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सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन एवं उसके नेता

18 वीं शताब्दी में भारत में जिन सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों एवं उनसे सम्बंधित महापुरुषों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, वे निम्नलिखित हैं-

ब्रह्मसमाज

ब्रह्मसमाज हिन्दू धर्म से सम्बन्धित प्रथम धर्म-सुधार आन्दोलन था। इसके संस्थापक राजा राममोहन राय थे, जिन्होंने 20 अगस्त, 1828 ई. में इसकी स्थापना कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में की थी। इसका मुख्य उद्देश्य तत्कालीन हिन्दू समाज में व्याप्त बुराईयों, जैसे- सती प्रथा, बहुविवाह, वेश्यागमन, जातिवाद, अस्पृश्यता आदि को समाप्त करना। राजा राममोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण का पिता माना जाता है। राजा राममोहन राय पहले भारतीय थे, जिन्होंने समाज में व्याप्त मध्ययुगीन बुराईयों को दूर करने के लिए आन्दोलन चलाया। देवेन्द्रनाथ टैगोर ने भी ब्रह्मसमाज को अपनी सेवाएँ प्रदान की थीं। उन्होंने ही केशवचन्द्र सेन को ब्रह्मसमाज का आचार्य नियुक्त किया था। केशवचन्द्र सेन का बहुत अधिक उदारवादी दृष्टिकोण ही आगे चलकर ब्रह्मसमाज के विभाजन का कारण बना।

राजा राममोहन राय  

राजा राममोहन राय का जन्म 22 मई, 1774 ई. को बंगाल के हुगली ज़िले में स्थित 'राधा नगर' में हुआ था। इन्हें फ़ारसी, अरबी, संस्कृत जैसे प्राच्य भाषाओं एवं लैटिन, यूनानी, फ़्राँसीसी, अंग्रेज़ी, हिब्रू जैसी पाश्चात्य भाषाओं में निपुणता प्राप्त थी। पटना तथा वाराणसी में अपनी शिक्षा प्राप्त करने के बाद इन्होंने 1803 ई. से 1814 ई. तक कम्पनी में नौकरी की। राजा राममोहन राय ने एकेश्वरवाद में विश्वास व्यक्त करते हुए मूर्तिपूजा एवं अवतारवाद का विरोध किया। इन्होंने कर्म के सिद्धान्त तथा पुनर्जन्म पर कोई निश्चित मत नहीं व्यक्त किया। राजा राममोहन राय ने धर्म ग्रंथों को मानवीय अन्तरात्मा तथा तर्क के ऊपर नहीं माना। राजा राममोहन राय के उपदेशों का सार ‘सर्वधर्म समभाव’ था। 

 

राजा राममोहन का योगदान

राजा राममोहन राय ने कुछ महत्त्वपूर्ण रचनाएँ भी की हैं, उनकी कुछ रचनाएँ इस प्रकार हैं- 'तुहफतुल-मुवाहिद्दीन', 'गिफ़्ट द मोनाथेइस्ट्स' (1809 ई. में पारसी में प्रकाशित), 'पीसेप्टस ऑफ़ जीसस' आदि। इन्होंने 'संवाद कौमुदी' का भी सम्पादन किया। राजा राममोहन राय ने 1815 ई. में हिन्दू धर्म के एकेश्वरवादी मत के प्रचार हेतु आत्मीय सभा का गठन किया, जिसमें द्वारकानाथ टैगोर शामिल थे। 1815 ई. में इन्होंने वेदांत कॉलेज की स्थापना की। राजा राममोहन राय ने अपने समय में भारतीय समाज में व्याप्त तमाम बुराइयों में सर्वाधिक प्रखर आन्दोलन सती प्रथा के विरुद्ध चलाया। 1829 ई. में भारत के गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक द्वारा सती प्रथा को प्रतिबंधित करने के लिए लगाए गए क़ानून को लागू करवाने में राजा राममोहन राय ने सरकार की मदद की। राजा राममोहन राय ने पाश्चात्य शिक्षा के प्रति अपना समर्थन जताते हुए कहा कि, 'यह हमारे सम्पूर्ण विकास के लिए आवश्यक है।' 1817 ई. में डेविड हेयर की सहायता से कलकत्ता में हिन्दू कॉलेज की स्थापना की गई।

राजा राममोहन राय को भारत में पत्रकारिता का अग्रदूत माना जाता है। इन्होंने समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता का समर्थन किया था। भारत की स्वतंत्रता के बारे में उनका मत था कि, भारत को तुरन्त स्वतंत्रता न लेकर प्रशासन में हिस्सेदारी लेना चाहिए। अतः राजा राममोहन राय ब्रिटिश शासन के समर्थक थे। इन्होंने भारत में पूंजीवाद का समर्थन किया। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने राजा राममोहन राय के विषय में कहा कि, ‘राजा राममोहन राय अपने समय में सम्पूर्ण मानव समाज में एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने आधुनिक युग के महत्व को पूरी तरह समझा।’ राजा राममोहन राय ने भारतीय स्वतन्त्रता एवं राष्ट्रीय आंदोलन को समर्थन दिया। सन 1814 में राजाराम मोहन राय ने "आत्मीय सभा" की स्थापना की। वो 1828 में ब्राह्म समाज के नाम से जाना गया।  1821 ई. में स्पेनिश अमेरिका में क्रांति के सफल होने पर राजा जी ने एक सार्वजनिक भोज का आयोजन कर अपनी खुशी को व्यक्त किया। इन्हीं सब कारणों से राजा राममोहन राय के व्यक्तित्व को एक 'अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व' माना जाता है।

1850 ई. में मुग़ल बादशाह अकबर द्वितीय ने राजा राममोहन राय को राजा की उपाधि के साथ अपने दूत के रूप में तत्कालीन ब्रिटिश सम्राट विलियम चतुर्थ के दरबार में भेजा। इन्हें ब्रिटिश सम्राट से मुग़ल बादशाह को मिलने वाली पेंशन की राशि को बढ़ाने की बात करनी थी। यहीं पर ब्रिस्टल में 27 सितम्बर, 1833 ई. को राजा राममोहन राय की मृत्यु हो गयी। 

सुभाषचन्द्र बोस ने राजा राममोहन राय को ‘युगदूत’ की उपाधि से सम्मानित किया था।

राजा राममोहन राय के बाद ब्रह्मसमाज  

कालान्तर में देवेन्द्रनाथ टैगोर (1818-1905 ई.) ने ब्रह्मसमाज को आगे बढ़ाया और उन्होंने तीर्थयात्रा, मूर्तिपूजा, कर्मकाण्ड आदि की आलोचना की। इनके द्वारा ही केशवचन्द्र सेन को ब्रह्मसमाज का आचार्य नियुक्त किया गया। केशवचन्द्र सेन (1834-1884 ई.) ने अपनी वाक्पटुता एवं उदारवादी दृष्टिकोण से इस आंदोलन को बल प्रदान किया। इनके ही प्रयासों के फलस्वरूप ब्रह्मसमाज की शाखाएँ उत्तर प्रदेश, पंजाब एवं मद्रास में खोली गयी। केशवचन्द्र सेन का अत्यधिक उदारवादी दृष्टिकोण ही कालान्तर में ब्रह्मसमाज के विभाजन का कारण बना। 1865 ई. में देवेन्द्रनाथ ने केशवचन्द्र को ब्रह्मसमाज से बाहर निकाल दिया।


तत्वबोधिनी सभा

राजा राममोहन राय की मृत्यु के बाद ब्रह्मसमाज की गतिविधियों का संचालन द्वारिकानाथ टैगोर तथा पंडित रामचन्द्र विद्यावगीश ने किया। इनके बाद द्वारिकानाथ के पुत्र देवेन्द्रनाथ टैगोर ने (1818-1905 ई.) ब्रह्मसमाज की गतिविधयों को जारी रखा। ब्रह्मसमाज में शामिल होने से पहले देवेन्द्रनाथ ने कलकत्ता के जोरासांकी में 'तत्वरंजिनी सभा' की स्थापना की। बाद में 'तत्वरंजिनी' ही 'तत्वबोधिनी सभा' के रूप में परिवर्तित हो गयी। देवेन्द्रनाथ टैगोर ने तत्वबोधिनी सभा से जुड़ी पत्रिका ‘तत्वबोधिनी’ का प्रारम्भ किया। इसके सम्पादक 'अक्षय कुमार दत्त' थे। 1840 ई. में तत्वबोधिनी स्कूल की स्थापना हुई, अक्षय कुमार इसके अध्यापक पद पर नियुक्त हुये। इस स्कूल के अन्य सदस्यों में राजेन्द्र लाल मित्र, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, ताराचन्द्र चक्रवर्ती तथा प्यारेचन्द्र मित्र आदि थे।

 

संगत सभा की स्थापना

21 दिसम्बर, 1843 ई. को देवेन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रह्मसमाज की सदस्यता ग्रहण की तथा उत्साह के साथ राजा राममोहन राय के विचारों को प्रचारित किया। देवेन्द्रनाथ ने अलेक्ज़ेंडर डफ़ द्वारा भारतीय संस्कृति पर किए जा रहे ईसाई धर्म के प्रचार के प्रहार के विरुद्ध संघर्ष किया। देवेन्द्रनाथ टैगोर ने 'ब्रह्म धर्म' नामक धार्मिक पुस्तिका का संकलन किया तथा उपासना के ब्रह्म स्वरूप ब्रह्मेपासना की शुरुआत की। 1857 ई. में आचार्य केशवचन्द्र सेन ने ब्रह्मसमाज की सदस्यता ग्रहण की। इनके उदारवादी विचारों ने ब्रह्मसमाज की लोकप्रियता को बढ़ाया। केशवचन्द्र सेन ने देवेन्द्रनाथ के साथ मिलकर तत्कालीन आध्यात्मिक तथा सामाजिक समस्याओं के विचार के उद्देश्य से 'संगत सभा' (मैत्री संघ) की स्थापना की।

आदि ब्रह्मसमाज का गठन

1861 ई. में केशवचन्द्र सेन ने 'इण्डियन मिरर' नामक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इस पत्र (मिरर) ने शीघ्र ही अपनी पहचान बना ली और अंग्रेज़ी का पहला दैनिक समाचार होने का गौरव प्राप्त किया। बाद में इण्डियन मिरर ब्रह्मसमाज का मुख पत्र बन गया। आचार्य केशवचन्द्र सेन ने ब्रह्मसमाज को एक अखिल भारतीय रूप देने के उद्देश्य से पूरे भारत का दौरा किया, जिसके परिणामस्वरूप मद्रास में 'वेद समाज' तथा महाराष्ट्र में 'प्रार्थना समाज' की स्थापना हुई। आचार्य केशवचन्द्र सेन ने महिलाओं के उद्धार, नारी शिक्षा, अन्तर्जातीय विवाह आदि के समर्थन में प्रचार किया तथा बाल विवाह का विरोध किया। इन अमूलकारी परिवर्तनवादी विचारों के कारण ही 1865 ई. में ब्रह्मसमाज में पहली फूट पड़ी। देवेन्द्रनाथ टैगोर के अनुयायियों ने आदि ब्रह्मसमाज का गठन किया। आदि ब्रह्मसमाज का नारा था 'ब्रह्मवाद ही हिन्दूवाद है।'

भारतीय ब्रह्मसमाज

 1866 में केशव चन्द्र ने 'भारतीय ब्रह्मसमाज' की स्थापना की। इसे देखकर देवेंद्रनाथ ने अपने समाज का नाम भी आदि ब्रह्मसमाज रख दिया था। मूल ब्रह्मसमाज 'आदि ब्रह्मसमाज' के नाम से जाना जाने लगा और केशवबाबू का नवगठित समाज 'भारतवर्षीय ब्रह्मसमाज' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

लन्दन की यात्रा से लौटने के बाद 1872 ई. में केशवचन्द्र सेन ने सरकार को 'ब्रह्मविवाह अधिनियम' को क़ानूनी दर्जा देने के लिए तैयार कर लिया। आचार्य केशव चन्द्र सेन ने पश्चिमी शिक्षा के प्रसार, स्त्रियों के उद्धार तथा स्त्री शिक्षा आदि के उद्देश्य से 'इण्डियन रिफ़ार्म एसोसिएशन' की स्थापना की। ब्रह्मसमाज में दूसरा विभाजन 1878 ई. में हुआ, जब आचार्य केशवचन्द्र सेन ने 'ब्रह्मविवाह अधिनियम' 1872 ई. का उल्लंघन करते हुये अपनी अल्पायु पुत्री का विवाह कूचबिहार के महाराजा से किया। 

केशव चन्द्र सेन ने तत्व कौमुदी, द इंडियन मैसेंजर, द संजीवनी, द नव भारत प्रवासी आदि पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन किया।

साधारण ब्रह्मसमाज की स्थापना

केशवचन्द्र सेन के अनुयायियों ने उनसे अलग होकर 'साधारण ब्रह्मसमाज' की स्थापना की। साधारण ब्रह्मसमाज के अनुयायी मूर्तिपूजा और जाति प्रथा के विरोधी तथा नारी मुक्ति के समर्थक थे। साधारण ब्रह्मसमाज की स्थापना आनन्द मोहन बोस द्वारा तैयार की गई रूपरेखा पर हुआ था। आनन्द मोहन बोस इसके प्रथम अध्यक्ष थे। इस संगठन के सक्रिय कार्यकर्ताओं में शिवनाथ शास्त्री, विपिनचन्द्र पाल द्वारिकानाथ गांगुली तथा सुरेन्द्रनाथ बनर्जी प्रमुख थे।

प्रार्थना समाज

प्रार्थना समाज की स्थापना वर्ष 1867 ई. में बम्बई में आचार्य केशवचन्द्र सेन की प्रेरणा से महादेव गोविन्द रानाडे, डॉ. आत्माराम पांडुरंग, चन्द्रावरकर आदि द्वारा की गई थी। जी.आर. भण्डारकर प्रार्थना समाज के अग्रणी नेता थे। प्रार्थना समाज का मुख्य उद्देश्य जाति प्रथा का विरोध, स्त्री-पुरुष विवाह की आयु में वृद्धि, विधवा-विवाह, स्त्री शिक्षा आदि को प्रोत्साहन प्रदान करना था।

प्रार्थना समाज संस्था के सहयोग से कालान्तर में दलित जाति मंडल, समाज सेवा संघ तथा दक्कन शिक्षा सभा की स्थापना हुई। पंजाब में इस समाज के प्रचार-प्रसार में दयाल सिंह के प्रन्यास ने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। दक्षिण भारत में विश्वनाथ मुदलियर के नेतृत्व में ‘वेद समाज’ का नाम बदल कर ‘दक्षिण भारत ब्रह्मसमाज’ रखा गया।

ब्रह्मसमाजियों के विपरीत प्रार्थना समाज के सदस्य अपने को हिन्दू मानते थे। वे एकेश्वरवाद में विश्वास  करते थे |महाराष्ट्र के तुकाराम तथा गुरु रामदास जैसे महान् संतों की परम्परा के अनुयायी थे। प्रार्थना समाजियों ने अपना मुख्य ध्यान हिन्दुओं में समाज सुधार के कार्यों, जैसे सहभोज, अंतर्जातीय विवाह, विधवा विवाह, अछूतोद्धार आदि में लगाया। प्रार्थना समाज ने बहुत से समाज सुधारकों को अपनी ओर आकर्षित किया, जिसमें जस्टिस महादेव गोविन्द रानाडे भी थे। मुख्य रूप से जस्टिस महादेव गोविन्द रानाडे के प्रयत्न से प्रार्थना समाज की ओर से 'दक्कन एजुकेशन सोसाइटी' (दक्षिण शिक्षा समिति) जैसी लोकोपकारी संस्थाओं की स्थापना की गई।

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यंग बंगाल आंदोलन एवं हेनरी विवियन डेरोजियो

  • इस आंदोलन की पहल मुख्य रूप से हिंदू कालेज के एग्लो-इंडियन शिक्षक हेनरी विवियन डेरोजियो (1809-1831) ने की थी।
  • यंग बंगाल नाम से विख्यात नवयुवक बंगाली बौद्धिकों की टोली द्वारा नये एवं मूलगामी विषयों का प्रचार-प्रसार होने लगा।
  • उनका जन्म कलकत्ता में 1809 में पुर्तगाली-भारतीय परिवार में हुआ था। अपने विचारों से उसने कालेज के युवा विद्याथियों को बहुत आंदोलित किया।
  • 22 वर्ष की अल्प आयु में ही डेरोजियो ने बंगाल में नवजागण की जो मशाल जलाई, वह अविश्वसनीय लगती है। अपने मूलगामी विचारों के कारण डेरोजियो 1831 में हिंदू कालेज से निकाल दिया गया और इसके कुछ समय बाद ही कालरा से 22 वर्ष की अल्पायु में ही उनका देहावसान हो गया।

 

ईश्वरचंद्र विद्यासागर

  • राजा राममोहन राय के पश्चात भारत में एक अन्य बड़े समाज-सुधारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर हुए। वे संस्कृत के विद्वान थे तब भी उन्होंने पश्चिमी सभ्यता की अच्छी बातों को स्वीकार किया। 1850 में वे संस्कृत कालेज के प्रधानाचार्य बने। उन्होंने संस्कृत अध्ययन के लिए ब्राम्हणों के एकाधिकार को समाप्त किया तथा गैर-ब्राम्हणों को संस्कृत अध्ययन के लिए प्रोत्साहित किया।
  • ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने अपना सम्पूर्ण जीवन समाज-सुधार और मुख्यता स्त्रियों को सुधारने के लिए लगा दिया। इन्होंने विधवा-विवाह के पक्ष में आवाज खड़ी की और इसके लिए अपने नेतृत्व में एक आंदोलन को जन्म दिया। 1855 में भारत के सभी बड़े शहरों से सरकार के पास विधवा-विवाह को कानूनी मान्यता देने के लिए एक प्रार्थना-पत्र भेजा गया। इसका परिणाम, 1856 में विधवा-विवाह कानून का स्वीकार किया जाना था। उन्होंने स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन देने हेतु अथक प्रयत्न किया। 1849 में स्थापित बेथुन स्कूल के सचिव के रूप में उन्होंने भारत में स्त्रियों के लिए उच्च शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया।

 

ज्योतिबा फुले और सत्यशोधक समाज

ज्योतिबा फुले का जन्म 1828 में एक माली के घर हुआ। इन्होंने शक्तिशाली गैर-ब्राम्हण आंदोलन का संचालन किया। 1873 में उन्होंने ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की। इस समाज का मुख्य उद्देश्य-

  • सामाजिक सेवा तथा
  • स्त्रियों एवं निम्न जाति के लोगों के बीच शिक्षा का प्रचार करना था।

ज्योतिबा फुले ने ‘सार्वजनिक सत्यधर्म’ एवं ‘गुलामी’ के विरूद्ध कार्य किया। गरीबों के वे इतने अधिक पक्षधर थे कि जब यार्क के ड्यूक से मिले तो वे अभावग्रस्त भारतीय किसान के वास्तविक प्रतिनिधि के रूप में धोती पहने हुए उनक सम्मुख प्रस्तुत हुए। अपनी ब्राम्हण-विरोधी गतिविधियों के संगठित रूप में प्रसार करने के लिए उन्होंने दो आलोचनात्मक कृतियों-सार्वजनिक सत्य धर्म पुस्तक तथा गुलामगीरी की रचना की।

 

बालशास्त्री जाम्बेकर

एक प्रसिद्ध समाज-सुधारक थे, जिनका कार्यक्षेत्र बंबई था। इन्होंने ब्राम्हणों की सर्वोच्चता को चुनौती दी तथा हिंदुत्व को लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया। 1832 में उन्होंने साप्ताहिक पत्र दर्पण का प्रकाशन प्रारंभ किया।

 

विद्यार्थियों की शैक्षिक एवं वैज्ञानिक समितियां

इन्हें ज्ञान प्रकाश मंडलियों के नाम से भी जाना जाता है, इनकी दो प्रमुख शाखाएं थीं-प्रथम मराठी एवं दूसरी गुजराती। जिनका गठन 1848 में कुछ शिक्षित युवा भारतीयों द्वारा किया गया था। इन मंडलियों द्वारा सामाजिक प्रश्नों एवं लोकप्रिय विज्ञान पर व्याख्यानों का आयोजन किया जाता था। इनका प्रमुख उद्देश्य बालिकाओं को स्कूलों में प्रवेश लेने के लिए प्रोत्साहित करना था।

 

दयानंद सरस्वती और आर्य समाज

  • स्वामी दयानंद का बचपन का नाम मूलशंकर था। उनका जन्म 1824 में गुजरात के एक छोटे नगर, तनकारा में एक प्रतिक्रियावादी ब्राम्हण परिवार में हुआ। 1845 में उन्होंने अपना घर-परिवार छोड़ दिया और 1861 तक वह एक संन्यासी के रूप में सम्पूर्ण भारत में भ्रमण करते रहे। 1875 में बंबई में उन्होंने, सर्वप्रथम आर्य-समाज की स्थापना की। सत्यार्थ प्रकाश इस समाज का पवित्र ग्रंथ है। उनके गुरू का नाम बिरजानंद था। 1868 में दयानंद ने अपनी एकाकी संन्यास एवं आध्यात्मिक खोज का जीवन समाप्त कर दिया और सक्रिय धर्मसुधारक एवं समाज-सुधारक बन गए। उन्होंने अपने विचारों के प्रचार के लिए भारत का भ्रमण किया और विभिन्न स्थानों पर आर्य समाज की स्थापना की।
  • दयानंद का विश्वास था कि स्वार्थी एवं अज्ञानी पुरोहितों ने पुराणों जैसे ग्रंथों के सहारे हिंदू धर्म भ्रष्ट किया है। उनके अनुसार वेद ही हिंदू धर्म का वास्तविक आधार है। हिंदू रूढ़िवदिता का विरोध करते हुए उन्होंने मूर्तिपूजा, बहुदेववाद, अवतारवाद, पशुबलि, श्राद्ध तथा झूठे कर्मकांडों और अंधविश्वासों का विरोध किया।
  • स्वामी दयानंद ने अपने जीवन के अंतिम आठ वर्ष आर्य समाज का प्रचार करने, अपने उपदेशों को प्रसारित करने, पुस्तकें लिखने तथा भारत भर में आर्य समाज को संगठित करने में व्यतीत किए। आर्य समाज के संदेशों का प्रचार-प्रसार करने का उनका उद्देश्य पंजाब में अत्यधिक सफल रहा। दयानंद सरस्वती वेदों को ‘‘भारत के आधार-स्तंभ’’ के रूप में देखते थे। उनका विश्वास था कि हिंदू धर्म और वेद, जिन पर भारत का पुरातन समाज टिका था, शाश्वत, अपरिवर्तनीय, धर्मातीत और दैवीय हैं। इसीलिए उन्होंने ‘‘वेदों की ओर वापस चलो’’ तथा ‘‘वेद ही समग्र ज्ञान के स्रोत हैं’’ का नारा दिया।

 

वेद समाज

  • केशवचंद्र सेन ने मद्रास यात्रा के दौरान वेद समाज की स्थापना के लिए प्रेरणा दी। इस संगठन के संस्थापक के. श्रीधरालु नायडु थे। इन्होंने ब्रम्ह समाज के आंदोलन का अध्ययन करने के लिए कलकत्ता की यात्रा की तथा मद्रास आकर 1871 में वेद समाज को दक्षिण भारत के ब्रम्ह समाज के रूप में परिवर्तित कर दिया। 1874 में एक दुर्घटना में श्री नायडू की असामयिक मृत्यु के कारण इस समाज में फूट पड़ गई।

 

रहनुमाई मजदायन सभा

  • बंबई के पारसियों की यह प्रतिनिधि संस्था थी, जिसकी स्थापना 1851 में नौरोजी फरदोनजी, दादाभाई नौरोजी तथा एम.एस. बंगाली आदि ने की थी। स्त्री-शिक्षा के प्रोत्साहन जैसे मुद्दों के अतिरिक्त पारसियों के सामाजिक विधान में एकरूपता लाना इसका प्रमुख उद्देश्य था।

बहावी आंदोलन

  • मुसलमानों की पाश्चात्य प्रभावों के विरूद्ध सर्वप्रथम जो प्रतिक्रिया हुई, उसे ही बहावी आंदोलन या वलीउल्लाह आंदोलन के नाम से जाना जाता है। वास्तव में यह एक पुनर्जागरणवादी आंदोलन था। शाह वलीउल्लाह (1702-62) अठारवीं सदी में मुसलमानों के वह प्रथम नेता थे, जिन्होंने भारतीय मुसलमानों में हुई गिरावट में चिंता प्रकट की। उन्होंने भारतीय मुसलमानों के रीति-रिवाज तथा मान्यताओं में व्याप्त कुरीतियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया।
  • इसके पश्चात शाह अब्दुल्ला अजीज तथा सैय्यद अहमद बरेलवी (1786-1831) ने वलीउल्लाह के विचारों को लोकप्रिय बनाने का प्रयत्न किया। शाह अब्दुल अजीज ने हिंदुस्तान को दारूल-हर्ब (काफिरों का देश) से दारूल-इस्लाम बनाने का आह्वान किया। प्रारंभ में यह अभियान सिख सरकार के खिलाफ था परंतु 1849 में अंग्रेजों द्वारा पंजाब का विलय करने पर यह अंग्रेजों के विरूद्ध हो गया। यह आंदोलन 1870 तक चलता रहा जब तक कि इसे सैन्य बल द्वारा समाप्त नहीं कर दिया गया। सैय्यद  अहमद का यह दल उग्र था। इसका केंद्र पटना था।

 

टीटू मीर का आंदोलन

  • वहाबी आंदोलन के संस्थापक सैय्यद  अहमद बरेलववी के शिष्य, मीर निथार अली, जिन्हें टीटू मीर क नाम से भी जाना जाता था, ने इस आंदोलन का प्रवर्तन किया। टीटू मीर ने बंगाल के मुसलमान किसानों को हिन्दू जमींदारों एवं अंग्रेज नील सौदागरों के विरूद्ध संगठित किया। यद्यपि ब्रिटिश सरकार ने इस आंदोलन को आतंकवादी या हिंसक नही माना किंतु आंदोलन के अंतिम वर्षों विशेषकर उस वर्ष जब टीटू मीर का निधन हुआ इसके कार्यकर्ताओं एवं पुलिस में अनेक झड़पे हुईं। 1831 में इसी प्रकार की एक मुठभेंड़ में टीटू मीर का निधन हो गया।

 

फराजी आंदोलन

  • इस आंदोलन की शुरूआत हाजी शरियत-अल्लाह ने की थी। इस आंदोलन को ‘फराइदी आंदोलन’ के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इसका मुख्य जोर इस्लाम धर्म की सच्चाई पर था। इस आंदोलन का कार्य क्षेत्र मुख्यतयाः पूर्वी बंगाल था तथा इसका मुख्य उद्देश्य इस क्षेत्र की मुस्लिम आबादी को सामाजिक भेदभाव एवं शोषण से बचाना था। हाजी शरियत अल्लाह के पुत्र दूदू मियां के नेतृत्व में 1840 के पश्चात आंदोलन ने क्रांतिकारी रूख अख्तियार कर लिया। दूदू मियां ने आंदोलन को एक नया स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने इसे गांव से लेकर प्रांतीय स्तर तक संगठित किया। उन्होंने संगठन के प्रत्येक स्तर पर एक प्रमुख नियुक्त किया। इस आंदोलन ने सशस्त्र कार्यकर्ताओं का एक दल तैयार किया जिसका कार्य हिंदू जमींदारों एवं पुलिस के विरूद्ध संघर्ष करना था।
  • दूदू मियां को अनेक बार पुलिस ने गिरफ्तार किया किंतु 1847 में दूदू मियां की लंबी गिरफ्तारी के पश्चात आंदोलन कमजोर हो गया। 1862  दूदू मियां की मृत्यु के बाद भी आंदोलन चलता रहा किंतु किसी बड़े राजनैतिक प्रश्रय के अभाव में इसकी पहचान एक क्षेत्रीय धार्मिक आंदोलन के रूप में सिमट कर रह गयी।

 

अहमदिया आंदोलन

  • 19वीं शताब्दी में मुस्लिम समाज और धर्म सुधार के लिए एक और आंदोलन चला, जिसे अहमदिया आंदोलन कहते हैं। वर्ष 1889 में मिर्जा गुलाम अहमद ने इस आंदोलन की शुरूआत की। यह आंदोलन उदार सिद्धांतों पर आधारित था। इसके नेता अपने को हजरत मुहम्मद की तरह का अवतार मानते थे। आंदोलन, मुस्लिम समाज में सुधार लाने एवं उसमें व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के कार्य को अपना सर्वप्रमुख उद्देश्य मानता था। इसने गैर-मुसलमानों के प्रति युद्ध ‘जेहाद’ को बंद किये जाने की मांग की। आंदोलन ने भारतीय मुसलमानों के मध्य पाश्चात्य उदारवादी शिक्षा के प्रसार को बढ़ावा दिया। यह आंदोलन पंजाब के गुरूदासपुर जिले के ‘कादिया नगर’ से प्रारंभ हुआ था। मिर्जा गुलाम अहमद ने अपने सिद्धांतों की व्याख्या अपनी पुस्तक बराहीन-ए-अहमदिया में की है।

 

सर सैय्यद अहमद खान एवं अलीगढ़ आंदोलन

  • 1857 के विद्रोह के पश्चात अंग्रेजी सरकार यह मानने लगी कि इस विद्रोह में मुख्य षड्यंत्रकर्ता मुसलमान थे। कालांतर में बहावी आंदोलन के प्रति सरकार विरोधी रूख से यह धारणा और बलवती हो गयी। किंतु बाद में ब्रिटिश सरकार यह महसूस करने लगी कि उस समय राष्ट्रवादी आंदोलन की गति जिस तरह से जोर पकड़ने लगी थी उसका सामना करने के लिए शीघ्र ही कोई कदम उठाना अपरिहार्य हो गया था। इन्हीं परिस्थितियों में बढ़ते हुए राष्ट्रवाद का मुकाबला करने के लिए सरकार ने मुसलमानों को सहयोगी के रूप में इस्तेमाल करने का निश्चय किया। लेकिन यह सहयोग तभी प्राप्त किया जा सकता था जब मुसलमानों को सशक्त बौद्धिक विचारों से प्रभावित किया जाये। इस समय मुसलमानों का एक वर्ग, जिसका नेतृत्व सर सैय्यद अहमद खान कर रहे थे, सरकारी संरक्षण एवं सहयोग प्राप्त करने के पक्ष में था, जिससे मुसलमानों में शिक्षा का प्रसार कर रोजगार वृद्धि की जाये, ताकि मुस्लिम समाज की दशा में सुधार हो सके।
  • सर सैय्यद अहमद खान का जन्म 1817 में दिल्ली में एक प्रतिष्ठित मुस्लिम परिवार में हुआ था। वे ब्रिटिश शासन के अधीन न्यायिक सेवा के एक अंग्रेज भक्त नौकरशाह थे। 1876 में सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त होने के पश्चात 1878 में वे ‘इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल’ के सदस्य बने। अंग्रेजों के प्रति उनके समर्पण से प्रसन्न होकर 1888 में अंग्रेज सरकार ने उन्हें ‘नाइटहुड’ की उपाधि प्रदान की। उन्होंने अपील की कि कुरान की शिक्षाओं की व्याख्या पाश्चात्य वैज्ञानिक शिक्षा के दृष्टिकोण से की जाये। उन्होंने घोषित किया कि कुरान ही मुसलमानों की एकमात्र धार्मिक कृति है और सभी अन्य इस्लामिक रचनायें इसके समक्ष गौण हैं। उन्होंने कुरान की व्याख्या समसामयिक बौद्धिक तर्कों और ज्ञान के प्रकाश में की। उनके मतानुसार पवित्र कुरान की कोई भी व्याख्या जो मानवीय तर्क बुद्धि से मेल नहीं खाती वह वस्तुतः गलत व्याख्या है। उन्होंने मुसलमानों से आग्रह किया कि वे गलत रीति-रिवाजों का अनुसरण न करें। उनके अनुसार कोई  भी धर्म ग्रहण करने के योग्य होना चाहिए अन्यथा यह समाप्ज हो जाता है। उन्होंने धार्मिक रीति-रिवाजों का अंध रूप में अनुसरण करने को गलत बताया।
  • सैय्यद अहमद खान एक उत्साही शिक्षाविद् थे। उन्होंने कस्बों में स्कूल खोले तथा अनेक पुस्तकों का उर्दू में अनुवाद किया। 1875 में अलीगढ़ में उन्होंने ‘मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कालेज’ की स्थापना की। उन्होंने स्त्रियों की साक्षरता बढ़ाने एवं उन्हें शिक्षित करने के क्षेत्र में भी अथक परिश्रम किया। मुसलमानों में पर्दा प्रथा तथा बहुपत्नी प्रथा के घोर विरोधी थे। उन्होंने तलाक में स्त्रियों की भी सहमति लेने की मांग की तथा ‘पीरी’  एवं ‘मुरीदी’ की प्रथा की कड़े शब्दों में निंदा की। वे हिन्दू एवं मुसलमान दोनों धर्मों में एकता के समर्थक थे। उन्होंने कहा हिंदू एवं मुसलमान दोनों ही एक देश के हैं और एक राष्ट्र हैं। देश की प्रगति और भलाई हमारी एकता और प्रेम पर निर्भर है।
  • उन्होंने तर्क दिया कि मुसलमानों को सर्वप्रथम शिक्षा प्राप्त कर नौकरियां प्राप्त करना चाहिए, जिससे वे हिन्दुओं की बराबरी कर सकें जो पहले से शिक्षित होकर विभिन्न अवसरों का लाभ उठा रहे हैं। एक सक्रिय राजनीतिज्ञ के रूप में उनका विश्वास था कि मुसलमानों को अंग्रेजों से अपने संबंध सुधारने चाहिए, तभी उनके हितों की पूर्ति हो सकती है। इसीलिये उन्होंने मुसलमानों की ऐसी किसी भी राजनीतिक गतिविधि का विरोध किया, जो अंग्रेजों के विरूद्ध हो। दुर्भाग्यवश मुसलमानों में शिक्षा के प्रसार एवं रोजगार के मुद्दे को लेकर, वे अंग्रेजी शासन के इतने वशीभूत हो गये कि उन्होंने अंग्रेजों की फूट डालो एवं राज करो जैसी नीति का भी समर्थन प्रारंभ कर दिया। बाद के वर्षों में तो उनके साम्प्रदायिक रूख में आश्चर्यजनक परिवर्तन आ गया। कभी हिन्दुओं और मुसलमानों को भारत की दो सुंदर आंखों की संज्ञा देने वाले सर सैय्यद अहमद खान हिंदुओं के बिल्कुल विरूद्ध हो गये तथा उन्होंने हिन्दुओं की निंदा प्रारंभ कर दी। उन्होंने यहां तक कहा कि हिन्दुओं के अधीन मुसलमानों का उत्थान कभी नहीं हो सकता।
  • उन्होंने अपने विचारों का प्रचार ‘तहजीब-उल-अखलाक’ नामक पत्रिका में किया।
  • अलीगढ़-आंदोलन ने शिक्षित मुसलमानों के बीच उदार एवं आधुनिक पद्धति का विकास किया, जो कि मोहम्डन एंग्लो-ओरिएंटल कालेज अलीगढ़ पर आधारित था। इसके मुख्य उद्देश्यों में- (i) इस्लाम के दायरे में रहकर भारतीय मुसलमानों के बीच आधुनिक शिक्षा का प्रसार करना तथा (ii) मुस्लिम समाज के विभिन्न क्षेत्रों जैसे-पर्दा प्रथा, बहुपत्नी प्रथा, विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा, दास प्रथा, तलाक इत्यादि के क्षेत्र में सुधार लाना था।
  • इस आंदोलन के समर्थकों की विचारधारा कुरान की उदार व्याख्या पर आधारित थी। इन्होंने मुस्लिम समाज में आधुनिक एवं उदार संस्कृति को प्रोत्साहित करने का प्रयत्न किया। वे आधुनिक पथ पर चलकर इस्लामिक समाज का आधुनिकीकरण करना चाहते थे। इस प्रकार अलीगढ़ आंदोलन तत्कालीन समय में मुस्लिम सांस्कृतिक एवं धार्मिक गतिविधियों का केंद्र बन गया।

 

देवबंद स्कूल

  • यह भी एक प्रकार का मुस्लिम धार्मिक आंदोलन था जिसे मुस्लिम धर्म के रूढ़िवादी उलेमाओं द्वारा प्रारंभ किया था। इस आंदोलन के दो मुख्य उद्देश्य थे-
  • कुरान एवं हदीस की शिक्षाओं का मुसलमानों के मध्य प्रचार-प्रसार करना एवं
  • विदेशी आक्रांताओं एवं गैर-मुसलमानों के विरूद्ध धार्मिक युद्ध ‘जेहाद’ को प्रारंभ रखना।
  • देवबंद स्कूल की स्थापना, तत्कालीन संयुक्त प्रांत के सहारनपुर जिले में देवबंद नामक स्थान में 1866 में मोहम्मद कासिम नानोतवी (1832-80) एवं राशिद अहमद गंगोही (1828-1905) ने संयुक्त रूप से की थी। ये दोनों मुस्लिम समुदाय के धार्मिक नेता थे। यह आंदोलन, अलीगढ़ आंदोलन के विरूद्ध था। इसने अलीगढ़ आंदोलन द्वारा मुस्लिम समाज का पाश्चात्यीकरण करने एवं उदार रूख अपनाने के रवैये का कड़ा विरोध किया तथा मुस्लिम समुदाय का नैतिक एवं धार्मिक उत्थान करने की वकालत की। इसने अलीगढ़ आंदोलन के अनुयायियों द्वारा अंग्रेज सरकार का समर्थन करने के कार्य की भी निंदा की।
  • राजनीतिक मोर्चे पर देवबंद स्कूल ने 1888 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन का स्वागत किया तथा सर सैय्यद अहमद खान के संगठन, संयुक्त राष्ट्रवादी संघ एवं मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल एसोसिएशन के खिलाफ फतवा जारी किया। यह आंदोलन सर सैय्यद अहमद खान द्वारा मुस्लिम समाज सुधार हेतु किये जा रहे कार्यों का कड़ा विरोधी था तथा इसने सैय्यद अहमद के प्रयासों को मुस्लिम समाज के लिए आत्मघाती बताया।
  • मुहम्मद-उल-हसन ने अपने नेतृत्व में देवबंद स्कूल के धार्मिक विचारों को नया राजनीतिक एवं बौद्धिक स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने इस्लामिक सिद्धांतों एवं राष्ट्रवादी प्रेरणा के समन्वय हेतु सराहनीय प्रयास किये। बाद में जमात-उल-उलेमा ने हसन के विचारों को नये स्वरूप में ढाला, जिससे कि राष्ट्रीय एकता एवं राष्ट्रवादी उद्देश्यों को क्षति पहुंचाये बिना मुसलमानों के धार्मिक एवं राजनीतिक हितों की रक्षा हो सके।
  • देवबंद स्कूल के एक अन्य समर्थक शिबली नुमानी का मत था कि शिक्षा की पद्धति में अंग्रेजी एवं यूरोपीय विज्ञान का भी सम्मिलन किया जाये। उन्होंने 1894-96 में लखनऊ में नदवाताल उलम एवं दारूल उलम की स्थापना की। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आदर्शों में विश्वास करते थे तथा हिंदू एवं मुस्लिम एकता के समर्थक थे। उनका मत था कि दोनों धर्मों में एकता से ही राष्ट्र में दोनों समुदाय के लोग आपसी सद्भाव से रह सकते हैं तथा प्रगति कर सकते हैं।

 

पारसी सुधार आंदोलन

  • अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त पारसियों के एक समुदाय ने 1851 में ‘रहनुमाई माजदायसन सभा’ गठित की। इसका उद्देश्य पारसी समाज का पुर्नरूद्धार तथा पारसी धर्म की प्राचीन सभ्यता को पुर्नःस्थापित करना था। इस आंदोलन के नेताओं में नौरोजी फरदोनजी, दादाभाई नौरोजी, के.आर. कामा एवं एस.एस. बंगाली प्रमुख थे। इस सभा के संदेशों को पारसियों तक पहुंचाने के लिए एक पत्रिका रास्त गोफ्तार प्रारंभ की गई।
  • पारसी धर्म की मान्यताओं एवं रीति-रिवाजों में इस सभा ने अनेक परिवर्तन एवं सुधार किये। इसने पारसी महिलाओं की स्थिति सुधारने का भी प्रयास किया तथा विभिन्न बुराइयों जैसे-पर्दा प्रथा इत्यादि का विरोध किया। स्त्रियों के विवाह की आयु में वृद्धि तथा स्त्रियों में शिक्षा को बढ़ावा देने की पक्षधर थी। कुछ समय पश्चात भारतीय समाज में पारसी एक नये पाश्चात्य सभ्यता से ओत-प्रोत कारक के रूप में सामने आये।

 

सिख सुधार आंदोलन

  • 19वीं शताब्दी में भारत में चल रहे विभिन्न धर्म एवं समाज सुधार आंदोलनों से सिख समुदाय भी अछूता न रहा सका तथा इसमें भी विभिन्न समाज एवं धर्म सुधार आंदोलन प्रारंभ हुये। 1873 में अमृतसर में सिंह सभा आंदोलन प्रारंभ हुआ। इसके मुख्य दो उद्देश्य थे-
    • सिखों के लिए आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा की उपलब्धता सुनिश्चित करना तथा
    • सिख धर्म के हितों को नुकसान पहुंचाने वाली ईसाई मिशनरियों एवं हिंदू रूढ़िवादियों के विरूद्ध संघर्ष करना।
  • अपने प्रथम उद्देश्य की पूर्ति के लिए सभा ने पूरे पंजाब में खालसा स्कूलों की स्थापना की। लेकिन सिंह सभा के प्रयासों में गतिशीलता तब आयी जब अकाली आंदोलन प्रारंभ हुआ। अकाली आंदोलन, सिंह सभा की ही शाखा थी। अकालियों का मुख्य उद्देश्य गुरूद्वारों का प्रबंध सुधारना था। वे गुरूद्वारों को उन भ्रष्ट उदासी महन्तों से मुक्त कराना चाहते थे, जो सरकारी-संरक्षण की आड़ में विभिन्न प्रकार के भ्रष्ट कार्यों में लिप्त थे। 1921 में अकालियों ने एक नया असहयोग एवं अहिंसक आंदोलन प्रारंभ किया। लेकिन अकालियों को प्रमुख सफलता तब मिली जब 1922 में (1925 में संशोधित) बहुप्रतीक्षित एवं लोकप्रिय ‘सिख गुरूद्वारा एक्ट’ पास हुआ। इस एक्ट द्वारा गुरूद्वारों का प्रबंध सिखों की शीर्ष संस्था ‘शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी’ को सौंप दिया गया।
  • अकाली आंदोलन एक क्षेत्रीय आंदोलन था लेकिन यह साम्प्रदायिक नहीं था। कालांतर में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी समय-समय पर अकाली नेताओं ने ब्रिटिश हुकूमत के विरूद्ध आवाज उठायी तथा राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष में सराहनीय भूमिका अदा की।

 

थियोसोफिकल आंदोलन

  • इस आंदोलन की शुरूआत दो पाश्चात्य बुद्धिजीवियों मैडम एच.पी. ब्लावैटस्की (1831-1891) एवं कर्नल एम.एस. अलकाट ने की। ये दोनों भारतीय विचारों एवं भारतीय संस्कृति से गहरे प्रभावित थे। 1875 में अमेरिका में इन्होंने ‘थियोसोफिकल सोसायटी’ की स्थापना की। किन्तु 1882 में इन्होंने सोसायटी का मुख्यालय मद्रास के निकट अडयार नामक स्थान में परिवर्तित कर दिया।
  • इसके अनुयायी ईश्वरीय ज्ञान को आत्मिक हर्षाेन्माद एवं अंतर्दृष्टि द्वारा प्राप्त करने की कोशिश करते थे। उनका मानना था कि ध्यान, योग एवं चिंतन जैसे माध्यमों द्वारा व्यक्ति की आत्मा को परमात्मा से जोड़ा जा सकता है। वे हिन्दु धर्म के पुर्नजन्म एवं कर्म के सिद्धांत पर भी विश्वास करते थे। उन्होंने उपनिषद, सांख्य, योग एवं वेदांत के विचारों को अति महत्वपूर्ण बताया। सोसायटी का उद्देश्य प्रजाति, नस्ल, लिंग, जाति एवं रंग में भेदभाव किये बिना सभी लोगों के कल्याण के लिए प्रयत्न करना था।
  • इसने प्रकृति एवं मानव शक्ति के अनसुलझे रहस्यों की भी व्याख्या करने का प्रयास किया। सोसायटी ने मुख्यता हिन्दू धर्म की प्राचीन विरासत एवं पहचान को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया।
  • 1907 में कर्नल अलकाट की मृत्यु के पश्चात एनी बेसेंट (1847-1933) इसकी अध्यक्ष चुनी गयीं। एनी बेसेंट की अध्यक्षता में सोसायटी की लोकप्रियता में और ज्यादा वृद्धि हुई। एनी बेसेंट 1893 में भारत आयी। अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए एनी बेसेंट ने बनारस में ‘सेंट्रल हिन्दू स्कूल’ की आधारशिला रखी और उसकी प्रगति के लिए भरसक प्रयत्न किया।
  • इस स्कूल में हिन्दू धर्म एवं पाश्चात्य वैज्ञानिक विषयों की शिक्षा दी जाती थी। यही स्कूल आगे चलकर कालेज और अंततः 1915 में ‘बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय’ में परणित हो गया। एनी बेसेंट ने स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण कार्य किया।
  • थियोसोफिकल सोसायटी ने विभिन्न धर्मों को मजबूत करने की वकालत की तथा शिक्षित हिन्दुओं को हिन्दू धर्म की प्राचीन समृद्ध विरासत से अवगत कराया। किन्तु अपने अर्थपूर्ण उद्देश्यों एवं सराहनीय प्रयत्नों के पश्चात भी थियोसोफिकल सोसायटी किसी ऐसे कार्यक्रम या आंदोलन को जन्म देने में असफल रही, जिसके कि हिन्दू धर्म या समाज में दूरगामी प्रभाव हों।
  • यह किसी बड़े परिवर्तन को अंजाम देने में भी असफल रही। सोसायटी के अनुयायी भी पाश्चात्य वर्ग के रूप में समाज का छोटा हिस्सा ही थे। धार्मिक परिवर्तनवादी के रूप में भी थियोसोफिकल समर्थकों को ज्यादा सफलता हाथ नहीं लगी। लेकिन हिन्दू धर्म की समृद्ध विरासत से लोगों को अगवत कराकर तथा प्राचीन धर्म, दर्शन और विज्ञान की महत्ता प्रतिपादित कर सोसायटी के लोगों के मन में राष्ट्रवाद की प्रेरणा जागृत की। इस प्रेरणा ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष में ब्रिटिश शासन के विरूद्ध आंदोलन करने की चेतना भारतीयों में जागृत की। दूसरे दृष्टिकोण से यह भी माना जाता है कि थियोसोफिकल सोसायटी ने भारतीयों को उनकी परंपरागत रीतिरिवाजों एवं दर्शन में बांधे रखा तथा उनकी समृद्धता का गुणगान करके उनमें मिथ्या गर्व का भाव भर दिया।

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