• Have Any Questions
  • +91 6307281212
  • smartwayeducation.in@gmail.com

Study Material



देशी रियासतें एवं उनका एकीकरण

  • स्वतंत्रता के बाद सबसे पहला और ज़रूरी काम भारत की एकता को मजबूत करना था |
  • आजादी के समय भारतीय रियासतों की संख्या 562 थी तथा इनके अंतर्गत 7,12,508 वर्ग मील का क्षेत्र था ।
  • इन भारतीय रियासतों में से कुछ रियासतें तो अत्यंत छोटी थीं , जैसे - बिलबारी , जिसकी जनसंख्या केवल 27 थी तथा वार्षिक आय मात्र 8 रु जबकि कुछ रियासतें अत्यंत बड़ी थीं , जैसे - हैदराबाद ( लगभग इटली के बराबर ) जिसकी जनसंख्या 1 करोड़ 40 लाख थी तथा आय 8 .5 करोड़ रुपये वार्षिक । ये रियासतें भारतीय प्रायद्वीप के अल्प उर्वर एवं दुर्गम प्रदेशों में स्थित थीं ।
  • ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने विजय अभियान में महत्वपूर्ण तटीय क्षेत्रों , बड़ी - बड़ी नदी घाटियों - जो कि नौ - परिवहन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण थीं , अत्यधिक उर्वर प्रदेश , जहां धनाढ्य लोग निवास करते थे तथा दूर - दराज के दुर्गम प्रदेश , जिनकी भौगोलिक संरचना अत्यधिक जटिल थी तथा उर्वरता की दृष्टि से ये प्रदेश निर्धन थे , इन सभी को अपने अधीन कर लिया ।
  • जिन कारकों ने ईस्ट इंडिया कंपनी को सुदृढ़ बनाया , प्रायः वही कारक इन रियासतों के अस्तित्व में आने के लिये उत्तरदायी थे । इनमें से बहुत सी रियासतें स्वायत्त एवं अर्द्ध - स्वायत्त रूप में अपने अस्तित्व को बनाये हुए थीं तथा संबंधित भू - क्षेत्रों में शासन कर रही थीं ।
  • कंपनी ने इस रियासतों के आपसी संघर्ष तथा आंतरिक दुर्बलता से लाभ उठाकर इन्हें अपने नियंत्रण में ले लिया ।
  • यद्यपि कंपनी ने अलग - अलग रियासतों के प्रति अलग - अलग नीतियां अपनायीं । कुछ को उसने प्रत्यक्ष रूप से अधिग्रहित कर लिया तथा कुछ पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण बनाये रखा ।

इन भारतीय रियासतों के साथ ईस्ट इंडिया कंपनी के संबंधों को निम्न अवस्थाओं में विश्लेषित किया जा सकता है-

ईस्ट इंडिया कम्पनी का भारतीय रियासतों से समानता प्राप्त करने के लिये संघर्ष ( 1740 - 1765 )

  • यह संघर्ष आंग्ल - फ्रांसीसी प्रतिद्वंदिता के रूप में तब प्रारंभ हुआ , जब डूप्ले ने भारतीय रियासतों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने की नीति अपनायी ।
  • अपने व्यापारिक हितों की रक्षा के लिये अंग्रेजों ने भी डूप्ले की नीति का अनुसरण किया तथा अपनी राजनीतिक सत्ता को सिद्ध करने के लिये अर्काट का घेरा           (1751) डाल दिया ।
  • प्लासी के युद्ध ( 1757 ) के पश्चात् उसने बंगाल के नवाबों को अपने हाथों की कठपुतली बना लिया ।
  • 1765 में मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय से बंगाल , बिहार एवं उड़ीसा की दीवानी का अधिकार प्राप्त होने पर कंपनी की स्थिति में अत्यधिक वृद्धि हुई । इस अधिकार से कंपनी की स्थिति , राजस्व वसूल करने वाले अन्य मुगल गवर्नरों के समान हो गयी तथा अब उसे अन्य भारतीय रियासतों के समान समानता का अधिकार प्राप्त हो गया ।

 

मध्य राज्य अथवा घेरे की नीति ( 1765 - 1813 )

  • कंपनी की इस नीति की झलक वारेन हेस्टिंग्स के मैसूर तथा मराठों के साथ युद्ध से मिली , जब उसने अपने राज्य के चारों ओर मध्य राज्य ( Buffer states ) बनाने का प्रयत्न किया ।
  • कंपनी को इस समय मुख्य भय मराठों एवं अफगान आक्रांताओं के आक्रमण से था इसीलिये कंपनी ने बंगाल की रक्षा के निमित्त अवध की रक्षा व्यवस्था का दायित्व संभाल लिया ।
  • वेलेजली की सहायक संधि की नीति घेरे की नीति का ही विस्तार था , जिसका उद्देश्य भारतीय रियासतों को अपनी रक्षा के लिये कम्पनी पर निर्भर करने के लिये बाध्य करना था ।
  • हैदराबाद ,अवध एवं मैसूर जैसी विशाल रियासतों ने वेलेजली की सहायक संधि को स्वीकार किया , जिससे अंग्रेजी प्रभुसत्ता की स्थापना की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति हुई ।

     

अधीनस्थ पार्थक्य की नीति ( 1813 - 1857 )

  • वारेन हेस्टिंग्स की नीतियों के फलस्वरूप अंग्रेजों की साम्राज्यवादी भावनायें जाग उठीं तथा सर्वश्रेष्ठता का सिद्धांत विकसित होना प्रारंभ हो गया ।

  • अब अंग्रेजों द्वारा भारतीय रियासतों से संबंधों का आधार अधीनस्थ सहयोग

  • तथा कंपनी की सर्वश्रेष्ठता को स्वीकार करने की नीति थी , न कि पारस्परिक समानता पर आधारित मैत्रीपूर्ण संबंध ।

  • इस नयी नीति के तहत रियासतों ने अपनी समस्त बाह्य संप्रभुता कम्पनी के अधीन कर दी । हालांकि अपने आंतरिक मामलों में वे पूर्ण स्वतंत्र थीं । प्रारंभ में ब्रिटिश रेजिमेंट कंपनी एवं भारतीय रियासतों के मध्य संपर्क सूत्र की भूमिका निभाता था किंतु धीरे-धीरे रियासतों के आंतरिक शासन में उसके प्रभाव में वृद्धि होने लगी । 

  • 1833 के चार्टर एक्ट से कंपनी की समस्त व्यापारी प्रक्रिया समाप्त हो गई तथा अब वह पूर्ण रूप से एक राजनीतिक शक्ति के रूप में कार्य करने लगी। रियासतों के प्रति कंपनी की लिस्ट में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ कि उत्तराधिकार के मसले पर अब से कंपनी के सिक्योरिटी प्राप्त करना आवश्यक था कालांतर में कंपनी ने उनके मंत्रियों तथा अधिकारियों की दृष्टि में भी हस्तक्षेप  करना प्रारंभ कर दिया |

  •  कंपनी के डायरेक्टर 1834 में रियासतों के विलय संबंधी एक विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किए, इसमें कहा गया कि ‘जब कभी और जहां कहीं संभव हो रियासतों का विलय कर लिया जाए  '

  • लॉर्ड डलहौजी के विलय के सिद्धांत के द्वारा लगभग आधा दर्जन रियासतें अंग्रेजी साम्राज्य में मिला ली गई जिनमें सतारा, नागपुर जैसी बड़ी रियासतें शामिल थी उन सभी का सम्मिश्रण ही कंपनी की सर्वश्रेष्ठता को प्रदर्शित करता था |

 

अधीनस्थ संघ की नीति 1857 से 1935

  • 1858 में भारत का शासन ब्रिटिश ताज द्वारा कंपनी के हाथों से अपने हाथों में ले लिया गया जिससे भारतीय रियासतों का सरकार के संबंधों की परिभाषा और अधिक स्पष्ट हो गई।
  • 1857 के विद्रोह में भारतीय रियासतों की कंपनी के प्रति राजभक्ति एवं निष्ठा तथा भविष्य में किसी राजनीतिक आंदोलन को रोकने में उसकी शक्ति के उपयोग की संभावना के मद्देनजर रियासतों के विलय की नीति त्याग दी गई।
  • अब शासक को कुशासन के आधार पर दंडित करने या आवश्यकता पड़ने पर उसे अभ्यस्त करने की नीति अपनाई गई उसके पश्चात नाम मात्र का मुगल शासन भी समाप्त हो गया । अब ताज ही भारत की सर्वोच्च एवं असंदिग्ध शक्ति के रूप में भारत में उपस्थित था । अतः सभी उत्तराधिकारियों को ताज की स्वीकृति लेना आवश्यक था ।
  • अब गद्दी पर शासक का पैतृक अधिकार नहीं रह गया था , अपितु अब यह सर्वश्रेष्ठ शक्ति से एक उपहार के रूप में शासकों को मिलती थी । क्योंकि भारतीय राजाओं और ताज के बीच बराबरी की भावना सदा के लिये समाप्त हो गयी थी ।
  • 1776 में महारानी विक्टोरिया कैसर - ए - हिन्द ( भारत की साम्राज्ञी ) की उपाधि धारण करने के बाद तो इस बात पर मुहर लग गयी कि अब भारतीय राज्यों की संप्रभुता समाप्त हो चुकी है तथा ताज ही भारत में सर्वश्रेष्ठ है । सर्वश्रेष्ठता अब न केवल एक ऐतिहासिक सत्य था , अपितु एक कानूनी सिद्धांत भी था । अब सरकार को रियासतों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का अधिकार भी मिल गया था , चाहे वह हस्तक्षेप महाराजा के हितों की रक्षा के लिये हो अथवा उसकी प्रजा के हित के लिये या अंग्रेजों के हितों के लिये हो अथवा भारत के हित के लिये हो ।
  • आधुनिक संचार व्यवस्था , रेलवे , सड़कें , टेलीग्राफ , नहरें , पोस्ट आफिस , प्रेस तथा भारतीय जनमत ने भी अंग्रेजों को भारतीय रियासतों के मामलों में हस्तक्षेप करने तथा उनके अधिकार को कम करने में सहायक परिस्थितियों की भूमिका निभायी । भारत सरकार इन रियासतों के बाहरी और विदेशी संबंधों में भी पूर्ण नियंत्रण रखती थी ।
  • सरकार इनकी ओर से स्वयं युद्ध की घोषणा कर सकती थी , तटस्थता कर सकती थी एवं शांति संधि का प्रस्ताव पारित कर सकती थी ।
  • इस संबंध में बटलर आयोग ने 1927 में कहा कि “ अंतरराष्ट्रीय मामलों में रियासतों के प्रदेश अंग्रेजी भारत के प्रदेश हैं और रियासतों के नागरिक अंग्रेजी नागरिकों के समान हैं । ' '

 

भारतीय रियासतों के प्रति कर्जन की नीति 

  • कर्जन ने विभिन्न संधियों को विस्तृत रूप से परिभाषित करके यह कहना प्रारंभ कर दिया कि भारतीय राजाओं को अपनी प्रजा के सेवक के रूप में गवर्नर - जनरल से सहयोग करते हुए सरकार की विभिन्न योजनाओं में भागीदारी निभानी चाहिये ।
  • उसने ‘ संरक्षण और अनाधिकार निरीक्षण की नीति ' अपनायी । उसका मत था कि भारतीय रियासतों एवं सरकार के मध्य संबंध न सामंतशाही और न ही संघीय व्यवस्था पर आधारित होने चाहिये । इनका आधार विभिन्न संघियां भी नहीं होना चाहिये , अपितु इन्हें विभिन्न ऐतिहासिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में एक निश्चित समय में एक सामान्य स्वरूप की ओर विकसित होना चाहिये ।
  • इस नवीन प्रवृत्ति के फलस्वरूप सभी रियासतों की स्थिति लगभग एक जैसी हो गयी , चाहे वे ' संधि रियासतें हों , या भिन्न - भिन्न अधिकार प्राप्त रियासतें । सभी रियासतें , अंग्रेजी सरकार पर निर्भर थीं तथा भारतीय राजनैतिक व्यवस्था का अभिन्न अंग समझी जाती थीं । 

 

1905 के पश्चात् 

  • सरकार ने भारतीय रियासतों के प्रति सौहार्दपूर्ण सहकारिता की नीति अपनायी ।
  • भारत में राजनीतिक अस्थिरता के भय से अब सरकार ने प्रतिरक्षात्मक नीति का अनुसरण किया ।  मोंटफोर्ड सुधारों की सिफारिशों के आधार पर एक सलाहकारी एवं परामर्शदात्री निकाय के रूप में  Chamber of Princes  का गठन किया गया ।
  • इसका किसी रियासत के आंतरिक मामलों से कोई संबंध नहीं था और न ही यह मंडल रियासतों के समकालीन अधिकारों एवं उनकी स्वतंत्रता के विषय में न कोई सुझाव दे सकता था , और न ही यह इन मुद्दों पर किसी प्रकार का कोई वाद - विवाद कर सकता था इस मंडल में प्रतिनिधित्व के लिये रियासतों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया- 

1 . सीधे प्रतिनिधित्व वाली रियासतें - 109

2 . सीमित वैधानिक एवं क्षेत्राधिकार वाली रियासतें , जिन्हें प्रतिनिधित्व चुनने का अधिकार था - 127

3 . सामंतशाही जागीरें या जागीरें - 309

  • किंतु संप्रभुता एवं सर्वश्रेष्ठता के विस्तार के मुद्दे की अभी भी व्याख्या नहीं की गयी थी । सरकार तथा रियासतों के संबंधों के परीक्षण तथा इन्हें परिभाषित करने के लिये भारत सरकार ने 1927 में ‘ बटलर समिति ' की नियुक्ति की ।

 

बटलर समिति रिपोर्ट 1929 ई. में सर हारकोर्ट बटलर द्वारा प्रस्तुत की गई थी। हारकोर्ट बटलर भारतमंत्री द्वारा गठित 'देशी रियासत समिति' (इंडियन स्टेट्स कमेटी) का 1927 ई. में अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। भारत की देशी रियासतों तथा सर्वोच्च (ब्रिटिश) सत्ता के सम्बन्धों की जाँच करना इस समीति का मुख्य विषय था।

  • भारत में सर्वोच्च (ब्रिटिश) सत्ता और देशी रियासतों के तत्कालीन सम्बन्धों की जाँच करने के उपरान्त समिति ने दोनों के वित्तीय एवं आर्थिक सम्बन्धों को व्यवस्थित करने के विषय में अपनी सिफ़ारिशें प्रस्तुत कीं।
  • इसकी आधारभूत सिफ़ारिश थी कि सर्वोच्च सत्ता और देशी राजाओं के बीच ऐतिहासिक सम्बन्धों को ध्यान में रखा जाये।
  • देशी राजाओं को उनकी सहमति के बिना भारतीय विधान मंडल के प्रति उत्तरदायी नयी सरकार से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए विवश न किया जाये।
  • रिपोर्ट में देशी राजाओं की ये आशंकाएँ प्रतिलक्षित थीं कि भारत में लोकप्रिय शासन प्रचलित होने से वे अपने अधिकारों से वंचित हो जायेंगे।
  • भारतीय लोकमत ने इस रिपोर्ट को एक प्रकार से प्रतिगामी माना।

 

समान संघ की नीति ( 1935 - 1947)

  • 1935 के भारत सरकार अधिनियम में , प्रस्तावित समस्त भारतीय संघ की संघीय विधानसभा में भारतीय नरेंद्रों को 375 में से 125 स्थान दिये गये तथा राज्य विधान परिषद के 260 स्थानों में से 104 स्थान उनके लिये सुरक्षित किये गये ।
  • योजना के अनुसार , यह संघ तब अस्तित्व में आना था , जब परिषद में आधे स्थानों वाली रियासतें तया कम से कम आधी जनसंख्या प्रस्तावित संघ में सम्मिलित होने की स्वीकृति दें । चूंकि पर्याप्त रियासतों ने इस संघ में सम्मिलित होना स्वीकार नहीं किया , इसलिये संघ अस्तित्व में नहीं आ सका तथा सितम्बर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ हो जाने के कारण इस योजना को सदैव के लिये समाप्त घोषित कर दिया गया ।

 

रियासतों का एकीकरण और विलय

  • द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ होने के पश्चात भारत में तीव्र राजनैतिक गतिविधियां प्रारंभ होने तथा कांग्रेस द्वारा असहयोग की नीति अपनाये जाने के कारण ब्रिटिश सरकार ने क्रिप्स मिशन ( 1942 ) , वेवेल योजना ( 1945 ) , कैबिनेट मिशन ( 1946 ) तदुपरांत एटली की घोषणा ( 1947 ) द्वारा गतिरोध को हल करने का प्रयत्न किया ।
  • क्रिप्स मिशन ने भारतीय रियासतों की सर्वश्रेष्ठता को भारत के किसी अन्य राजनीतिक दल को देने की संभावना से इंकार कर दिया । रियासतों ने पूर्ण संप्रभुता संपन्न एक अलग गुट बनाने या अन्य इकाई बनाने की विभिन्न संभावनाओं पर विचार - विमर्श किया - जो कि भारत के राजनीतिक परिदृश्य में एक तीसरी शक्ति के रूप में कार्य करे ।
  • 3 जून की माउंटबेटन योजना तथा एटली की घोषणाओं में रियासतों को यह अधिकार दिया गया कि वे भारत या पाकिस्तान किसी भी डोमिनियन सम्मिलित हो सकती हैं ।
  • लार्ड माउंटबेटन ने रियासतों को संप्रभुता का अधिकार देने या तीसरी शक्ति के रूप में मान्यता देने से स्पष्ट तौर पर इंकार कर दिया ।
  • राष्ट्रीय अस्थायी सरकार में रियासत विभाग के मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने , जिन्हें मंत्रालय के सचिव के रूप में वी . पी . मेनन की सेवायें प्राप्त थीं , भारतीय रियासतों से देशभक्तिपूर्ण अपील की कि वे अपनी रक्षा , विदेशी मामले तथा संचार अवस्था को भारत के अधीनस्थ बना कर भारत में सम्मिलित हो जायें । सरदार पटेल ने तर्क दिया कि चूंकि ये तीनों ही मामले पहले से ही ताज की सर्वश्रेष्ठता के अधीन थे तथा रियासतों का इन पर कोई नियंत्रण भी नहीं था , अतः रियासतों के भारत में सम्मिलित होने से उनकी संप्रभुता पर कोई आंच नहीं आयेगी ।
  • 15 अगस्त 1947 के अंत तक 136 क्षेत्राधिकार रियासतें भारत में सम्मिलित हो चुकी थीं । किंतु कुछ अन्य ने स्वयं को इस व्यवस्था से अलग रखा । 

 

जनमत संग्रह एवं सैन्य कार्यवाही

जूनागढ़ 

 यहां का मुस्लिम नवाब रियासत को पाकिस्तान में सम्मिलित करना चाहता था , किंतु हिंदू जनसंख्या भारत में सम्मिलित होने के पक्ष में थी । अंततः नवाब के दमनकारी रवैये के कारण यहां जनमत संग्रह कराया गया , जिसमें जनता ने भारी बहुमत से भारत में सम्मिलित होने के पक्ष में निर्णय दिया । |

 हैदराबाद

हैदराबाद का निजाम अपनी संप्रभुता को बनाये रखने के पक्ष में था । यद्यपि यहां की बहुसंख्य जनता भारत में विलय के पक्ष में थी । उसने हैदराबाद को भारत में सम्मिलित करने के पक्ष में तीव्र आंदोलन प्रारंभ कर दिया । निजाम आंदोलनकारियों के प्रति दमन की नीति पर उतर आया ।

29 नवंबर 1947 को निजाम ने भारत सरकार के साथ एक समझौते पर दस्तखत तो कर दिये किंतु इसके बावजूद उसकी दमनकारी नीतियां और तेज हो गयी । सितंबर 1948 तक यह स्पष्ट हो गया कि निजाम को समझा - बुझा कर राजी नहीं किया जा सकता ।

13 सितंबर1945 को भारतीय सेनाएं हैदराबाद में प्रवेश कर गयीं और 18 सितम्बर 1948 को निजाम ने आत्मसमर्पण कर दिया । अंततः नवंबर 1949 में हैदराबाद को भारत में सम्मिलित कर लिया गया ।

कश्मीर

जम्मू एवं कश्मीर राज्य का शासक हिन्दू एवं जनसंख्या मुस्लिम बहुसंख्यक थी । यहां का शासक भी कश्मीर की संप्रभुता को बनाये रखने के पक्ष में था तथा भारत या पाकिस्तान किसी भी डोमिनियन में सम्मिलित नहीं होना चाहता था । किंतु कुछ समय पश्चात ही नवस्थापित पाकिस्तान ने कबाइलियों को भेजकर कश्मीर पर आक्रमण कर दिया तथा कबाइली तेजी से श्रीनगर की ओर बढ़ने लगे । शीघ्र ही पाकिस्तान ने अपनी सेनायें भी कबाइली आक्रमणकारियों के समर्थन में कश्मीर भेज दी । अंत में विवश होकर कश्मीर के शासक ने 26 अक्टूबर 1947 को भारत के साथ विलय - पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये । तत्पश्चात कबाइलियों को खदेड़ने के लिये भारतीय सेना जम्मू - कश्मीर भेजी गयी।

भारत पाकिस्तान समर्थित आक्रमण की शिकायत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में दर्ज करायी तथा उसने जनमत संग्रह द्वारा समस्या के समाधान की सिफारिश की । इसके साथ ही भारत ने 84 हजार वर्ग किलोमीटर का भू - क्षेत्र पाकिस्तान के अधिकार में ही छोड़ दिया । भारतीय संविधान के निर्माण के पश्चात जम्मू एवं कश्मीर राज्य को अनुच्छेद 370 के द्वारा विशेष राज्य का दर्जा प्रदान किया गया ।

 

क्रमिक एकीकरण

 इन तीनों प्रमुख रियासतों के भी भारत में सम्मिलित हो जाने के पश्चात अब प्रमुख दिक्कतें थीं -

  • इन सभी रियासतों का एक आधुनिक इकाई के रूप में किस प्रकार गठन किया जाये तथा 
  • इन्हें एक ही संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत किस प्रकार लाया जाये ।

इस समस्या का समाधान निम्न प्रकार से किया गया-

  • बहुत सी छोटी - छोटी रियासतें ( 216 ) , जो अलग इकाई के रूप में नहीं रह सकती थीं , संलग्न प्रांतों में विलय कर दी गयीं । इन्हें श्रेणी - ए में सूचीबद्ध किया गया उदाहरणार्थ - छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की 39 रियासतें बंबई प्रांत में सम्मिलित कर दी गयीं ।
  • कुछ रियासतों का विलय एक इकाई में इस प्रकार किया गया कि वो केंद्र द्वारा प्रशासित की जायें । इन्हें श्रेणी - सी में सूचीबद्ध किया गया । इसमें 61 रियासतें सम्मिलित थीं ।
  • इस श्रेणी में हिमाचल प्रदेश , विन्ध्य प्रदेश , भोपाल , बिलासपुर , मणिपुर , त्रिपुरा एवं कच्छ की रियासतें थीं ।
  •  एक अन्य प्रकार का विलय राज्य संघों का गठन करना था । ये रियासतें थीं - काठियावाड़ की संयुक्त रियासतें , मत्स्य प्रदेश की संयुक्त रियासतें , पटियाला और पूर्वी पंजाब रियासती संघ , विन्ध्य प्रदेश और मध्य भारत के संघ तथा राजस्थान , ट्रावनकोर और कोचीन की रियासतें । प्रारंभ में रक्षा , संचार अवस्था तथा विदेशी मामलों के मुद्दे पर ही इन रियासतों का विलय किया गया था , किंतु कुछ समय पश्चात यह महसूस किया जाने लगा कि आपस में सभी का निकट संबंध होना अनिवार्य है ।
  • पांचों राज्य संघ तथा मैसूर ने भारतीय न्याय क्षेत्र को स्वीकार कर लिया । इन्होंने समवर्ती सूची के विषयों ( को छोड़कर ) , अनुच्छेद 238 के विषयों तथा केंद्र की नियंत्रण शक्ति को 10 वर्षों के लिये स्वीकार कर लिया ।
  • सातवें संशोधन ( 1956 ) से श्रेणी -बी को समाप्त कर दिया गया । अंत में सभी रियासतें पूर्णरूपेण भारत में सम्मिलित हो गयी तथा भारत की एकीकृत राजनीतिक व्यवस्था का अंग बन गयीं ।

 

Videos Related To Subject Topic

Coming Soon....