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राज्यनियंत्रित औद्योगीकरण 

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय , भारत के औद्योगिक क्षेत्र में आधारभूत संरचना का अभाव , तकनीकी विकास की निम्न स्थिति , विदेशी पूंजी पर निर्भरता , घरेलू बाजार की अनुपस्थिति , पूंजीगत उद्योगों का अभाव तथा पूंजी निर्माण की कमी जैसी विशेषताएं विद्यमान थीं । इस परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय नेतृत्व तथा उद्यमियों द्वारा औद्योगीकरण के विकास व विस्तार के लिए आधारभूत संरचना ,घरेलू मांग तथा विशेष योग्य संसाधनों की उपलब्धता को अनिवार्य शर्तों के रूप में स्वीकार किया गया और इन शर्तों को राजकीय सहयोग के बिना पूरा करना असंभव समझा गया ।

1938 की ' राष्ट्रीय योजना समिति ' तथा 1944 की बंबई योजना  द्वारा प्रस्तुत प्रस्तावों में औद्योगीकरण की प्रक्रिया को गतिशील बनाने के लिए नियोजन प्रणाली तथा राज्य नियंत्रण की आवश्यकता को स्वीकार किया गया था । लोकतांत्रिक समाजवाद के उद्देश्यों को औद्योगीकरण के माध्यम से प्राप्त करने के लिए भी उद्योगों पर सरकारी स्वामित्व कायम रखना आवश्यक था । निजी क्षेत्र के अधिकाधिक लाभार्जन करने के दृष्टिकोण के कारण , उससे सामाजिक कल्याण से संबंधित प्राथमिकताओं की अपेक्षा नहीं की जा सकती थी । धन संकेंद्रण तथा एकाधिकारी पूंजीपति नियंत्रण को कम करने के लिए भी सरकारी अंकुश रखना उचित समझा गया । औद्योगीकरण पर राज्य नियंत्रण के स्वरूप को सरकार की आरंभिक औद्योगिक नीतियों में देखा जा सकता है । 

1948 की औद्योगिक नीति 

  • इस नीति में मिश्रित अर्थव्यवस्था के अंतर्गत आगामी वर्षों में राज्य द्वारा अपने नियंत्रणाधीन नवीन उत्पादक इकाइयों की स्थापना की घोषणा की गई । निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्र को संयुक्त रूप से कार्य करना था । निजी क्षेत्र को देश की सामान्य औद्योगिक नीति के अंतर्गत अपनी गतिविधियां संचालित करनी थीं । ऊर्जा , शस्त्रास्त्र , रेलवे , मुद्रा उत्पादन आदि क्षेत्रों में राज्य के अधीन सार्वजनिक क्षेत्र की परिकल्पना की गई । विमान एवं पोत निर्माण , लोहा , कोयला खनिज तेल तथा संचार क्षेत्र में राज्य द्वारा आधारभूत उद्योगों की स्थापना करने का निश्चय किया गया । सार्वजनिक क्षेत्र को सामाजिक परिवर्तन के साधन के रूप में मान्यता दी गयी । इस नीति में लघु एवं कुटीर उद्योगों को राज्य द्वारा प्रोत्साहन देने का प्रस्ताव था ।
  • इन उद्योगों हेतु विशिष्ट वस्तुओं के उत्पादन को आरक्षित किया गया । पिछड़े क्षेत्रों में उद्योगों की स्थापना द्वारा क्षेत्रीय असंतुलन दूर करना भी राज्य का दायित्व माना गया । इस प्रकार 1948 की औद्योगिक नीति द्वारा संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों को लागू करने का प्रयास किया गया ।

 

1956 की औद्योगिक नीति 

इस नीति के प्रस्ताव में उद्योगों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया -

  • पहले वर्ग में शस्त्रास्त्र उत्पादन , परमाणु ऊर्जा , भारी उपकरण , लौह इस्पात , कोयला , खनिज तेल , घातु उद्योग , भारी विद्युत उपकरण , अन्य महत्वपूर्ण खनिज , वायु परिवहन , रेलवे , वैमानिकी , टेलीफोन , विद्युत उत्पादन व वितरण तथा तार एवं रेडियो उपकरण जैसे 17 उद्योगों को रखा गया ।ये राज्य के पूर्ण नियंत्रण में थे ।
  • दूसरे वर्ग में अन्य अलीह धातु वे एल्यूमिनियम , अन्य खनिज उद्योग , लौह मिश्रधातु एवं औजारी इस्पात , प्रतिजैविक व अन्य औषधि , रसायन उद्योग , उर्वरक , संश्लिष्ट रबर , सड़क परिवहन व समुद्री परिवहन , कोयले का कार्बनीकरण तथा रासायनिक अपशिष्ट जैसे 12 उद्योगों को शामिल किया गया । इन उद्योगों में राज्य का नियंत्रण बढ़ता जाना था तथा राज्य इनमें नवीन उद्यमों की स्थापना करेगा । निजी क्षेत्र से इन उद्योगों के संचालन में राज्य की सहायता करने की अपेक्षा की गई ।
  • शेष सभी उद्योग निजी क्षेत्र के हाथों में सौंप दिये गये । किंतु इस वर्ग के उद्योगों को भी सामाजिक उद्देश्यों एवं नियंत्रक विधानों के अधीन कार्य करना था । इस औद्योगिक नीति में स्पष्ट किया गया कि निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र आपस में पृथक या विरोधी नहीं , बल्कि परस्पर पूरक हैं । निजी क्षेत्र की आशंका का समाधान करने के लिए राज्य द्वारा पूंजी समर्थन , राजकोषीय उपायों तथा संचार व ऊर्जा सुविधाओं के माध्यम से निजी क्षेत्र के विकास को पर्याप्त समर्थन दिया गया । नीति में राज्य के , सरकारी व निजी दोनों इकाइयों के प्रति न्यायपूर्ण एवं भेदभाव रहित व्यवहार को सुनिश्चित किया गया । इसमें लघु व कुटीर उद्योगों के प्रोत्साहन , प्रादेशिक असमानता की समाप्ति तथा श्रमिक सुविधाओं के विस्तार की सिफारिशें भी की गई , जिन्हें पूरा करना राज्य के नियंत्रण के बगैर असंभव था ।

 

पंचवर्षीय योजनाओं के अधीन औद्योगीकरण 

  • प्रथम योजना में प्रत्यक्ष औद्योगीकरण प्रयासों के स्थान पर आधारभूत सरंचना एवं कृषि तथा सिंचाई के विकास पर जोर दिया गया , ताकि आगामी समय में किये जाने वाले तीव्र औद्योगीकरण हेतु सुगम पृष्ठभूमि निर्मित की जा सके ।
  • विभिन्न उद्योगों की विकास दर प्रथम योजना काल में संतोषजनक रही । इसी काल में सिंदरी उर्वरक कारखाना , चितरंजन का रेल इंजन निर्माण कारखाना , इंटीग्रलकोच फैक्ट्री , पेनिसिलीन फैक्ट्री ,  भारतीय टेलीफोन उद्योग आदि की स्थापना की गई ।
  •  द्वितीय योजनाकाल में निर्धारित औद्योगीकरण का लक्ष्य , 1956 की औद्योगिक नीति से प्रेरित था । योजना के कुल विनियोग का 27 प्रतिशत अंश उद्योग क्षेत्र के लिए निश्चित किया गया । राज्य द्वारा राउरकेला , भिलाई तथा दुर्गापुर स्थित इस्पात कारखानों के अतिरिक्त विभिन्न उद्योग क्षेत्रों में अनेक उत्पादक इकाइयां स्थापित की गई । इस काल में छोटे उद्यमकर्ता समूह का तेजी से विस्तार हुआ , जिससे पूंजी एकाधिकार की प्रवृत्तियों में आंशिक रूप से कमी आयी ।
  • तृतीय योजनाकाल में औद्योगिक क्षेत्र के विस्तार के साथ - साथ मशीन निर्माण उत्पादन , तकनीकी कौशल एवं प्रबंधकीय दक्षता में सुधार लाने पर बल दिया गया । योजनाकाल के दौरान सार्वजनिक क्षेत्र को केंद्रीय स्थान प्रदान किया गया । योजनाकाल के दौरान ओटोमोबाइल , डीजल इंजन , बिजली ट्रांसफार्मर , मशीनी उपकरण आदि क्षेत्रों में काफी प्रगति हुई ।

 

उद्योग ( विकास एवं विनियमन ) अधिनियम 1951  

  • इस अधिनियम के माध्यम से सरकार को - मध्यम एवं बड़े औद्योगिक उपक्रमों की स्थापना के लिए लाइसेंस जारी करने काअधिकार प्रदान किया गया। सरकार को उत्पादन की मात्रा ,आयात - निर्यात कोटा , मजदूरी , मूल्य एवं वेतन के निर्धारण की शक्ति भी प्राप्त हुई ।
  • सरकार के इन अधिकारों को उद्योगों के विकेंद्रीकरण तथा उपभोक्ता व श्रमिकों के हित संरक्षण की दृष्टि से औचित्यपूर्ण सिद्ध किया गया । सरकार द्वारा विदेशी व्यापार घरानों तथा बहुराष्ट्रीय निगमों की गतिविधियों को भी विभिन्न कानूनों के माध्यम से नियंत्रित करने का प्रयास किया गया ।
  • इस प्रकार ,स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के डेढ़ दशक में लोकतांत्रिक समाजवाद के आदर्शों के अनुरूप मिश्रित अर्थव्यवस्था के अंतर्गत औद्योगीकरण की जो प्रक्रिया आरंभ की गयी , उसमें राज्य के नियंत्रण को अनिवार्य तत्व माना गया । तत्कालीन नवीन अर्थव्यवस्था में आधारभूत क्षेत्रों को मात्र निजी एवं बाजारवादी आर्थिक शक्तियों के सहारे विकसित करना असंभव था और स्वयं निजी क्षेत्र भी इतना सामर्थ्यवान नहीं हो पाया था , जो सामाजिक एवं आर्थिक पुनर्संरचना हेतु अपेक्षित संसाधनों को जुटा सकने में समर्थ हो पाता ।
  • राज्य नियंत्रण के माध्यम से ही कृषि , ऊर्जा , परिवहन तथा संचार क्षेत्र में संसाधनों का निवेश सुनिश्चित किया जा सकता था ।इन आधारभूत सुविधाओं के विकास के बिना घरेलू बाजार का निर्माण तथा सामाजिक परिवर्तन का होना संभव नहीं था । इन सब कारणों से राज्य को औद्योगीकरण प्रक्रिया के नियंत्रण की बागडोर सौंपी गयी और कतिपय असफलताओं के बावजूद राज्य द्वारा अपनी भूमिका को कुशलतापूर्वक निभाया गया ।

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