विश्व की प्रजातियां व जनजातियां
मानव की उत्पत्ति
वैज्ञानिकों का मत है कि पृथ्वी पर मानव का विकास टर्शियरी युग में प्रारंभ हुआ तथा इसका विकास क्रमिक रूप से हुआ है। जीवाश्म विज्ञान के साक्ष्यों से यह स्पष्ट हो गया है कि मानव के प्रथम पूर्वज आज से 6.5 करोड़ वर्ष पूर्व अफ्रीका महाद्वीप में निवास करते थे, क्योंकि प्रथम स्तनपायी के अवशेष यहीं से प्राप्त हुए हैं। इसी क्षेत्र में मानव-सम कपियों अर्थात नर-वानरों जैसे-गोरिल्ला, चिम्पेंजी, ओरंग उटांग आदि का भी उद्भव हुआ। मानव के समान बिना पूंछ वाले इन कपियों को प्राइमेट कहा जाता है। इनमें और मानवों में अनेक समानताएं पायी जाती हैं, जिनके कारण इनको मानव को निकट संबंधी माना जाता है। पिथेकैन्थ्रोपस इरेक्टस वाले जावा मानव को विश्व का सबसे प्राचीन द्विपद अवशेष स्वीकार किया जाता है। यह आज से लगभग 10 लाख वर्ष पूर्व पृथ्वी पर विचरण करता था। वर्तमान मेधावी मानव या होमोसेपियन्स की उत्पत्ति एवं विकास के लिए निएन्डरथल मानव को उत्तरदायी माना जाता है। इनकी आयु आज से लगभग बीस से तीस हजार वर्ष पूर्व आकलित की गई है।
डॉ. वाइडरनीश ने पूर्व मेधावी मानव के रूप में निम्नलिखित मानवों का उल्लेख किया है-
1. पिल्टडाउन मानव,
2. हाइडेलबर्ग मानव (जर्मनी),
3. निएन्डरथल अफ्रीकी मानव एवं
4. रोडेशियन मानव (यूरोप)
प्रजातीय विभिन्नता को प्रभावित करने वाले कारक
1. जलवायु परिवर्तन: काफी लम्बे समय तक समान जलवायविक दशाओं में रहने के कारण प्रजातियों का एक विशेष समूह विकसित हो जाता है, जैसे-शीत प्रदेशों की श्वेत प्रजाति अथवा भूमध्यरेखीय उष्ण प्रदेशों की नीग्रोयड प्रजाति। जलवायविक परिवर्तन से प्रजातीय विशेषताएं भी परिवर्तित हो जाती हैं, जैसे-मेस्टिजो का रंग हल्का भूरा होता है।
2. ग्रंथि रस का प्रभाव: प्रजातीय परिवर्तन पर ग्रंथि रस का प्रभाव पड़ता है।
(i) पीयूष ग्रंथि: इसकी अधिक सक्रियता के कारण कॉकेशियन प्रजाति के लोग लम्बे कद, भारी शरीर, अच्छे भ्रू, सुन्दर एवं सुडौल नाक तथा बड़ी ठोड़ी वाले होते हैं।
(ii) गल ग्रंथि: इस ग्रंथि की निष्क्रियता के कारण मंगोलियन प्रजाति के लोगों का चेहरा चपटा, नाक दबी हुई, ललाट छोटा और उभरा हुआ होता है।
(iii) एड्रीनल ग्रंथि: यह ग्रंथि त्वचा के रंग को प्रभावित करती है।
इसके अलावा अनुकूलन, उत्परिवर्तन, स्थान परिवर्तन जैसे कारकों का भी प्रजाति की भिन्नता पर प्रभाव पड़ता है।
प्रजाति निर्धारण के शारीरिक लक्षण
मानवशास्त्रियों ने प्रजातियों का वर्गीकरण मानव की शारीरिक बनावट के विशिष्ट लक्षणों (जैसे, त्वचा का रंग, खोपड़ी की लम्बाई, जबड़ों का उभार, शरीर का कद, बाल, चेहरे की आकृति, आंखों की बनावट आदि) के आधार पर किया है। सामान्यतः प्रजातियों का वर्गीकरण निम्नलिखित दो लक्षणों के आधार पर किया गया है। यथा-
(A) वाह्य लक्षण
इसके अन्तर्गत निम्नलिखित बाह्य लक्षण आते हैं-
(1) चमड़ी का रंग: मनुष्य की त्वचा में मैलेनिया, कैरोटीन अथवा हीमोग्लोबिन की मात्रा कम अधिक होने के कारण चमड़ी का रंग काला, पीला या लाल हो जाता है। ज्यों-ज्यों विषुवत् रेखा से ध्रुव की ओर बढ़ते हैं, जलवायु में परिवर्तन के कारण, चमड़ी का रंग काले से श्वेत होता है। चमड़ी के रंग के आधार पर विश्व की प्रजातियों को तीन मोटे भागों में बांटा गया है। यथा-
त्वचा का रंग |
प्रजातियां |
|
काकेशायड |
|
मंगोलायड |
|
नीग्रोयड |
|
मेस्टिजो |
(2) बालों की बनावट: यह लक्षण वंशानुक्रम द्वारा निर्धारित होती है। इसके आधार पर मानव प्रजातियों के वर्गीकरण में सहायता मिलती है। यथा-
बालों का प्रकार |
प्रजातियां |
|
मंगोलायड |
|
काकेशायड |
|
नीग्रोयड, पैपुआन, मैलेनेशियन |
(3) शरीर का कद : मानव प्रजाति कदानुसार अधोलिखित प्रकार से विभाजित की गयी है। यथा-
कद |
लम्बाई (सेमी.) |
प्रजाति |
|
160 से कम |
पिग्मी, ओसीनियाई, चीनी, जापानी वेड्डा, लैप्स, सकाई आदि। |
|
160 से 165 |
मलेशिया, न्यूगिनी के निवासी, खिरगीज आदि। |
|
165 से 170 |
मैलेनेशियन, आस्ट्रेलियाई, भूमध्यसागरीय |
|
170 से अधिक |
नीग्रोइड, अफगान, पेटागोनिया, इंग्लैण्ड, आस्ट्रेलिया आदि के निवासी। |
(4) आंखों का रंग और उनकी बनावट: आंखों की पुतली का सामान्य रंग काला होता है, किन्तु कुछ लोगों का यह नीला, हरा या भूरा भी होता है। आंखों की बनावट में अन्तर पाया जाता है। कुछ आंखें बादाम की तरह तिरछी होती हैं और उनकी फटान बिल्कुल क्षैतिजावस्था में होती है। ऐसी आंखें, यूरोप, उत्तरी अफ्रीका, दक्षिण-पश्चिमी एशिया एवं भारत के लोगों में पायी जाती हैं, जबकि चीनी, जापानी, मंगोल, आदि लोगों की फटान तिरछी होती है तथा ऊपरी भाग में खाल का मोड़ पड़ा होता है, जो आंख के आन्तरिक कोण को छिपा लेता है तथा जो गालों तक फैला होता है। इस प्रकार की आंख को मंगोलीय प्रकार की अधखुली आंख कहते हैं।
(5) ओठ के आकार: ओठों की बनावट में भी भिन्नता पायी जाती है, अतः प्रजातीय निर्धारण में इसका भी सहयोग लिया जाता है। पश्चिमी अफ्रीकी लोगों में ओठ अंश बहुत मोठा, फूला हुआ तथा बाहर को उल्टा हुआ होता है। सामान्यतः अन्य प्रजातियों के ओठ, पतले और अन्दर को झुके होते हैं।
(B) आन्तरिक लक्षण
(1) कपाल सूचकांक: कपाल सूचकांक के आधार पर मानवसिर को तीन श्रेणियों में रखा जाता है-
(i) जब सूचकांक 78 से कम होता है तो उसे लम्बी सिर,
(ii) जब यह 78 से 82 के बीच होता है तो उसे मध्य सिर, और
(iii) जब सूचकांक 82 से अधिक होता है तो सिर को चौड़ा सिर कहा जाता है।
Cephalic Index = |
Length of the Head |
x |
100 |
Breadth of the Head |
(i) लम्बे सिरवाले: मैलेनेशियन, नीग्रो, एस्किमो, नीग्रोइड, बण्टु, अमरीकी इण्डियन, उत्तरी और दक्षिणी यूरोप के निवासी, पुरा द्रविड़, द्रविड़ लोग।
(ii) मध्यम सिर वाले: बुशमेन, हाटेण्टाट्स, भूमध्यसागरीय, नॉर्डिक, ऐनू, उत्तरी अमरिण्ड।
(iii) छोटे सिर वाले: आल्पस-कारपेथियन, तुर्क, तुंगुस, मंगोल आदि होते हैं।
(2) नासा सूचकांक: नाक की लम्बाई-चौड़ाई का प्रतिशत अनुपात नासा सूचकांक कहलाता है। यदि सूचकांक 70 से कम हे तो पतली नाक, 70 से 85 तक मध्यम नाक और उससे अधिक होने पर चौड़ी नाक होती है।
(i) संकरी/पतली नासिका: उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में निवास करने वाले लोगों में,
(ii) मध्यम नासिका: पोलीनेशियाई, साइबेरिया के निवासी, कुछ अमरीकी, भारतीय और पीत वर्ण की प्रजातियों में, तथा
(iii) चपटी/चौड़ी नासिका: अर्ध शुष्क मरूभूमियों, प्रशांत महासागर एवं आस्ट्रेलिया के मूल निवासियों में मिलती है।
(3) रूधिर वर्ग: प्रमुख नृवंश-शास्त्री लैण्ड स्टेनर ने मानव प्रजातियों में चार प्रकार के रूधिरों का उल्लेख किया है। जिसके आधार पर मानव प्रजातियों का वर्गीकरण अधोलिखित है। यथा-
रूधिर वर्ग प्रतिशत |
प्रजाति |
निवास क्षेत्र |
|||
A% |
B% |
AB% |
O% |
||
7 |
1.5 |
0 |
91.5 |
उत्तरी इंडियन |
उ. अमेरिका, द. अमेरिका |
37.8 |
3.6 |
0 |
58.6 |
आस्ट्रेलियन
|
पूर्वी एवं पश्चिमी आस्ट्रेलिया |
42.4 |
8.0 |
1.4 |
48.0 |
यूरोपीयन
|
इंग्लैण्ड, स्वीडन, यूनान, रूस |
30.0 |
29.0 |
10.4 |
30.6 |
पिग्मी
|
मध्य अफ्रीका, कांगो बेसिन |
38.4 |
22.0 |
10.4 |
3.06 |
एशियाई |
जापान, चीन |
मानव प्रजातियों का वर्गीकरण
विश्व की मानव प्रजातियों के वैज्ञानिक वर्गीकरण का सर्वप्रथम प्रयास लिनेकस द्वारा अठारहवीं (1758) शताब्दी में किया गया। विश्व में मुख्यतः तीन वृहद् प्रजातीय समूह पाए जाते हैं, जो निम्नलिखित हैं-
1. श्वेत प्रजाति अथवा काकेशायड
2. पीत प्रजाति अथवा मंगोलायड
3. काली प्रजाति अथवा नीग्रोयड
1. काकेशायड प्रजाति
यह विश्व के सर्वाधिक विस्तृत क्षेत्रों में पायी जाने वाली मानव प्रजाति है जो प्रायः सभी महाद्वीपों में विद्यमान है। इस प्रजाति के लोग श्वेत वर्ण के होते हैं। इस प्रजाति का मूल स्थान काकेशस पर्वत का दक्षिणी भाग है। इस प्रजाति की तीन शाखाएं हैं-
(i) यूरोपियन शाखा: इसे पुनः तीन उपवर्गों में बांटा जाता है-(a) नॉर्डिक (b) भूमध्यसागरीय (c) अल्पाइन
काकेशायड प्रजाति की यह शाखा विश्व के उन सभी क्षेत्रों में पाये जाते हैं, जहां यूरोपीय उपनिवेश स्थापित हुए हैं। यद्यपि इनका सर्वाधिक संकेन्द्रण यूरोप में है।
(ii) इंडो-ईरानियन शाखा: यह इराक, ईरान व पाकिस्तान क्षेत्र में मिलती है। भारत के पश्चिमोत्तर एवं मध्य भाग में भी यह प्रजाति मिलती है।
(iii) सेमाइट और हेमाइट: यह प्रजाति उत्तरी और उत्तरी-पूर्वी अफ्रीका में फैली हुई है। इसके अन्तर्गत मोरक्को, अल्जीरिया, ट्यूनीशिया, लीबिया, मिस्र, इथियोपिया, सोमालिया, सऊदी अरब, यमन, जोर्डन आदि क्षेत्रों की जनसंख्या को शामिल किया जाता है।
2. मंगोलायड प्रजाति
पीले-भूरे रंग के मंगोल प्रजाति का मुख्य विस्तार मध्य व पूर्वी एशिया में है। दक्षिण-पूर्वी एशिया व इंडोनेशिया में आस्ट्रेलॉयड लोगों से सम्पर्क के कारण इनका रंग हल्का भूरा हो गया है। मंगोल प्रजाति का विशिष्ट लक्षण उनकी तिरछी आंखें हैं, जो भारी पलकों के कारण मुड़ी हुई दिखती हैं। इनके बाल काले, खड़े एवं अल्प होते हैं। इनकी औसत ऊँचाई 1.66 मीटर है। ये लघु कापालिक होते हैं तथा इनके चार प्रमुख वर्ग हैं-
(i) प्राचीन मंगोलायड: ये उत्तरी व मध्य चीन, मंगोलिया एवं तिब्बत में पाए जाते हैं। कालमुख एवं कोरयाक कबीले इस वर्ग के प्रतिनिधि हैं।
(ii) आर्कटिक मंगोलायड: ये कनाडा, ग्रीनलैंड, अलास्का और साइबेरिया के उपध्रुवीय भाग में रहते हैं। एस्किमो एवं उसी से संबंधित सेमोयेड्स व युकागीर जैसी अन्य जनजातियां इस वर्ग के अन्तर्गत आती हैं। इनका कद कुछ छोटा (1.62 मी.) होता है। परन्तु, प्राचीन मंगोलायड की तुलना में इनका सिर कुछ बड़ा (78.6 से 84.6) होता है। ये कुछ ताम्रवर्णी होते हैं।
(iii) अमेरिकन इंडियन: उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका के रेड इंडियन में मंगोलों के शारीरिक लक्षण पाये जाते हैं। इनमें काकेशियन व नीग्रो का बड़े पैमाने पर मिश्रण हुआ है, इसीलिए इनकी आंखें तिरछी नहीं होती। इनके नेत्र का रंग भूरा होता है। ये मैक्सिको से अमेजन के उत्तरी व मध्य घाटी तक फैले हुए हैं।
(iv) इंडोनेशियन मलय: इनमें मंगोलों के साथ-साथ काकेशियन व आस्ट्रेलायड तत्वों का सम्मिश्रण मिलता है। यह प्रजाति द. चीन, वियतनाम, लाओस, कंबोडिया, थाइलैंड, म्यांमार, मलय प्रायद्वीप और इंडोनेशिया में पायी जाती है। इनका कद छोटा और सिर अपेक्षाकृत लम्बा होता है।
3. नीग्रोयड प्रजाति
ये काले भूरे एवं कत्थई रंग के होते हैं। इनका मूल स्थान अफ्रीका महाद्वीप है। इन्हें तीन शाखाओं में बांटा जा सकता है-
(i) अफ्रीकन
(ii) एशियाई शाखा
(iii) अमेरिकन शाखा
(i) अफ्रीकन शाखा: ये सहारा मरूस्थल के दक्षिणी भागों में मिलते हैं। इनके कई उपवर्ग हैं। वास्तविक नीग्रो पश्चिमी अफ्रीका में सेनेगल नदी के मुहाने से नाइजीरिया के पूर्वी मुहाने तक फैले हुए हैं। नाइजीरिया, घाना, आइवरी कोस्ट, लाइबेरिया आदि देशों में वास्तविक नीग्रो पाए जाते हैं। इनका औसत कद 1.73 मी. एवं कापालिक परिमिति 73.5 से 75.5 सेमी. तक होता है। मध्य अफ्रीका में वनवासी नीग्रो एवं पूर्वी अफ्रीका में अर्द्ध-हेमेटी प्रजातियां पायी जाती हैं। केन्या, युगांडा, तंजानिया में पाये जाने वाले मसाई, बइसो आदि कबीले अर्द्ध-हेमेटी प्रकार के हैं। कालाहारी मरूस्थल में बुशमैन व हाटेन्टाट रहते हैं। इस प्रजाति में मंगोल प्रजाति का मिश्रण भी पाया जाता है। पिग्मी नीग्रो अफ्रीका के कांगो क्षेत्र में रहते हैं। इनका कद छोटा (1.36 मी.) है, किन्तु ये मध्य कापालिक हैं। मध्य व दक्षिणी अफ्रीका में बंटू भाषी और तवा भाषी नीग्रो भी पाए जाते हैं।
(ii) एशियाई शाखा: नीग्रो प्रजाति के अन्तर्गत आने वाली इस शाखा में द्रविड़ व आस्ट्रेलायड प्रजातियां आती हैं। दक्षिण भारत में द्रविड़ प्रजाति और दक्षिण-पूर्वी एशिया व उत्तरी आस्ट्रेलिया में आस्ट्रेलायड प्रजातियां पाई जाती हैं। पूर्वी भारत के गोड व उराँव द्रविड़ प्रजाति के हैं, जबकि दक्षिण भारत में टोडा, कादर, कुरूंबा, आदि जनजातियां आस्ट्रेलायड प्रजाति के हैं। मलेशिया के सेमांग व सकाई, पूर्वी सुमात्रा और फिलीपींस के पिग्मी, ऐवा, अंडमान के ओन्गे, न्यूगिनी के पापुआन एवं आस्ट्रेलिया के मूल निवासी एबोरिजिनी आस्ट्रेलायड वर्ग के हैं। ये दीर्घ कापालिक होते हैं तथा उनकी औसत ऊँचाई 1.56 मीटर होती है।
(iii) नीग्रो प्रजाति की अमेरिकन शाखा पश्चिम अफ्रीका के नीग्रो लोगों के स्थानांतरण से बनी है। ये कैरेबियन एवं दक्षिण-पूर्वी संयुक्त राज्य अमेरिका में गन्ना व कपास की खेती के लिए गुलाम के रूप में लाए गए थे। अतः इनमें वास्तविक नीग्रो के लक्षण मिलते हैं।
विश्व की जनजातियां
1. पिग्मी: पिग्मी की उपजातियों का एक सम्मिलित नाम अचुआ है। इनकी चार उपजातियां हैं, जिसमें म्बूती, तवा, विंगा, गोसेरा। ये कांगो बेसिन के गैबोन, यु गांडा, दक्षिण-पूर्वी एशिया के फिलीपींस के वन क्षेत्रों, अमेटा और न्यूगिनी के वनों में पाए जाते हैं। निवास के लिए ये स्थायी बस्तियां नहीं बनाते हैं। इनकी अस्थायी झोपड़ियां मधुमक्खी के छत्ते के समान होती हैं। ये काले-नाटे कद के नीग्रिटो प्रजाति के लोग हैं। इनका कद सामान्यतः 1 से 1.5 मीटर तक होता है, जो विश्व के सभी मानवों में सबसे कम है। ये आखेट करने में कुशल होते हैं तथा यही उनकी अर्थव्यवस्था का आधार है। ये गले में बांस की बनी सीटी भी लटकाएं रहते हैं, जिससे पक्षियों की बोली की नकल करते हैं और शिकार के समय अपने साथियों के मार्ग की जानकारी रखते हैं। तीर एवं भाला इनके आखेट के हथियार हैं। कांगों में रहने वाले बटवा हाथी को मारने के लिए खास तीरों का प्रयोग करते हैं। पिग्मी जनजातियां केला बहुत पसंद करती हैं।
2. बोरा: पश्चिमी अमेजन बेसिन, ब्राजील, पेरू व कोलंबिया के सीमांत क्षेत्रों में रहने वाली यह जनजाति आदिम कृषक के रूप में जीवन-यापन करती है। शारीरिक गठन की दृष्टि से बोरा अमेरिका के रेड इंडियन के समान हैं। इनकी त्वचा का रंग भूरा, बाल सीधे और कद मध्यम होता है। ये लड़ाकू व निर्दय व्यवहार के होते हैं। इनके उत्सवों में मानव हत्या व मांस भक्षण अधिक प्रचलित है। विजय चिन्ह के रूप में मानव खोपड़ियों को अपनी झोपड़ियों में लगाते हैं।
3. सकाई: मलय प्रायद्वीप व मलेशिया के वनों में निवास करने वाली यह आदिम जनजाति साफ रंग, लम्बे कद और छरहरे शरीर वाले होते हैं। इनका सिर लम्बा व पतला एवं बाल काले व घुंघराले होते हैं। ये प्रायः निर्दयी होते हैं। प्राचीन आदिम प्रकार की कृषि, बागानी कृषि एवं आखेट इनका प्रमुख व्यवसाय है। सकाई आखेट के लिए फूंक नली का प्रयोग करते हैं। ये एक बांस की नली होती है। इसमें सीकें (बाण के समान) फेंकी जाती हैं।
4. सेमांग: ये मलय प्रायद्वीप के पर्वतीय भागों, अंडमान, फिलीपींस और मध्य अफ्रीका में रहते हैं, जो नीग्रिटो प्रजाति के हैं। इनका कद नाटा, रंग गहरा भूरा, नाक छोटी व चौड़ी, होठ चपटे व मोटे एवं बाल घुंघराले व काले होते हैं। इनका जीवन वनों की उपज और आखेट पर निर्भर करता है। इनका मुख्य भोजन रतालु है।
5. पापुआन: पश्चिमी प्रशांत महासागर में स्थित पापुआ न्यूगिनी द्वीप के ये आदिवासी पिग्मी जाति से मिलते-जुलते हैं। इनका कद नाटा, त्वाचा का रंग गहरा कत्थई एवं डील-डौल बेतुका होता है। पापुआन की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि है। ये गन्ना और पपीता की खेती करते हैं। कुछ पापुआन पशुपालन भी करते हैं। पापुआन खूंखार प्रवृत्ति के एवं अंधविश्वासी लोग होते हैं।
6. बुशमैन: दक्षिण अफ्रीका के कालाहारी मरूस्थल में निवास करने वाली यह हब्सी प्रजाति की जनजाति अब लेसोथो, नैटाल और जिम्बाब्वे में पाई जाती है। इनकी आंखें चौड़ी व त्वचा काली होती हैं। इस जनजाति की संख्या निरंतर घटती जा रही है। बुशमैन का मुख्य व्यवसाय आखेट व जंगली वनस्पति संग्रह करना है। दीमक को बुशमैन का चावल कहते हैं। ये लोग सर्वभक्षी होते हैं।
7. बद्दू: अरब के उत्तरी भाग के हमद और नेफद मरूस्थल में कबीले के रूप में चलवासी जीवन व्यतीत करने वाली बद्दू (बेदुयिन्स) जनजाति नीग्रिटो प्रजाति से संबंधित है। ये ऊँट, भेड़, बकरी व घोड़े को पालने का काम करते हैं। यहां ऊँट पालने वाले बद्दू को रूवाला कहा जाता है। जलाशयों के निकट ये कृषि कार्य भी करते हैं। ये लोग तंबुओं में निवास करते हैं तथा सिर पर स्कार्फ बांधते हैं।
8. मसाई: ये टांगानिका, केन्या व पूर्वी युगांडा के पठारी क्षेत्रों में घुमक्कड़ी पशुचारक के रूप में जीवन निर्वाह करते हैं। इनमें भूमध्यसागरीय और नीग्रोयड प्रजाति के मिश्रण की झलक दिखायी देती है। ये लोग झोपड़ियों में रहते हैं, जिन्हें क्राल कहा जाता है। ये गाय को पवित्र मानते हैं। यहां के पुजारी लैबोन कहलाते हैं। इनके भोजन से संबंधित सभी आवश्यकताएं पशुओं से पूरी हो जाती हैं। ये मांस एवं दूध का सेवन करते हैं कुछ विशेष अवसरों पर बैल, बछड़ों एवं मैमनों की बलि देकर उनका रक्त पीते हैं।
9. किरगीज: ये मध्य एशिया में किर्गिस्तान में पामीर के पठार एवं तिएन शान पर्वतमाला के क्षेत्रों में निवास करते हैं। यह दक्षिण और दक्षिण-पूर्व में क्रमशः फरगना, अलाई व तिएन शान पर्वत श्रेणियों से घिरा हुआ। उत्तर की ओर साइबेरिया के मैदान से मिला हुआ है। किर्गिस्तान 1991 ई. तक तत्कालीन सोवियत संघ का एक राज्य था, किन्तु आज एक पूर्ण स्वतंत्र राष्ट्र है। खिरगीज जनजाति मंगोल प्रजाति के होते हैं। इनकी त्वचा का रंग पीला, बाल काले, कद छोटा, शरीर सुगठित एवं आंखें छोटी व तिरछी होती हैं। खिरगीज प्रजाति के लोग ऋतु-प्रवाह करने वाले पशुचारक चलवासी होते हैं। ये दूध को सड़ाकर खट्टी शराब बनाते हैं, जिसे कुमिस कहते हैं। त्यौहारों में घोड़े का मांस खाने का प्रचलन है। निवास (अस्थायी) के लिए गोलाकार तंबू का प्रयोग करते है, जिसे यूर्त कहा जाता है।
10. एस्किमो: एस्किमो का शाब्दिक अर्थ है-कच्चा मांस खाने वाला। अमेरिका के अलास्का से ग्रीनलैंड तक के टुंड्रा प्रदेशीय क्षेत्रों में रहने वाले एस्किमो मंगोलायड प्रजाति के हैं। इनका मुख्य व्यवसाय आखेट है। रेंडियर इनका पालतू पशु है। ये वालरस, श्वेत भालू, रेंडियर, सील मछली आदि का शिकार करते हैं। हारपून नामक अस्त्र तथा उमियाक नाव की सहायता से ये व्हेल का शिकार करते हैं। शिकार करने की यह शैली माउपोक व इतुआरपोक कहलाती है। एक छिद्र के माध्यम से सील मछली के शिकार की शैली माउपोक तथा दो छिद्रों के माध्यम से शिकार (आखेट) की शैली को इतुआरपोक कहते हैं। शिकार में कभी-कभी नावों का प्रयोग किया जाता है, जिसे कायक कहते हैं। परिवहन के लिए बिना पहिए की गाड़ी का प्रयोग किया जाता है, जिसे स्लेज कहते हैं। इनका निवास गृह इग्लू बर्फ के टुकड़ों से बना होता है। लगभग 600 - 700 उत्तरी अक्षांश के बीच निवास करने वाली जनजातियों को उत्तरी कनाडा व ग्रीनलैण्ड में एस्किमो, उत्तरी यूरोप में (यूराल पर्वत के पश्चिम) लैप्स, उत्तरी साइबेरिया (यूराल के पूरब) में सैमोयेड/सोमायड, तुंगू, याकूत, चुकची आदि नामों से जाना जाता है।
11. सेमोयेड्स: पश्चिमी साइबेरिया के टुंड्रा प्रदेश के निवासी मंगोलॉयड प्रजाति के हैं। इनका मुख्य व्यवसाय आखेट व पशुपालन है। ये चलवासी आखेटक हैं, अतः इनका स्थायी निवास नहीं होता है।
12. युकागीर: उत्तर-पूर्वी साइबेरिया के बर्खोयांस्क और स्टैनोवाय पर्वत के मध्य रहने वाले युकागीर मंगोलॉयड प्रजाति के हैं। शिकार व मत्स्यपालन इनकी अर्थव्यवस्था का आधार है।
13. पुनन: यह मध्य बोर्नियो, मलेशिया एवं इंडोनेशिया में रहने वाली जनजाति है, जो कृषि व वनों से संग्रहित खाद्य पदार्थ पर निर्भर है।
14. कज्जाक: रूस के लोग यूरोपीय कासक्स लोगों की भिन्नता दर्शाने के लिए कज्जाक को खिरगीज के नाम से भी संबोधित करते हैं। ये तुर्की भाषी चलवासी पशुपालक व्यापक रूप से यहां मिलते हैं। इसके अलावा कजाख्स्तान व सीक्यांग (चीन) में भी किरगीज जनजाति के तरह पशुचालक चलवासी के रूप में पाए जाते हैं। कज्जाक सामान्यतः मंगोलॉयड प्रजाति के होते हैं। ये लोग कद में छोटे होते हैं। इनका शरीर सुगठित, त्वचा पीली व बाल काले होते हैं। कज्जाक के तंबू को यूर्त कहा जाता है। वधू के पिता द्वारा मध्यस्थों को दिए जाने वाले भेंट खिलत (लम्बा चोंगा) कहलाता है। शादी के बाद वर-वधू के लिए बनाए गए तंबू को अकोई कहा जाता है।
पर्वतीय क्षेत्रों में निवास करने वाली जनजातियां |
|
क्षेत्र |
जनजातियां |
|
कोल, संथाल, हो, भील |
|
टोडा (दक्षिण भारत) |
|
वेद्दा |
|
एटाज |
|
सेमांग |
|
वेल्स जनजाति |
|
हाइलैंडर |
|
गौल |
|
कोटिनी, बोई |
|
हिल बिली |
|
क्रैकर |
|
सैंडहिलर |
15. माया: मा या जनजाति के लोग मुख्यतः रेड इण्डियन हैं। यह कृषक जनजाति है जो मैक्सिको, ग्वाटेमाला और होंडुरास में निवास करती है।
16. माओरी: ये न्यूजीलैण्ड के पोलीनेशियन आदिवासी हैं। इनका प्रमुख व्यवसाय कृषि, आखेट व वनोत्पाद का संग्रह करना है।
17. मग्यार: इन्हें हंगेरियन कहते हैं, क्योंकि ये हंगेरी भाषा बोलते हैं। ये रूमानिया, यूगोस्लाविया, चेकोस्लोवाकिया और यूक्रेन में निवास करते हैं तथा मूलतः कृषक हैं।
18. बोअर: ये दक्षिण अफ्रीका के औरेंज फ्री स्टेट में रहते हैं, जो पशुपालक व कृषक हैं।
19. जुलु: ये दक्षिण अफ्रीका के नैटाल क्षेत्र के निवासी हैं, जो न्गुनी भाषा बोलते हैं। ये मूलतः खाद्यान्न उत्पादक, कृषक व पशुपालक हैं। ये बंटू जनजाति समूह के सदस्य हैं।
20. काकेशस: ये काला सागर और कैस्पियन सागर के निकटवर्ती उत्तरी भागों में निवास करते हैं। ये पोलैंड, लिथुआनिया, मस्कोवा व रूस में मिलते हैं। ये खूंखार, लड़ाकू व वीर होते हैं। कृषि इनका प्रमुख व्यवसाय है।
21. अफरीदी: यह पाकिस्तान में सफेद कोह से पेशावर तक रहने वाली पख्तूनी आदिवासी जाति है। इस समुदाय के लोग कुशल योद्धा व वीर होते हैं।
22. यूपिक: यूपिक जनजाति पश्चिमी अलास्का व पूर्वी रूस में निवास करते हैं।
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