शिवाजी
- शिवाजी के पिता का नाम शाहजी भोंसले था। वे पहले अहमदनगर की सेवा में थे। किंतु, शाहजहां द्वारा 1633 ई . में अहमदनगर की विजय के पश्चात् बीजापुर की सेवा में चले गये और उन्होंने अपने अधीन आने वाली पूना की जागीर शिवाजी को सौंप दी।
- शिवाजी की माता का नाम जीजाबाई था तथा उनके संरक्षक दादोजी कोंडदेव थे।
- शिवाजी के आध्यात्मिक गुरू रामदास थे। उनके विचारों के चलते शिवाजी के व्यक्तित्व को व्यापक दृष्टिकोण प्राप्त हुआ।
- दादोजी कोंडदेव की मृत्यु के बाद शिवाजी ने पूना की जागीर का कार्यभार स्वयं संभाला।
- 1646 ई . में शिवाजी ने पूना के पास स्थित तोरण के किले और 1648 ई . में पुरंदर के किले को जीता।
- 1656 ई . मठारा सरदार चंद्रराव मोर से जावली का किला जीता।
- इस समय मुगलों का बीजापुर से संघर्ष चल रहा था। अतः शिवाजी ने मुगलों के साथ मैत्री करने का प्रयास किया, किंतु औरंगजेब ने इसमें रूचि नहीं दिखाई। बीजापुर से संधि करने के पश्चात औरंगजेब ने बीजापुर को शिवाजी के अधीन आने वाले क्षेत्रों को वापस लेने की सलाह दी।
- बीजापुर शासक ने अपने सेनापति अफजल खां को शिवाजी को कैद करने या मार डालने के लिए भेजा। किंतु, शिवाजी ने चतुराई से उसकी हत्या कर दी और बीजापुर के कई अन्य क्षेत्रों को भी जीत लिया जैसे-‘पन्हाला का किला’, ‘कोल्हापुर’ और ‘उत्तरी कोंकण’।
- इसके पश्चात् औरंगजेब ने शिवाजी के अधीन आने वाले उन क्षेत्रों को वापस लेने का निश्चय किया जो अहमदनगर की संधि के तहत बीजापुर को दे दिये गए थे। इसके लिए मुगल गवर्नर शाइस्ता खां को भेजा गया। प्रारंभिक रूप से शाइस्ता खां ने पूना, कल्याण और चाकन इत्यादि के किले पर अधिकार कर लिया तथा शिवाजी को वहां से हटने के लिए विवश किया।
- शिवाजी ने शाइस्ता खां के शिविर पर छापामार हमला किया तथा शाइस्ता खां को घायल कर दिया।
- इसके पश्चात् औरंगजेब ने शाइस्ता खां को वापस बुला लिया और आमेर के जयसिंह को शिवाजी से निपटने का दायित्व सौंपा। शाइस्ता खां को बंगाल का गवर्नर बनाकर भेज दिया गया।
- जयसिंह ने शिवाजी से निपटने के लिए एक नई नीति तैयार की, जिसके तहत शिवाजी को चारों तरह से घेरा जाना था। इसके लिए जयसिंह ने बीजापुर के साथ समझौता करने का प्रयास किया तथा बीजापुर ने अपनी सेना की एक टुकड़ी को जयसिंह की तरफ से भेजा। 1665 में शिवाजी को पुरंदर में घेर लिया गया। विवश होकर शिवाजी को 1665 में पुरंदर की संधि करनी पड़ी।
पुरन्दर की संधि (जून 1665 ई.) के अनुसार-
- शिवाजी को चार लाख हूण वार्षिक आय वाले तेईस किले मुगलों को सौंपने पड़े, उसके पास सिर्फ बारह किले थे।
- मुगलों ने शिवाजी के पुत्र शम्भा जी को पंचहजारी एवं उचित जागीर देना स्वीकार किया।
- शिवाजी ने बीजापुर के विरूद्ध मुगलों को सैनिक सहायता देने का वायदा किया।
- स्वाभिमानी शिवाजी मार्च, 1666 ई . में मुगल दरबार में उपस्थित हुए, तो वहां उनके साथ औरंगजेब ने तृतीय श्रेणी के मनसबदारों-जैसा व्यवहार किया और उन्हें नजरबंद कर लिया। 1666 में वे औरंगजेब की कैद से फरार हो गए। इसके बाद शिवाजी ने पुनः मुगलों के किले जीतने का फैसला किया। 1670 में उन्होंने पुनः सूरत को लूटा।
- 1667 ई . में विवश होकर औरंगजेब ने शिवाजी को ‘राजा’ की उपाधि प्रदान कर दी। इसके बाद 1669 तक मराठों तथा मुगलों के बीच शांतिपूर्ण संबंध बने रहे। इस बीच शिवाजी ने अपनी शासन-व्यवस्था को संगठित किया।
- 14 जून 1674 ई . को शिवाजी ने काशी के प्रसिद्ध विद्वान गंगाभट्ट से अपना राज्याभिषेक रायगढ़ में करवाया तथा ‘छत्रपति’ की उपाधि धारण की।
- शिवाजी का अंतिम महत्वपूर्ण अभियान 1677 ई . में कर्नाटक अभियान था। इस अभियान का मुख्य उद्देश्य बीजापुर के आदिलशाही राज्य पर अधिकार करना था। इसके लिए उन्होंने गोलकुण्डा के दो ब्राम्हण मंत्रियों मदन्ना एवं अखन्ना के माध्यम से गोलकुण्डा के सुल्तान के साथ एक गुप्त संधि की।
- शिवाजी का संघर्ष जंजीरा टापू के अधिपति अबीसीनयाई सीदियो से भी हुआ। सीदियों पर अधिकार करने के लिए उसने नौ सेना का भी निर्माण किया था। परन्तु वह पुर्तगालियों से गोआ तथा सीदियों से चौल और जंजीरा को न छीन सके।
- सीदी पहले अहमदनगर के आधिपत्य को मानते थे परन्तु 1636 के पश्चात वे बीजापुर की अधीनता में आ गये।
- अंतिम समय में शिवाजी ने एक बार फिर बीजापुर को मुगलों के विरूद्ध सहायता दी। 12 अप्रैल, 1680 में उसकी मृत्यु हो गई।
शिवाजी कालीन प्रशासनिक व्यवस्था
केन्द्रीय शासन
- केन्द्रीय शासन के अन्तर्गत छत्रपति की स्थिति सर्वोच्च थी। उसमें समस्त कार्यपालिका, विधायी एवं न्यायिक शक्तियां निहित थी। शिवाजी के केन्द्रीय प्रशासन में ‘अष्टप्रधान’ का स्वरूप देखने को मिलता है।
- ‘अष्टप्रधान’ आठ मंत्रियों का समूह था, जो शासन से जुड़े हुए अलग-अलग कार्यों को देखते थे, किंतु इनकी स्थिति आज के मंत्रिमंडल से भिन्न थी तथा ये सभी मंत्री केवल व्यक्तिगत रूप से शिवाजी के प्रति उत्तरदायी थे तथा उनकी भूमिका सलाहकारी थी। इनका क्रम निम्न है-
- पेशवा/प्रधानमंत्री - सामान्य प्रशासन के संबंधित सभी सैनिक एवं असैनिक कार्य देखता था। इसकी विशेष भूमिका अर्थव्यवस्था से संबंधित थी।
- सर-ए-नौबत विभाग का प्रमुख- ये सैनिकों की भर्ती, उन्हें वेतन का बंटवारा, जागीरों का इंतजाम, सैन्य सामग्री की व्यवस्था इत्यादि कार्य देखता था।
- अमात्य/मजमुआदार - राज्य की आय-व्यय का लेखा-जोखा रखना।
- सचिव/शुरू-नवीस - इसे चिटनिस भी कहा जाता था और यह राजकीय पत्राचार का कार्य देखता था।
- सुमंत/दबीर - विदेशी मामलों की देख-रेख।
- वाकियानवीस/मंत्री - राजा के दैनिक कार्यों को लेखबद्ध करना।
- पंडित राव - धार्मिक मामलों के प्रमुख।
- न्यायाधीश-न्याय से संबंधित।
- गौरतलब है कि पंडित राव एवं न्यायाधीश के अतिरिक्त सभी को सैन्य-सेवा देनी होती थी।
प्रान्तीय प्रशासन
- शिवाजी ने अपने साम्राज्य को 3 भागों में बांटा था-
- उत्तरी प्रान्त-सूरत से पूना तक। इसके प्रमुख मोरोपंत पिंगले थे।
- दक्षिणी प्रान्त-इसमें समुद्रतटीय क्षेत्र एवं दक्षिणी कोंकण शामिल था। इसके प्रमुख अन्नाजी दत्तो थे।
- दक्षिणी-पूर्वी प्रान्त-इसमें सतारा, कोल्हापुर, दलनौन इत्यादि आते थे। इसके प्रमुख दत्ताजी पंत थे।
- शिवाजी के क्षेत्र को ‘स्वराज’ कहा जाता था।
प्रान्त का प्रशासनिक विभाजन
- महाल - राज्य
- परगना - प्रान्त
- तरफ - जिला (गोलकुंडा और बीजापुर में)
- मौजा - गांवों का समूह
- ग्रामीण स्तर पर पटेल, कुलकर्णी के अतिरिक्त 12 अलूटे (सेवक),
- 12 बलूटे (शिल्पी) होते थे।
सैन्य व्यवस्था
- शिवाजी ने जिन परिस्थितियों में मराठा साम्राज्य की स्थापना की थी, उन परिस्थितियों में साम्राज्य की स्थिरता एवं सुदृढ़ता के लिए विस्तृत स्थायी सेना का गठन अनिवार्य आवश्यकता थी।
- शिवाजी ने इस आवश्यकता को प्राथमिकता प्रदान करते हुए नियमित एवं स्थायी सेना के गठन पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। इस कार्य के लिए सेना के नियमित एवं नकद वेतन की व्यवस्था की गई और वेतन के अतिरिक्त सैनिकों के लिए अनेक प्रकार के पुरस्कारों की भी व्यवस्था की गई।
- शिवाजी ने कठोर अनुशासन एवं नियंत्रण के साथ सेना का नियमन किया। राजा ही सर्वोच्च सेनापति होता था। सैनिकों को वेतन लूटे हुए माल से दिया जाता था, किन्तु कुछ प्रमुख सरदारों को कर-अनुदान (सरंजाम) भी दिया जाता था।
- अभियानों के समय मराठा सैनिकों के लिए धार्मिक स्थलों, आम नागरिकों, स्त्रियों एवं बच्चों आदि के साथ किसी भी प्रकार के आक्रमण का निषेध था।
- पैदल सैनिक, तोपखाने, अश्वारोही आदि शिवाजी की सेना के अंग थे । उसकी नियमित सेना पागा कहलाती थी, जिसका संगठन उन्होंने बड़े ही सुनियोजित तरीके से किया था। सेना की सबसे छोटी टुकड़ी 9 सैनिकों की होती थी। सैन्य अधिकारियों में नायक सबसे छोटा होता था। उसके बाद क्रमशः हवलदार (5 नायकों के ऊपर होता था), जुमलादार (2 या 3 हवलदारों के ऊपर होता था), हजारी (10 जुमलेदारों के ऊपर होता था) और सरे-नौबत (7 हजारियों के ऊपर होता था) उच्च पदाधिकारी थे।
- शिवाजी की अश्वारोही सेना दो भागों में विभक्त थी-‘बर्गी’ और ‘सिलहदार’। बर्गी स्थायी सैनिक थे और उन्हें शस्त्रास्त्र तथा वेतन राज्य की ओर से मिलते थे। सिलहदार अस्थायी सैनिक थे, जो शस्त्रास्त्र एवं अश्व का प्रबंध स्वयं करते थे, पर वेतन इन्हें भी राज्य की ओर से ही मिलता था। अश्वारोही सेना की सबसे छोटी टुकड़ी 25 अश्वारोहियों की होती थी। इस सेना के अधिकारी आरोही क्रम में इस प्रकार थे-हवलदार, जुमलादार (5 हवलदारों के ऊपर होता थ), हजारी (10 जुमलादारो के ऊपर होता था) और सरेनौबत (5 हजारियों के ऊपर होता था)।
- दुर्ग की रक्षा का भार तीन अधिकारियों-हवलदार, सबनिस और जुमलादार पर होता था।
आर्थिक व्यवस्था
- मराठा साम्राज्य में अर्थव्यवस्था के विकास के लिए कोई स्थायी कार्य नहीं किया गया था, परन्तु शिवाजी का आर्थिक प्रबंध बहुत प्रशंसनीय था।
- इस समय राज्य और किसानों के बीच प्रत्यक्ष संबंध स्थापित किया गया, अर्थात् मध्यस्थों की भूमिका समाप्त हो गई।
- राजस्व के रूप में भूमि की उपज का एक तिहाई भाग (1/3) वसूल किया जाता था। भूमि का विस्तृत सर्वेक्षण किया जाता था और उर्वरता के अनुरूप उसका चार श्रेणियों में वर्गीकरण किया जाता था।
- विदेशी अथवा मुगल नियंत्रण में जो भूमि होती थी, उस पर दो प्रकार के कर लिए जाते थे-सरदेशमुखी और चौथ | ‘सरदेशमुखी’ मालगुजारी के दसवें (1/10) भाग के बराबर होता था, जबकि ‘चौथ ’ मालगुजारी के एक चैथाई (1/4) भाग के बराबर होता था, चौथ के रूप में राजस्व देने वालों को कभी भी लूटा नहीं जाता था।
- भूमि की माप के लिए काठी का उपयोग होता था।
- आरंभ में भू-राजस्व एक तिहाई था, जो बाद में आधा कर दिया गया।
- राजस्व, नकद व फसल दोनों रूप में वसूल किए जाते थे।
- अन्नाजी दत्तों ने 1679 ई . में मराठा साम्राज्य की भूमि का नवीन सर्वेक्षण करवाया। शिवाजी के समय देशमुखी प्रथा को समाप्त नहीं किया गया, किन्तु मिरासदारो (वंशानुगत स्वामित्व वाले जमींदार) पर नजर अवश्य रखी जाती थी। इस समय राजस्व की वसूली कठोरतापूर्वक की जाती थी, किन्तु किसानों के साथ कभी भी जबर्दस्ती नहीं की जाती थी।
- साम्राज्य के बाहर के लोग मराठों को लूटेरा मानते थे और वस्तुतः मराठों की आय का यह प्रमुख स्रोत भी था।