं।

 

सैन्य व्यवस्था

  • विजयनगर की सेना में पैदल, अश्वारोही, हाथी तथा ऊँट शामिल थे। सैन्य विभाग को ‘कन्दाचार’ कहा जाता था। इस विभाग का उच्च अधिकारी ‘दण्डनायक’ या ‘सेनापति’ होता था।

 

न्याय व्यवस्था

  • राज्य का प्रधान न्यायधीश राजा होता था। भयंकर अपराध के लिए शरीर के अंग विच्छेदन का दंड दिया जाता था। प्रान्तों में प्रान्तपति तथा गाँवों में 'आयंगार' न्याय करता था। न्याय व्यवस्था हिन्दू धर्म पर आधारित थी। पुलिस विभाग का ख़र्च वेश्याओं पर लगाये गये कर से चलता था।

 

सामाजिक दशा

विजयनगर साम्राज्य में समाज चार वर्गों में विभाजित था, जो इस प्रकार थे -

  • विप्रुल
  • राजलु
  • मोतिकिरतलु और
  • नलवजटिव

       इनका संबंध क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र से था। समाज में ब्राह्मणों को चारों वर्णों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। क्षत्रियों के बारे में विजयनगर कालीन समाज में कोई जानकारी नहीं मिलती। ब्राह्मणों को अपराध के लिए कोई सज़ा नहीं मिलता थी। मध्यवर्गीय लोगों में शेट्टियों एवं चेट्टियों का महत्त्वपूर्ण स्थान था। अधिकांश व्यापार इन्हीं के द्वारा किया जाता था। व्यापार के अतिरिक्त ये लोग लिपिक एवं लेखाकार्यों में भी निपुण थे। चेट्टियों की तरह व्यापार में निपुण दस्तकार वर्ग के लोगों को ‘वीर पांचाल’ कहा जाता था। उत्तर भारत से दक्षिण भारत में आकर बसे लोगों को ‘बडवा’ कहा गया। निम्न व छोटे समूह के अन्तर्गत लोहार, बढ़ई, मूर्तिकार, स्वर्णकार व अन्य धातुकर्मी तथा जुलाहे आते थे। जुलाहे मंदिर क्षेत्र में रहते थे और साथ ही मंदिर प्रशासन व स्थानीय घरों के आरोपण में उनका सहयोग होता था।

 

 

धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्थिति

  • विजयनगर कालीन शासकों ने हिन्दू धर्म तथा संस्कृति को प्रोत्साहित किया। यह दक्षिण भारत का एक मात्र हिन्दू राज्य था, जिसने हिन्दू धर्म की संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये रखा। विजयनगर के शासकों ने स्थापत्यकला, नाट्यकला, प्रतिभाकला एवं भाषा और साहित्य के क्षेत्र में भी विशेष रुचि दिखाई।

 

महिलाओं की स्थिति

  • तुलनात्मक रूप से महिलाओं की स्थिति अच्छी मानी जाति है |

महिलाएं निम्नलिखित भूमिका निभाती थी –

  • राजाओं के कार्यों को लिखना
  • आय व्यय की गणना
  • मल्ला युद्ध में भाग लेना
  • ज्योतिष
  • न्यायाधीश
  • नृत्य व् गायन
  • समाज में पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था |
  • सती प्रथा को पवित्र माना गया |
  • सती होने वाली स्त्रियों की स्मृति में प्रस्तर स्मारक बनाये जाते थे |

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