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Study Material



वायुमण्डलीय दाब पवन

वायुमण्डलीय दाब पृथ्वी पर हवाओं का दबाव है। यह पृथ्वी के धरातल पर पृथ्वी की गुरूवाकर्षण शक्ति के कारण टिका है व अपने भार के कारण पृथ्वी पर दबाव डालता है।

वायुमण्डलीय दबाव का अर्थ है किसी दिए गए स्थान तथा समय पर वहां की हवा के स्तंभ का भार।

इसे बैरोमीटर में प्रति इकाई क्षेत्रफल पर पड़ने वाले बल के रूप में मापते हैं। इसकी इकाई मिलीबार है। एक मिलीबार एक वर्ग सेमी. पर एक ग्राम भार का बल है। एक हजार मिलीबार का वायुमण्डलीय दबाव एक वर्ग सेमी. पर 1.053 किग्रा. भार है, जो पारा के 75 सेमी. ऊँचे स्तंभ के बराबर होता है। पारा के 76 सेमी. ऊँचे स्तंभ का वायुदाब 1013.25 मिलीबार होता है जो समुद्रतल पर वायुदाब है।

बैरोमीटर के पठन में तेजी से गिरावट तूफानी मौसम का संकेत देती है। बैरोमीटर के पठन का पहले गिरना फिर धीरे-धीरे बढ़ना वर्षा की स्थिति का द्योतक है। बैरोमीटर में पठन का लगातार बढ़ना प्रति चक्रवाती और साफ मौसम का संकेत देता है।

निश्चित ऊँचाई पर मानक तापमान एवं वायुदाब

क्र. सं.

स्तर

तापमान (0C में)

वायुदाब (मिलीबार में)

1.

समुद्र तल

15.2

1013.25

2.

1 किमी.

8.7

898.76

3.

5 किमी.

-17.3

540.84

4.

10 किमी.

-49.7

265.00

     वायुमण्डलीय दाब के वितरण को समदाब रेखाओं (आइसोबार) के द्वारा दर्शाया जाता है। यह वह कल्पित रेखा है जो समान वायुदाब वाले स्थानों को मिलाती है। समदाब रेखाओं की परस्पर दूरियां वायुदाब में अंतर की दिशा और उसकी दर को दर्शाती है, जिसे दाब प्रवणता कहते हैं। इसे बैरोमीट्रिक ढाल भी कहा जाता है। पास-पास स्थित समदाब रेखाएं तीव्र दाब प्रवणता का संकेत करती हैं।

          तापमान में अन्तर हवा के घनत्व में परिवर्तन से संबंधित है। चूंकि पृथ्वी पर तापमान का वितरण काफी असमान है, इसी कारण वायुदाब का वितरण भी असमान है। वायुदाब में अन्तर के कारण हवा में क्षैतिज गति आती हैं। इस क्षैतिज गति को पवन कहते हैं। पवन ऊष्मा और आर्द्रता को एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित करते हैं और वृद्धि होने में मदद करते हैं। इसलिए वायुमण्डलीय दाब को मौसम के पूर्वानुमान का एक महत्वपूण्र सूचक माना जाता है।

वायुमण्डलीय दाब का वितरण

ऊर्ध्वाधर वितरण- वायुमण्डल की निचली परतों में हवा का घनत्व व वायुमण्डलीय दाब अधिक होते हैं। ऊँचाई के साथ हवा के दाब में कमी आती है। यद्यपि ऊँचाई और वायुदाब के बीच सीधा संबंध नहीं होता, फिर भी सामान्य रूप से क्षोभमण्डल में वायुमण्डल घटने की औसत दर प्रति 300 मीटर की ऊँचाई पर लगभग 34 मिलीबार है।

क्षैतिज अक्षांशीय वितरण

विषुवतीय निम्न (0-50 उत्तरी एवं दक्षिणी अक्षांश)-यह अत्यधिक निम्न वायुदाब का कटिबंध है। यह तापजन्य निम्न दाब पेटी है। इस कटिबंध में धरातलीय पवन नहीं चलती, क्योंकि इस कटिबंध की ओर जाने वाली हवाएं इसकी सीमाओं के समीप पहुंचते ही गर्म होकर ऊपर उठने लगती है। परिणामस्वरूप इस कटिबंध में केवल उर्ध्वाधर वायुधाराएं ही पाई जाती हैं। वायुमण्डलीय दशाएं अत्यधिक शांत होने के कारण इस कटिबंध को डोलड्रम या शांत कटिबंध कहते हैं।

उपोष्ण उच्च (300-350 उत्तरी एवं दक्षिणी अक्षांश)- इसके निर्माण के लिए तापीय के साथ-साथ गतिक कारक भी उत्तरदायी हैं। विषुवतीय निम्नदाब क्षेत्र से ऊपर उठी हवाएं ऊपरी वायुमण्डल में ध्रुवों की ओर प्रवाहित होती हैं। परन्तु पृथ्वी के घूर्णन बल के कारण ये पूर्व की ओर विक्षेपित होने लगती हैं। इस बल को सबसे पहले फ्रांसीसी वैज्ञानिक कोरिआलिस ने बताया था, इसी कारण इस बल का नाम कारिआलिस बल पड़ा। विषुवत रेखा से बढ़ती दूरी के साथ-साथ इस बल की मात्रा भी बढ़ती है। परिणामस्वरूप ध्रुवों की ओर बढ़ने वाली हवा जब तक 25 डिग्री अक्षांश पर पहुंचती है तब तक इसकी दिशा में इतना अधिक विक्षेप हो चुका होता है कि वह पश्चिम से पूर्व की ओर प्रवाहित होने लगती है एवं आगे आने वाली हवाओं के लिए अवरोधक का कार्य करने लगती है जिसके परिणामस्वरूप हवा वहीं ऊँचाई में जमा होने लगती है।

हवा के क्रमशः ठंडा होने पर इसका घनत्व बढ़ता जाता है एवं भार बढ़ने के कारण हवा वहीं उतरने लगती है। इस प्रकार कर्क और मकर रेखाओं तथा 35 डिग्री उत्तरी व दक्षिणी अक्षांशों के मध्य उच्च वायुदाब कटिबंध का निर्माण हो जाता है। अत्यधिक क्षीण व परिवर्तनशील पवनों के कारण यहां वायुमण्डल बहुत शांत रहता है। इस वायुदाब कटिबंध को अश्व अक्षांश भी कहा जाता है, क्योंकि पुराने जमाने में घोड़ों को ले जाने वाली नौकाओं को यहां की शांत वायुमण्डलीय दशाओं के कारण काफी कठिनाई होती थी एवं नौकाओं का भार हल्का करने के लिए घोड़ों को कभी-कभी समुद्र में भी फेंकना पड़ता था, इसीलिए इस कटिबंध का नमा अश्व अक्षांश पड़ा।

उपध्रुवीय निम्न (600-650 उत्तरी एवं दक्षिणी अक्षांश)-इसके निर्माण में भी गतिक कारक अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। उपोष्ण कटिबंधों और ध्रुवीय क्षेत्रों से आने वाली वायु क्रमशः 45 डिग्री उत्तरी व दक्षिणी अक्षांशों तथा आर्कटिक वृत्तों के मध्य परस्पर टकराती है एवं ऊपर उठ जाती है जिससे यहां निम्न दाब क्षेत्र का निर्माण होता है व चक्रवाती आंधियां आती हैं।

atmos belt

ध्रुवीय उच्च (उत्तरी व दक्षिणी ध्रुवों के निकट)-अत्यधिक निम्न तापमान के कारण यहां वायुमण्डल की ठंडी व भारी हवाएं सतह पर उतरती रहती हैं, परिणामस्वरूप यहां उच्च वायुदाब क्षेत्र का निर्माण होता है।    

       वायुदाब कटिबंधों की स्थिति स्थिर नहीं है। ये वायुदाब कटिबंध सूर्य के आभासी संचरण के कारण गर्मियों में उत्तर की ओर एवं सर्दियों में दक्षिण की ओर खिसकते रहते हैं। सूर्यातप की मात्रा में असमानता एवं जल व स्थल का असमान रूप से गर्म होना भी इनकी स्थिति को प्रभावित करते हैं। सामान्यतः स्थलीय भागों में उच्च दाब क्षेत्र जाड़ों में तथा निम्न दाब क्षेत्र गर्मियों में अधिक प्रभावी रहते हैं।

पवन

वायुदाब में क्षैतिज विषमताओं के कारण हवा उच्च वायुदाब क्षेत्र से निम्न वायुदाब क्षेत्र की ओर बहती हैं। क्षैतिज रूप से गतिशील इस हवा को पवन कहते हैं। यह वायुदाब की विषमताओं को संतुलित करने की दिशा में प्रकृति का प्रयास है।

लगभग उर्ध्वाधर दिशा में गतिमान हवा को वायुधारा कहते हैं। पवन और वायुधाराएं दोनों मिलकर एक चक्रीय प्रक्रिया को पूरा करते हैं, इस संदर्भ में हैडली सेल का उदाहरण लिया जा सकता है।

पृथ्वी के विभिन्न अक्षांशों में परिधि के अन्तर व घूर्णन गति में भिन्नता के कारण पवन दाब प्रणवता द्वारा निर्देशित दिशा में समदाब रेखाओं के समकोण पर नहीं बहता बल्कि अपनी मूल दिशा से विक्षेपित हो जाता है। ऐसा कोरिआलिस बल के प्रभाव के कारण होता है। वायु में गति बढ़ने के साथ-साथ इस बल की मात्रा में भी वृद्धि हो जाती है। ध्रुवों की ओर इसकी मात्रा में वृद्धि होती है। कोरिआलिस बल के प्रभाव के कारण ये वर्ष भर निश्चित दिशा में प्रवाहित होने वाली पवनें हैं। इन्हें प्रचलित स्थायी सनातनी ग्रहीय या भूमण्डलीय पवनों के रूप में जाना जाता हैं। व्यापारिक पवनें पछुआ पवनें व ध्रुवीय पवनें इसी के अन्तर्गत आती हैं।

व्यापारिक पवन

          ये उपोष्ण उच्च वायुदाब कटिबंधों से विषुवतीय निम्न वायुदाब की ओर दोनों गोलोर्धों में निरंतर बहने वाली पवनें हैं। ट्रेड शब्द उत्तरी गोलार्द्ध के पवन अपनी दाहिनी ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध के पवन अपनी बायीं ओर विक्षेपित हो जाते हैं। चूंकि इस विशेषता को फेरल नामक फ्रांसीसी वैज्ञानिक ने सिद्ध किया था। अतः इसे फेरल का नियम कहते हैं।

         ट्रेड जर्मन भाषा के एक शब्द से बना है जिसका अर्थ है, निर्दिष्ट पथ। अतः ट्रेड पवनें एक निर्दिष्ट पथ पर चलने वाली पवनें हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में ये उत्तर पूर्व व्यापारिक पवन के रूप में एवं दक्षिण गोलार्द्ध में दक्षिण पूर्व व्यापारिक पवन के रूप में लगातार बहती हैं। विषुवत रेखा के समीप ये दोनों पवनें टकराकर ऊपर उठती हैं और घनघोर संवहनीय वर्षा करती हैं। महासागरों के पूर्वी भाग में ठंडी समुद्री धाराओं से सम्पर्क के कारण पश्चिमी भाग की व्यापारिक पवनों की अपेक्षा ये शुष्क होती हैं।

पछुआ पवनें

उपोष्ण उच्च वायुदाब कटिबंध से उपध्रुवीय निम्न वायुदाब कटिबंध की ओर चलने वाली पश्चिमी पवनों को पछुआ पवन कहते हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में ये दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व की ओर एवं दक्षिणी गोलार्द्ध में उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व की ओर बहती हैं। पश्चिमी यूरोपीय तुल्य जलवायु के विकास का कारण ये ही हवाएं हैं, जो वहां तापमान वृद्धि व वर्षा का कारक है।

स्थलीय अवरोधों के अभाव के कारण पछुआ पवनों का सर्वश्रेष्ठ विकास दक्षिणी गोलार्द्ध में 40 डिग्री - 65 डिग्री दक्षिणी अक्षांशों के मध्य होता है। इन्हें 40 डिग्री अक्षांश पर गरजती चालीसा, 50 डिग्री अक्षांश पर प्रचंड या भयंकर पचासा तथा 60 डिग्री अक्षांश पर चीखता साठा के नामसे जाना जाता है। ये नाम नाविकों के लिए भयानक हैं और उन्हीं के द्वारा दिए गए हैं।

ध्रुवीय पवनें

ध्रुवीय उच्च वायुदाब से उपध्रुवीय निम्न वायुदाब की ओर बहने वाली पवनें ध्रुवीय पवनें कहलाती हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में इनकी दिशा उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम की ओर एवं दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पश्चिम की ओर हैं। तापमान कम होने से इनकी जलवाष्प धारण करने की क्षमता अत्यंत कम होती है। ये अत्यंत ठंडी व बर्फीली होती है एवं प्रभावित क्षेत्र में तापमान को हिमांक से भी नीचे कर देती है। उपध्रुवीय निम्न वायुदाब कटिबंध में जल पछुआ पवनें इन ध्रुवीय पवनों से टकराती हैं तो ध्रुवीय वाताग्रों का निर्माण होता है जिसके सहारे पर शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति होती है।

मौसमी या सामयिक पवन

          जिन पवनों की दिशा मौसम या समय के अनुसार परिवर्तित हो जाती है, उन्हें सामयिक पवन कहते हैं। पवनों के इस वर्ग में मानसूनी पवनें, स्थल समीर व समुद्र समीर तथा पर्वत समीर व घाटी समीर को शामिल किया जाता है।

1. मानसूनी पवनें

          धरातल की वे सभी पवनें जिनकी दिशा में मौसम के अनुसार पूर्ण परिवर्तन आ जाता है, मानसूनी पवनें कहलाती हैं। इसके संबंध में विस्तृत विवेचन सबसे पहले अरब भूगोलवेत्ता अलमसूदी ने किया था। ये पवनें ग्रीष्म ऋतु के छः माह, समुद्र से स्थल की ओर चलती हैं तथा शीत ऋतु के छः माह, स्थल से समुद्र की ओर इनका प्रवाह होता है। ऐसा स्थल व जल के गर्म होने की अलग-अलग प्रवृत्ति के कारण होता है। इनकी उत्पत्ति कर्क व मकर रेखाओं के बीच की व्यापारिक पवनों की पेटी में होती है। दक्षिणी एवं दक्षिणी-पूर्वी एशिया में इनकी उत्पत्ति की सबसे आदर्श दशाएं मिलती हैं।

mansoon wind

2. स्थल समीर व समुद्र समीर

          दिन के समय निकटवर्ती समुद्र की अपेक्षा स्थल भाग गर्म हो जाने के कारण वहां निम्न वायुदाब की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जबकि समुद्री भाग के अपेक्षाकृत ठंडा के कारण वहां उच्च वायुदाब मिलता है। स्थल की गर्म वायु जब ऊपर उठती है तो समुद्र की आर्द्र तथा ठंडी वायु उस रिक्त स्थान को भरने के लिए स्थल की ओर चलती है, जिसे समुद्र समीर कहते हैं।

          रात्रि के समय स्थिति इसके विपरीत होती है। इस समय स्थलीय भाग के तेजी से ठंडा होने के कारण समुद्र पर स्थल की अपेक्षा अधिक तापमान तथा निम्न वायुदाब मिलता है। फलस्वरूप वायु स्थल से समुद्र की ओर चलती है जिसे स्थल समीर कहते हैं।

ocean and land wind

3. पर्वत समीर घाटी समीर      

          पर्वतीय भागों में दिन के समय पर्वतीय ढलान की वायु अधिक गर्म हो जाती है घाटी की अपेक्षाकृत कम गर्म वायु इसके सहारे ऊपर उठती है। इसे घाटी समीर कहा जाता है। यह वायु ऊपर जाकर ठंडी हो जाती है और कभी-कभी दोपहर को वर्षा करती है। रात्रि के समय पर्वतीय ढाल की वायु विकिरण ऊष्मा में तीव्र हृास के कारण शीघ्र ठंडी होकर भारी हो जाती है तथा पर्वत की ढलान के सहारे नीचे की ओर उतरना शुरू कर देती है। इसे पर्वत समीर कहते हैं।

ghati v parvat wind

स्थानीय पवनें

          ये पवनें तापमान तथा वायुदाब के स्थानीय अन्तर से चला करती हैं और बहुत छोटे क्षेत्र को प्रभावित करती हैं। जहांग गर्म स्थानीय पवन किसी प्रदेश विशेष के तापमान में वृद्धि लाती हैं, वहीं ठंडी स्थानीय पवन कभी-कभी तापमान में हिमांक से भी नीचे कर देती हैं। ये स्थानीय पवनें क्षोभमण्डल की निचली परतों तक ही सीमित रहती है। कुछ प्रमुख स्थानीय पवनें इस प्रकार हैं-

1. चिनूक: इसका अर्थ होता है हिमभक्षी जो रेड इंडियनों की भाषा से ग्रहीत शब्द है। यह रॉकी पर्वत के पूर्वी ढालों के सहारे चलने वाली गर्म तथा शुष्क हवा है, जो दक्षिण में कोलोरैडो के दक्षिणी भाग से लेकर उत्तर में कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया तक प्रवाहित होती है। इसके प्रभाव से बर्फ पिघल जाती है एवं शीतकाल में भी हरी भरी घासें उग आती हैं। यह पशुपालकों के लिए लाभदायक है, क्योंकि इससे चारागाह बर्फमुक्त हो जाता है।

2. फान: यह चिनूक के समान की आल्प्स पर्वत के उत्तरी ढाल के सहारे उतरने वाली गर्म व शुष्क हवा है। इसका सर्वाधिक प्रभाव स्विट्जरलैंड में होता है। इसके आने से बर्फ पिघल जाती है, मौसम सुहावना हो जाता है और अंगूर की फसल शीघ्र पक जाती है।

3. सिराको : यह गर्म, शुष्क तथा रेत से भरी हवा है जो सहारा के रेगिस्तानी भाग से उत्तर की ओर भूमध्यसागर होकर इटली और स्पेन में प्रविष्ट होती है। यहां इनमें होने वाली वर्षा को रक्त वर्षा के नाम से जाना जाता है, क्योंकि यह अपने साथ सहारा क्षेत्र के लाल रेत को भी लाता है। इनका वनस्पतियों, कृषि व फलों के बागों पर विशानकारी प्रभाव पड़ता है। मिस्र, लीबिया, ट्यूनीशिया में सिराको का स्थानीय नाम क्रमशः खमसिन, गिबली, चिली है। स्पेन तथा कनारी व मेडिरा द्वीपों में सिराको का स्थानीय नाम क्रमशः लेवेश व लेस्ट है।

4. ब्लैक रोलर: ये उत्तरी अमेरिका के विशाल मैदानों में चलने वाली गर्म एवं धूलभरी शुष्क हवाएं हैं।

5. योमा: यह जापान सेंटाएना के समान ही चलने वाली गर्म व शुष्क हवा है।

6. टेम्पोरल: यह मध्य अमेरिका में चलने वाली मानसूनी हवा है।

7. सिमूम: अरब के रेगिस्तान में चलने वाली गर्म व शुष्क हवा जिससे रेत की आंधी आती है व दृश्यता समाप्त हो जाती है।

8. सामुन: यह ईरान व इराक के कुर्दिस्तान में चलने वाली स्थानीय हवा है जो फोन के समान विशेषताएं रखती हैं।

9. शामल: यह इराक, ईरान और अरब के मरूस्थलीय क्षेत्र में चलने वाली गर्म, शुष्क व रेतीली पवनें हैं।

10. सीस्टन: यह पूर्वी ईरान में ग्रीष्मकाल में प्रवाहित होने वाली तीव्र पवन हैं।

11. हबूब: उत्तरी सूडान में मुख्यतः खारतूम के समीप चलने वाली यह धूलभरी आंधियां हैं जिनसे दृश्यता कम हो जाती है और कभी-कभी तड़ित झंझा सहित भारी वर्षा होती है।

12. काराबुरान: यह मध्य एशिया के तारिम बेसिन में उत्तर पूर्व की ओर प्रवाहित होने वाली धूल भरी आंधियां हैं।

13. कोइम्बैंग: फोन के समान जावा द्वीप (इंडोनेशिया) में चलने वाली पवनें हैं, जो तम्बाकू आदि फसलों को नुकसान पहुंचाती हैं।

14. हरमट्टन: सहारा रेगिस्तान में उत्तर-पूर्व तथा पूर्वी दिशा से पश्चिमी दिशा में चलने वाली यह गर्म तथा शुष्क हवा है, जो अफ्रीका के पश्चिमी तट की उष्ण व आर्द्र हवा में शुष्कता लाता है, जिससे मौसम सुहावना व स्वास्थ्यप्रद हो जाता है। इसी कारण गिनी तट पर इसे डाक्टर हवा कहा जाता है।

15. ब्रिकफिल्डर: आस्ट्रेलिया के विक्टोरिया प्रान्त में चलने वाली यह उष्ण व शुष्क हवा है।

16. नार्वेस्टर: यह उत्तरी न्यूजीलैंड में चलने वाली गर्म व शुष्क हवा है।

17. लू: यह उत्तर भारत में गर्मियों में उत्तर पश्चिम तथा पश्चिम से पूर्व दिशा में चलने वाली प्रचंड व शुष्क हवा है, जिसे वस्तुतः तापलहरी भी कहा जाता है।

18. सेंटाएना: यह कैलिफोर्निया में चलने वाली गर्म व शुष्क हवा है।

19. जोन्डा: ये अर्जेंटीना और उरूग्वे में एंडीज से मैदानी भागों की ओर चलने वाली कोष्ण शुष्क पवनें हैं। इसे शीत फोन भी कहा जाता है।

20. मिस्ट्रल: यह ठंडी ध्रुवीय हवाएं हैं जो रोन नदी की घाटी से होकर चलती है एवं रूमसागर (भूमध्य सागर) के उत्तर-पश्चिम भाग विशेषकर स्पेन व फ्रांस को प्रभावित करती है। इसके आने से तापमान हिमांक के नीचे गिर जाता है।

21. बोरा: मिस्ट्रल के समान ही यह भी एक शुष्क व अत्यधिक ठंडी हवा है एवं एड्रियाटिक सागर के पूर्वी किनारों पर चलती है। इससे मुख्यतः इटली व यूगोस्लाविया प्रभावित होते हैं।

22. ब्लिजर्ड या हिम झंझावात: ये बर्फ के कणों से युक्त ध्रुवीय हवाएं हैं। इससे साइबेरियाई क्षेत्र, कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका प्रभावित होता है। इनके आगमन से तापमान हिमांक से नीचे गिर जाता है। रूस के टुंड्रा प्रदेश एवं साइबेरिया क्षेत्र में ब्लिजर्ड का स्थानीय नाम क्रमशः पुरगा व बुरान है।

23. नार्टे: ये संयुक्त राज्य अमेरिका में शीत ऋतु में प्रवाहित होने वाली ध्रुवीय पवनें हैं। दक्षिणी संयुक्त राज्य अमेरिका में शीत ऋतु में प्रवाहित होने वाली ध्रुवीय पवनों को नार्दर या नार्दर्न पवनें कहा जाता है।

24. पैंपेरो: ये अर्जेंटीना, चिली व उरूग्वे में बहने वाली तीव्र ठंडी ध्रुवीय हवाएं हैं।

25. ग्रेगाले: ये दक्षिण यूरोप के भूमध्यसागरीय क्षेत्रों के मध्यवर्ती भाग में बहने वाली शीतकालीन पवनें हैं।

26. जूरन: ये जूरा पर्वत (स्विट्जरलैंड) से जेनेवा झील (इटली) तक रात्रि के समय चलने वाली शीतल व शुष्क पवनें हैं।

27. मैस्ट्रो: ये भूमध्यसागरीय क्षेत्र के मध्यवर्ती भाग में चलने वाली उत्तरी-पश्चिमी पवनें हैं।

28. पुना: यह एंडीज क्षेत्र में चलने वाली ठंडी पवन है।

29. पापागायो: यह मैक्सिको के तट पर चलने वाली तीव्र शुष्क और शीतल उत्तर-पूर्व पवनें हैं।

30. पोनन्त: ये भूमध्यसागरीय क्षेत्र में विशेषकर कोर्सिका तट एवं भूमध्यसागरीय फ्रांस में चलने वाली ठंडी पश्चिमी हवाएं हैं।

31. विरासेन: ये पेरू तथा चिली के पश्चिमी तट पर चलने वाली समुद्री पवनें हैं।

32. दक्षिणी बस्र्टर: ये न्यू साउथ वेल्स (आस्ट्रेलिया) में चलने वाली तेज व शुष्क ठंडी पवनें हैं।

33. बाईज: यह फ्रांस में प्रभावी रहने वाली अत्यंत ठंडी व शुष्क पवन है।

34. लेवांटर: यह दक्षिणी स्पेन में प्रभावी रहने वाली अत्यंत शक्तिशाली पूर्वी ठंडी पवनें हैं।

स्थानीय पवनों की विशेषताएं

  • इन पवनों की ऊँचाई अधिक नहीं होती है।
  • इनका नामकरण स्थानीय कारकों तथा महत्व के आधार पर होता है, इसीलिए इनके नाम अलग-अलग होते हैं।
  • इन पर स्थानीय उच्चावच का व्यापक प्रभाव होता है।
  • ये पवनें उष्ण, शीतल, बर्फीली, धूलभरी तथा रेत युक्त आदि प्रकार की होती है।
  • स्थानीय मौसम एवं जलवायु के निर्धारण में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

जेट-स्ट्रीम

ये क्षोभसीमा के निकट चलने वाले अत्यधिक तीव्र गति की क्षैतिज पवनें हैं।

यह मुख्य रूप से  क्षोभमण्डल के ऊपरी परत यानि समतापमण्डल में बहुत ही तीव्र गति से चलने वाली नलिकाकार, संकरी पवन- प्रवाह अथवा वायु प्रणाली हैं। 

जेट-स्ट्रीम  की खोज द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उस समय हुई जब अमेरिकी बमवर्षक जेट विमानों को जापान की ओर उड़ान भरते समय ( पूर्व से पश्चिम की ओर ) पवन के विपरीत रुख का सामना करना पड़ा पड़ रहा था जिस कारण जेट विमानों की गति में अत्यधिक कमी हो रही थी इसके विपरीत लौटते समय ( पश्चिम से पूर्व ) जेट विमानों की गति में आश्चर्य कारक वृद्धि हो गई इसके बाद क्षोभमंडल की ऊपरी सीमा में प्रबल वेग वाली हवाएं पश्चिम से पूर्व दिशा में विसर्पत करती हुई प्रबल वेग से चलने वालीपवन धाराओं का जेट स्ट्रीम नामकरण कर दिया गया ।

यह पश्चिम से पूरब की ओर बहती हैं और ऊपरी वायुमंडल में ये 7 से 12 किमी की ऊँचाई पर होती हैं।

जेट वायुधाराएं लगभग 150 किमी. चौड़ी एवं 2 से 3 किमी. मोटी एक संक्रमण पेटी में सक्रिय रहती हैं।

इन जेट धाराओं की उत्पत्ति का मुख्य कारण पृथ्वी की सतह पर तापमान में अन्तर व उससे उत्पन्न वायुदाब प्रवणता है।

सामान्यतः इनकी गति 150 से 200 किमी. प्रति घंटा रहती है, परन्तु इनकी गति 325 किमी. प्रति घंटा तक भी मिली है। जेट वायुधाराएं सामान्यतः उत्तरी गोलार्द्ध में ही मिलती है। दक्षिणी गोलार्द्ध में सिर्फ दक्षिणी ध्रुवों पर मिलती हैं, यद्यपि हल्के रूप में रास्बी तरंग के रूप में ये अन्य अक्षांशों के ऊपर भी मिलती हैं।  जेट वायुधाराएं चार प्रकार की होती हैं-

1. ध्रुवीय रात्रि जेट स्ट्रीम: यह उत्तरी व दक्षिणी दोनों गोलोर्धों में 60 डिग्री के ऊपरी अक्षांशों में मिलती हैं। ध्रुवीय रात्रि जेट का सम्बन्ध शीतकालीन लम्बी ध्रुवीय रात्रि से है। यह धारा शीतकाल में निर्मित होती हैं तथा ग्रीष्मकाल में समाप्त हो जाती है. लम्बी शीत रातों में ध्रुवों पर सूर्यातप की मात्रा न्यूनतम होती है, जबकि ऊपरी वायुमंडल में समतापमंडल पर्याप्त मात्रा में सूर्यातप प्राप्त करता है. जिस कारण समताप मंडल के क्षेत्र में निम्न वायुदाब प्राप्त होने के कारण पवनों का चक्रीय प्रवाह विकसित होता है, जो ध्रुवों पर न्यून तापमान के कारण पवनों को प्रक्षेपित करता है। समतापमंडल के चक्रीय प्रवाह को ही ध्रुवीय रात्रि जेट धारा कहा जाता है।

jet strm

2. ध्रुवीय वाताग्री जेट स्ट्रीम: यह 30 डिग्री से 70 डिग्री उत्तरी अक्षांशों के मध्य 9 से 12 किमी. की ऊँचाई पर मिलती है। इनका संबंध ध्रुवीय वाताग्रों से है एवं ये तरंग युक्त असंगत पथ का अनुसरण करते हैं। इस जेट स्ट्रीम की गति 150-300 प्रति घंटा एवं वायुदाब 200-300 मिलीबार होता है। चूंकि इस जेट स्ट्रीम के बारे में स्वीडिश वैज्ञानिक रास्बी ने बतलाया था अतः इन्हें रास्बी तरंग भी कहते हैं।

3. उपोष्ण पछुआ जेट: ये 20 डिग्री से 35 डिग्री उत्तरी अक्षांशों के मध्य 10 से 14 किमी. की ऊँचाई पर मिलती है। इनकी गति 340 से 385 किमी. प्रति घंटा तक एवं वायुदाब 200-300 मिलीबार होता है। इनकी उत्पत्ति का मुख्य कारण विषुवत रेखीय क्षेत्र में तापीय संवहन क्रिया के कारण ऊपर उठी हुई हवाओं का क्षोभ सीमा की पेटी में उत्तर-पूर्वी प्रवाह है। भारत में दिसंबर-फरवरी के मध्य पश्चिमी विक्षोभ लाने के लिए यही जेट पवनें जिम्मेदार हैं।

4. उष्णकटिबंधीय पूर्वी जेट स्ट्रीम: जहां अन्य तीन जेट वायुधाराओं की दिशा पश्चिमी होती है, वहीं इस जेट पवन की दिशा उत्तर-पूर्वी होती है। ये सिर्फ उत्तरी गोलार्द्ध में 35 डिग्री से 8 डिग्री अक्षांशों पर ग्रीष्म काल में उत्पन्न होती है। 14 से 16 किमी. की ऊँचाई पर इनकी उत्पत्ति 100 से 150 मिलीबार वायुदाब वाले क्षेत्रों में होती है। इस जेट स्ट्रीम की गति 180 किमी. प्रति घंटा होती है। भारतीय मानसून की उत्पत्ति के लिए यही जेट पवनें उत्तरदायी है। गर्म होने के कारण यह जेट पवन सतही गर्म व आर्द्र हवाओं को ऊपर उठाकर भारत में संवहनीय वर्षा कराती है एवं इस प्रकार भारत में मानसून का प्रस्फोट सा हो जाता है।

       जेट धाराओं की उत्पत्ति  का मुख्य कारण विषुवत रेखीय क्षेत्र तथा ध्रुवों के मध्य तापीय प्रवणता है। इसलिए ग्रीष्म ऋतु की अपेक्षा शीत ऋतु के समय तापीय प्रवणता अधिक होने के कारण जेट धाराओं की तीव्रता भी अपेक्षाकृत अधिक होती है।

जेट धाराओं की उत्पत्ति का संबंध वायुदाब कटिबंध से है, जिसके कारण ही वायुदाब कटिबंध के विस्थापन के साथ जेट धाराओं के स्थान में भी परिवर्तन होता है। मार्च से जून के मध्य इनका उत्तरायण जबकि सितम्बर से दिसम्बर के मध्य दक्षिणायन होता है। उत्तरी गोलार्द्ध की अपेक्षा दक्षिणी गोलार्द्ध में स्थलखण्डों का अभाव होने के कारण समांगी सतह का प्रभाव अधिक होता है जिस कारण से उत्तरी गोलार्द्ध की अपेक्षा स्थायित्व होता है।

विषुवत रेखीय क्षेत्र से ध्रुवों की ओर जाने पर क्षोभ सीमा की ऊँचाई में कमी आने के कारण ही जेट धाराओं की ऊँचाई में भी कमी आती है। यही कारण कि ध्रुवीय वाताग्र जेट स्ट्रीम की ऊँचाई, उष्णकटिबंधीय पश्चिमी जेट स्ट्रीम की अपेक्षा कम होती है।

पृथ्वी का घूर्णन पश्चिम से पूरब की ओर होने के कारण रास्बी तरंग के रूप में जेट धाराओं की दिशा भी पश्चिम से पूर्व होती है। 

वाताग्र

विश्व के विभिन्न भागों में अलग-अलग प्रकार की वायुराशियाँ पाई जाती हैं। ये वायुराशियाँ अपनी उत्पत्ति के स्थानों से अन्य स्थानों तक विचरण करती हैं। वाताग्रों के कारण मौसम में विभिन्न परिवर्तन देखने को मिलते हैं।

  • दो भिन्न स्वभाव वाली वायुराशियोें (ताप, गति, घनत्त्व, आर्द्रता, दिशा आदि विशेषताओं के संदर्भ में) के मिलने से ढलुआ सतह का निर्माण होता है जिसे वाताग्र कहते हैं।
  • दो भिन्न स्वभाव की वायुराशियाँ आपस में मिलकर एक संक्रमणीय क्षेत्र का निर्माण करती हैं जहाँ दोनों वायुराशियों की विशेषताएँ पाई जाती हैं। ऐसे संक्रमणीय क्षेत्र को वाताग्र प्रदेश कहते हैं।
    • वताग्र मुख्यतः मध्य अक्षांशों में ही निर्मित होते हैं।
  • ध्यातव्य है कि वताग्र कुछ कोण पर झुका होता है, जो विषुवत रेखा से ध्रुवों की ओर जाने पर बढ़ता जाता है। ऐसा इसलिये क्योंकि वताग्र का ढाल पृथ्वी की अक्षीय गति पर आधारित होता है।
    • भूमध्य रेखा पर वताग्र का ढाल लगभग शून्य होता है।
  • वताग्र हमेशा वहाँ बनते हैं, जहाँ वायुराशियों के तापमान में सबसे अधिक अंतर पाया जाता है।
    • वताग्र हमेशा अल्प वायुदाब द्रोणियों में स्थित होते हैं।

वाताग्र जनन (Frontogenesis):

  • वाताग्र निर्माण की प्रक्रिया को ‘वाताग्र जनन’ (Frontogenesis) तथा वाताग्र के नष्ट होने की प्रक्रिया को ‘वाताग्र क्षय’ (Frontolysis) कहते हैं।
  • ‘वाताग्र जनन’ एवं ‘वाताग्र क्षय’ की प्रक्रिया से चक्रवात एवं प्रतिचक्रवात का निर्माण होता है। अतः वाताग्र मौसम संबंधी विशिष्ट परिस्थितियों को उत्पन्न करते हैं।
  • वताग्र जनन एवं क्षय से ही चक्रवातों एवं प्रतिचक्रवातों की उत्पत्ति होती है।

वताग्र को प्रभावित करने वाले कारक:

  • ताप एवं आर्द्रता जैसे भौगोलिक कारक वाताग्र जनन को प्रभावित करते हैं यथा ताप एवं आर्द्रता संबंधी दो अलग-अलग गुणों वाली वायुराशियों के मिलने से वाताग्र की उत्पत्ति होती है।
  • इसके अलावा गतिक कारक भी वाताग्र जनन हेतु आवश्यक हैं वस्तुतः विभिन्न वायुराशियों का अपने मूल स्थान से अन्य क्षेत्रों की ओर गतिशील होना आवश्यक है।
    • अर्थात् दो अलग-अलग स्वभाव की वायुराशियों का अभिसरण होना आवश्यक होता है।
    • ध्यातव्य है कि विषुवत रेखा पर भी व्यापारिक पवनों का अभिसरण होता है, परंतु स्वभाव में समानता होने के कारण वताग्रों की उत्पत्ति नहीं होती।
  • वायुराशियों का अभिसरण वताग्रजनन में सहायक तथा वायुराशियों का अपसरण वताग्र जनन में बाधक होता है।

वाताग्रों के प्रकार एवं उनसे संबंधित मौसम:

वाताग्र मुख्यतः चार प्रकार के होते हैं-

1. शीत वताग्र (Cold Front)-

  • जब शीतल व भारी वायु तेज़ी से उष्ण वायुराशियों को ऊपर धकेलती हैं तो शीत वाताग्र का निर्माण होता है।
  • मध्य अक्षांशों में शीत वाताग्र की ढ़ाल प्रवणता 1:25 से 1:100 तक होती है।
  • मौसम-
    • क्योंकि शीत वताग्र का ढाल अधिक होता है इसलिये थोड़े समय में तीव्र वर्षा होती है।
    • इसके अधिक समय तक रूकने पर तड़ित झंझा बन जाते हैं।
    • ध्यातव्य है कि इसके तेज़ी से आगे बढ़ जाने पर मौसम काफी जल्दी साफ हो जाता है।

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2. उष्ण वाताग्र (Warm Front)-

  • जब गर्म वायु राशियाँ तेज़ी से ठंडी वायुराशियों के ऊपर स्थापित होती हैं तो उष्ण वाताग्र का निर्माण होता है। 
  • मध्य अक्षांशों में उष्ण वताग्र की ढ़ाल प्रवणता 1:100 से 1:400 तक होती है।
  • मौसम- 
    • वताग्र का ढाल हल्का होने के कारण वर्षा धीमी, लेकिन लंबे समय तक होती है।
    • उष्ण वताग्र में बादलों का प्रकार कई बार बदलता है। 
    • पक्षाभ मेघ, पक्षाभ स्तरीय मेघ तथा उच्च स्तरीय मेघों का निर्माण होता है।

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3. अधिविष्ट वाताग्र (Occluded front)-

  • जब शीत वाताग्र उष्ण वाताग्र से मिल जाता है तथा गर्म वायु का सतह से संपर्क समाप्त हो जाता है तो अधिविस्ट वाताग्र का निर्माण होता है। 
  • इसमें शीत तथा उष्ण दोनों वताग्र के लक्षण पाए जाते हैं।

Occluded-front

 4.स्थायी वाताग्र (Stationary Front)-

  • स्थाई वाताग्र में दो विपरीत स्वभाव की वायुराशियाँ एक-दूसरे के समानान्तर चलती हैं जिसमें कोई भी वायु ऊपर नहीं उठती। इस प्रकार स्थाई वाताग्र का निर्माण होता है।
    • इससे चक्रवातों का निर्माण नहीं होता है।

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वाताग्र प्रदेश?

दो भिन्न स्वभाव की वायुराशियों के मिलने पर जो संक्रमण क्षेत्र बनता है उसे वाताग्र प्रदेश (Frontal Zone) कहते हैं। विश्व में तीन वाताग्र प्रदेश पाए जाते हैं।

  • आर्कटिक वाताग्र प्रदेश (Arctic Frontal Zone)-
    • आर्कटिक वाताग्र महाद्वीपीय हवाओं तथा ध्रुवीय सागरीय हवाओं के मिलने से बनते हैं।
    • ये वाताग्र अधिक सक्रिय नहीं होते, ऐसा इसलिये, क्योंकि यहाँ मिलने वाली वायुराशियों के तापमान में बहुत कम अंतर पाया जाता है। 
    • इनका विस्तार मुख्यतः यूरोशिया तथा उत्तरी अमेरिका के भागों में होता है।

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  • ध्रुवीय वाताग्र प्रदेश (Polar Frontal Zone)-
    • इन वाताग्र प्रदेशों का निर्माण दोनों गोलार्द्धों में मध्य अक्षांशों (30°से 46°) पर होता है।
    • वस्तुतः इनका निर्माण ध्रुवीय ठंडी वायुराशि तथा उष्ण कटिबंधीय गर्म वायुराशियों के मिलने पर होता है।
    • ये ग्रीष्म ऋतू की अपेक्षा शीत ऋतु में अधिक सक्रिय रहते हैं।
    • उत्तरी प्रशांत महासागर तथा उत्तरी अटलांटिक महासागर में इनका अधिक विस्तार पाया जाता है।
  • अतः उष्ण कटिबधीय वाताग्र प्रदेश (Inter-tropical Frontal Zone)-
    • इन प्रदेशों का विस्तार विषुवत रेखीय निम्न वायुदाब की पेटी में होता है।
    • इनका निर्माण निम्न दाब पर उत्तर-पूर्व एवं दक्षिण-पूर्व व्यापारिक पवनों के मिलने से होता है।
    • व्यापारिक पवनों के अभिसरण से वायु के ऊपर उठने से पर्याप्त वर्षा होती है।
    • ध्यातव्य है कि यह प्रदेश ग्रीष्म ऋतु में उत्तर की ओर तथा शीत ऋतु में दक्षिण की ओर गतिशील होते हैं।

 

चक्रवात

          ये निम्न वायुदाब के केन्द्र हैं जिनके चारों ओर क्रमशः बढ़ते वायुदाब की समदाब रेखाएं होती है। चक्रवात में पवन दिशा परिधि से केन्द्र की ओर होती है। इनकी दिशा उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की सुई की दिशा के विपरीत एवं दक्षिणी गोलार्द्ध में अनुकूल होती है। इनका आकार गोलाकार, अर्द्धगोलाकार, अण्डाकार या 'V' अक्षर के समान होता है। जलवायु व मौसम के निर्धारण में इनका पर्याप्त महत्व होता है। जहां ये पहुंचते है, वहां ये वर्षा व तापक्रम की दशाओं को प्रभावित करते हैं।

चक्रवात दो प्रकार के होते हैं-

(i) शीतोष्णकटिबंधीय

(ii) उष्णकटिबंधीय

शीतोष्णकटिबंधीय चक्रवात

          ये गोलाकार, अण्डकार या V-आकार के होते हैं, जिनके कारण इन्हें लो, गर्त या ट्रफ कहते हैं। आदर्श शीतोष्ण चक्रवात का दीर्घ व्यास 1,920 किमी. होता है परन्तु लघु व्यास 1,040 किमी. तक भी मिलते हैं। कभी-कभी ये चक्रवात 10 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र तक का फैलाव रखते हें। शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात 35 डिग्री से 65 डिग्री अक्षांशों के मध्य दोनों गोलार्धों में उत्पन्न होते हैं, जहां ये पछुआ पवनों के प्रभाव में पश्चिम से पूर्व दिशा में चलते हैं तथा मध्य अक्षांशों के मौसम को बड़े पैमाने पर प्रभावित करते हैं। इनके चलने के मार्ग को झंझा-पथ कहा जाता है। इसकी गति सामान्य रूप से 32 किमी. प्रति घंटे से 48 किमी. प्रति घंटे तक होती है।

उत्पत्ति जीवन चक्र

          इनकी उत्पत्ति का संबंध ध्रुवीय वाताग्रों से जोड़ा जाता है जहां पर दो विपरीत स्वभाव वाली हवाएं (एक ठंडी व शुष्क एवं दूसरी गर्म व आर्द्र) मिलती हैं। इसकी उत्पत्ति हेतु दिए गए सिद्धांतों में बर्कनीज का ध्रुवीय वाताग्र सिद्धांत सर्वाधिक मान्य है। उन्होंने इसके जीवन चक्र को 6 क्रमिक अवस्थाओं में वर्गीकृत किया है।

          प्रथम अवस्था में गर्म और ठंडी वायुराशियां एक दूसरे के समानान्तर चलती है तथा वाताग्र स्थायी होता है। दूसरी अवस्था में दोनों वायुराशियां एक दूसरे के प्रदेश में प्रविष्ट होने का प्रयास करती है तथा लहरनुमा वाताग्र का निर्माण होता है। तीसरी अवस्था में उष्ण एवं शीत वाताग्रों का पूर्ण विकास हो जाता है तथा चक्रवात का रूप प्राप्त हो जाता है। चौथी अवस्था में शीत वाताग्र के तेजी से आगे बढ़ने के कारण उष्ण वृत्तांश संकुचित होने लगता है। पांचवीं अवस्था में चक्रवात का अवसान प्रारंभ हो जाता है तथा छठी या अंतिम अवस्था में उष्ण वृत्तांश विलीन हो जाता है और चक्रवात का अंत हो जाता है।

वायु प्रणाली

          इसके केन्द्र में न्यून दाब होता है जबकि परिधि की ओर अधिक दाब की स्थिति होती है। अतः हवाएं परिधि से केन्द्र की ओर चलती है। परन्तु ये सीधे केन्द्र पर न पहुंचकर कारिआलिस बल और घर्षण के कारण समदाब रेखाओं को 20 डिग्री से 40 डिग्री के कोण पर काटती है, जिससे संचार प्रणाली उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों की विपरीत दिशा में व दक्षिणी गोलार्द्ध में अनुकूल दिशा में हो जाती है।

चक्रवात में मौसम तथा वर्षा

          चक्रवात के भिन्न-भिन्न भागों के गुजरते समय भिन्न-भिन्न मौसम का आभास होता है।

1. चक्रवात का आगमन: आकाश में सबसे पहले पक्षाभ मेघ दिखाई पड़ते हैं एवं चक्रवात के आने पर वायुदाब तेजी से गिरने लगता है। चन्द्रमा व सूर्य के चारों तरफ प्रभामण्डल स्थापित हो जाता है। ऐसा पश्चिम दिशा से बढ़ते पक्षाभ व पक्षाभ स्तरी मेघों के कारण होता है। जैसे-जैसे चक्रवात निकट आता जाता है, बादल काले व घने होने लगते हैं। वायु की दिशा पूर्व से बदलकर दक्षिण-पूर्व होने लगती है।

2. उष्ण वाताग्र प्रदेशीय वर्षा: उष्ण वाताग्र के आने पर मुख्यतः वर्षा स्तरी मेघों के साथ वर्षा होती है। वाताग्र का ढाल हल्का होने के कारण गर्म हवा धीमी गति से ऊपर उठती है तथा विस्तृत क्षेत्र में लम्बे समय तक परन्तु हल्की वर्षा होती है। समस्त आकाश मेघाछन्न रहता है।

3. उष्ण वृत्तांश: उष्ण वृत्तांश के आगमन के साथ ही मौसम में अचानक परिवर्तन हो जाता है। वायु की दिशा पूर्णतः दक्षिणी हो जाती है। आकाश बादल रहित होकर साफ हो जाता है। तापमान तेजी से बढ़ने लगता है तथा वायुदाब कम होने लगता है। वर्षा समाप्त हो जाती है यद्यपि कभी-कभी हल्की फुहार भी पड़ जाती है। मौसम कुल मिलाकर साफ व सुहावना हो जाता है।

4. शीत वाताग्र प्रदेशीय वर्षा: उष्ण वृत्तांश के गुजर जाने पर शीत वाताग्र आ जाता है, जिसके फलस्वरूप तापक्रम गिरने लगता है तथा सर्दी पड़ने लगती है। ठंडी वायु, गर्म वायु को ऊपर धक्का देने लगती है। वायु दिशा में पर्याप्त अंतर हो जाता है। आकाश में काले कपासी वर्षी बादल छा जाते हैं व तीव्र वर्षा प्रारंभ हो जाती है। वाताग्र का ढाल तीव्र होने के कारण गर्म व आर्द्र वायु तेजी से ऊपर उठती है। अतः वर्षा लघु क्षेत्र में अल्प समय तक, परन्तु मूसलाधार होती है। यहां तड़ित झंझा का भी आविर्भाव होता है एवं बिजली की चमक व बादलों की गरज के साथ वर्षा होती है। यदि ऊपर उठने वाली गर्म वायु आर्द्र तथा अस्थिर हो तो वर्षा तीव्र होती है।

5. शीतवृत्तांश: शीत वाताग्र के गुजरने पर शीघ्र ही शीत वृत्तांश का आगमन हो जाता है। मौसम में अचानक परिवर्तन दिखलाई पड़ता है तथा आकाश मेघरहित होकर स्वच्छ हो जाता है। तापक्रम में तेजी से कमी आती है, वायुदाब बढ़ने लगता है एवं प्रतिचक्रवाती दशाएं व्याप्त हो जाती है। वायुमार्ग में 45 डिग्री से 180 डिग्री का परिवर्तन हो जाता है तथा उसकी दिशा प्रायः पश्चिमी हो जाती है।

          चक्रवात के विलीन हो जाने पर उस स्थान पर चक्रवात आने से पहले की दशाएं पुनः स्थापित हो जाती है। चूंकि शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात का व्यापक विस्तार होता है, अतः इसका जो भाग जिस प्रदेश पर होगा वहां वैसी ही मौसमी दशाएं होंगी।

उष्ण कटिबंधीय चक्रवात

          कर्क रेखा व मकर रेखा के मध्य उत्पन्न होने वाले चक्रवातों को उष्ण कटिबंधीय चक्रवात कहा जाता है। निम्न अक्षांशों के मौसम खासकर वर्षा पर इन चक्रवातों का पर्याप्त प्रभाव होता है।

ग्रीष्मकाल में केवल गर्म सागरों के ऊपर इनकी उत्पत्ति अंतर उष्णकटिबंधीय अभिसरण के सहारे उस समय होती है जब यह खिसककर 5 डिग्री से 30 डिग्री उत्तरी अक्षांश तक चली आती है।

इन प्रदेशों की गर्म व आर्द्र पवनें जब संवहनीय प्रक्रिया से ऊपर उठती हैं तो घनघोर वर्षा होती है। इन चक्रवातों की ऊर्जा का मुख्य स्रोत संघनन की गुप्त ऊष्मा है। ऊपर उठने वाली वायु जितनी गर्म व आर्द्र होगी मौसम उतना ही तूफानी होगा।

सामान्य रूप से इन चक्रवातों का व्यास 80 से 300 किमी. तक होता है परन्तु कुछ इतने छोटे होते हैं जिनका व्यास 50 किमी. से भी कम होता है।

इनकी आकृति सामान्यतः वृत्ताकार या अण्डाकार होती है परन्तु इनमें समदाब रेखाओं की संख्या बहुत कम होती है। उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की गति साधारण से लेकर प्रचंड तक होती है। क्षीण चक्रवातों में पवन की गति 32 किमी. प्रति घंटा होती है जबकि हरीकेन में पवन गति 120 किमी. प्रति घंटा से भी अधिक देखी जाती है।

उष्ण कटिबंधीय चक्रवात सदैव गतिशील नहीं होते। कभी-कभी एक ही स्थान पर ये कई दिनों तक वर्षा करते रहते हैं। इनका भ्रमणपथ भिन्न-भिन्न होता है। साधारणतः ये व्यापारिक हवाओं के साथ पूर्व से पश्चिम दिशा में अग्रसर होते हैं। भूमध्यरेखा से 15 डिग्री अक्षांशों तक इनकी दिशा पश्चिमी, 15 डिग्री से 30 डिग्री तक ध्रुवों की ओर तथा इसके आगे पुनः पश्चिमी हो जाती है। ये चक्रवात जब उपोष्ण कटिबंध में पहुंचते हैं तो समाप्त होने लगते हैं।

सागरों के ऊपर इन चक्रवातों की गति तीव्र होती है, परन्तु स्थल तक पहुंचने के क्रम में ये क्षीण होने लगते हैं। यही कारण है कि ये केवल तटीय भागों को ही प्रभावित कर पाते हैं।

तीव्रता के आधार पर इन चक्रवातों को कई उप-प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है। क्षीण चक्रवातों के अन्तर्गत हिंद महासागर व उसकी शाखाओं के उष्णकटिबंधीय विक्षोभ व अवदाब शामिल किए जाते हैं, जिनकी गति 40-50 किमी. प्रति घंटा होती है। इन्हें भारत में चक्रवात, गर्त या अवदाब कहा जाता है। आस्ट्रेलिया में इनका नाम विली-विली है।

इनसे प्रभावित क्षेत्रों में भारी वर्षा होती है व बाढ़ आ जाती है। प्रचंड चक्रवात कई समदाब रेखाओं वाले विस्तृत चक्रवात होते हैं, जिनकी गति 120 किमी. प्रति घंटा से भी अधिक होती है, परन्तु कम संख्या में आने के कारण इनका जलवायुविक महत्व नगण्य होता है। वायु-प्रणाली, आकार तथा वर्षा के संबंध में ये लगभग शीतोष्ण चक्रवात की भांति दिखाई पड़ते हैं, परन्तु इनके बीच कुछ मौलिक अन्तर हैं। सामान्यतः इनकी समदाब रेखाएं अधिक सुडौल होती है।

इन चक्रवातों के केन्द्र में वायुदाब बहुत कम होता है। दाब प्रवणता अधिक (10-55 mb) होने के कारण ये प्रचंड गति से आगे बढ़ते हैं। इनमें वाताग्र नहीं होते, अतः वर्षा का असमान वितरण भी नहीं होता।

चक्रवात के चक्षु को छोड़कर वर्षा हर जगह व मूसलाधार होती है। संयुक्त राज्य अमेरिका में इन्हें हरीकेन, चीन व फिलीपींस में टाइफून एवं जापान में टाइफून तथा भारत में चक्रवात कहा जाता है। कहा जाता है कि बंगाल की खाड़ी में आने वाले सुपर साइक्लोन की गति 225 किमी. प्रति घंटा होती है तथा इनमें केन्द्र व परिधि के बीच वायुदाब का अन्तर (40-55 mb) रहता है।

टोरनैडो

          यह मुख्य रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका एवं गौण रूप से आस्ट्रेलिया में उत्पन्न होते हैं। ये आकार की दृष्टि से लघुतम व प्रभाव की दृष्टि से सबसे प्रलयकारी उष्णकटिबंधीय चक्रवात हैं। इनकी आकृति कीपाकार होती है। ऊपर का चौड़ा भाग कपासी-वर्षी मेघ से जुड़ा होता है। केन्द्र में वायुदाब न्यूनतम होता है। केन्द्र व परिधि के वायुदाब में इतना अधिक अंतर होता है कि हवाएं 800 किमी. प्रति घंटे तक की रफ्तार से प्रवाहित होती है। जब टारनेडो के कीपाकार बादलों का निचला भाग धरातल से छूकर चलता है तो मिनटों में महान विनाश हो जाता है। इन चक्रवातों में तापक्रम संबंधी विभिन्नता नहीं होती क्योंकि इनमें विभिन्न वाताग्र नहीं होते।

उष्णकटिबंधीय चक्रवात में मौसम

          इनके आने के पहले वायु मंद पड़ने लगती है, तापमान में वृद्धि लगती है व वायुदाब में कमी आने लगती है। आकाश पर पक्षाभ मेघ दिखने लगता है। सागर में ऊँची तरंगें उठने लगती हैं। जैसे ही हरीकेन नजदीक आ जाता है, हवाएं तूफानी रूप धारण कर लेती हैं।

आकाश में काले कपासी-वर्षी मेघ छाने लगते हैं तथा मूसलाधार, भीषण वर्षा प्रारंभ हो जाती है। आकाश पूरी तरह से मेघाच्छादित हो जाता है। दृश्यता समाप्त हो जाती है। यह स्थिति कुछ घंटों तक रहती है। इसके बाद अचानक वायु गति मंद हो जाती है। आकाश मेघ रहित व साफ हो जाता है एवं वर्षा रूक जाती है। यह लक्षण चक्रवात के चक्षु का परिचायक है। यहां वायुदाब न्यूनतम होता है। यह अवस्था लगभग आधे घंटे तक रहती है। इसके बाद चक्रवात का पृष्ठ भाग आ जाता है व घनघोर वर्षा प्रारंभ हो जाती है। यह दशा लम्बे समय तक बनी रहती है। जैसे-जैसे चक्रवात आगे बढ़ता जाता है, वायुदाब बढ़ता जाता है, वायु वेग मंद पड़ने लगता है तथा बादलों का आवरण हल्का होते जाने से वर्षा क्षीण हो जाती है। चक्रवात के आगे निकल जाने पर आकाश से बादल छँट जाते हैं तथा मौसम साफ हो जाता है।

वितरण:

          ये चक्रवात मुख्य रूप से 5 डिग्री से 15 डिग्री अक्षांशों के मध्य दोनों गोलार्धों में सागरों के ऊपर पाए जाते हैं तथा महाद्वीपों के तटीय भागों को प्रभावित करने के बाद समाप्त हो जाते हैं। उष्णकटिबंधीय भागों में उष्णकटिबंधीय चक्रवातों का कोई न कोई रूप अवश्य देखने को मिलता है। परन्तु ये दक्षिणी अटलांटिक महासागर, दक्षिण पूर्व प्रशान्त महासागर एवं भूमध्य रेखा के दोनों ओर 5 डिग्री अक्षांशों के मध्य बिल्कुल नहीं देखे जाते।

भारत में उष्ण-कटिबंधीय चक्रवात

          उष्ण-कटिबंधीय चक्रवात कर्क रेखा एवं मकर रेखा के बीच उत्पन्न होने वाले चक्रवात हैं। इनकी तीव्रता सामान्य से लेकर काफी अधिक भी हो सकती है। इनमें पवन वेग 30 किमी. प्रति घंटे से लेकर 225 किमी. प्रति घंटे तक होती है। इनकी उत्पत्ति उष्णकटिबंधीय सागरीय भागों पर गर्मियों में होती है जब तापमान 27 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो। अत्यधिक वाष्पीकरण के कारण आर्द्र हवाओं के ऊपर उठने से इनका निर्माण होता है। उष्णकटिबंधीय चक्रवातों को ऊर्जा, संघनन की गुप्त ऊष्मा से मिलती है। परिणामस्वरूप आकाश में काले कपासी मेघ छा जाते हैं तथा घनघोर वर्षा होती है।

          उष्ण-कटिबंधीय चक्रवात अपने निम्न दाब के कारण ऊँची सागरीय लहरों का निर्माण करते हैं एवं अगर इनकी प्रभाविता अधिक हो, तो ये तटीय भागों में व्यापक विनाश करते हैं। इन चक्रवातों का मुख्य प्रभाव तटीय भागों में ही हो पाता है, क्योंकि उसके पश्चात इनकी ऊर्जा स्रोत अर्थात संघनन की गुप्त ऊष्मा में हृास होता चला जाता है।

          भारत में अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में उत्पन्न होने वाले अवदाबों का प्रभाव सामान्य बात है। ये अप्रैल से नवंबर के बीच आते हैं। सामान्य रूप से इनकी गति 40-50 किमी. प्रति घंटा होती है परन्तु कभी-कभी तीव्रता के अधिक होने के कारण ये विनाश का कारण बनते हैं। इस संदर्भ में कांडला में आए चक्रवात एवं ओडिशा के चक्रवातों को देखा जा सकता है। ओडिशा में आए उष्णकटिबंधीय चक्रवात को सुपर साइक्लोन का दर्जा दिया गया था, क्योंकि चक्रवात के केन्द्र एवं परिधि के वायुदाब का अन्तर 40-55 mb तक का था एवं पवन गति 225 किमी./घंटा से भी अधिक थी।

          वर्तमान समय में इन चक्रवातों के पूर्वानुमान के लिए भारत में तीन तरह के उपाए किए जा रहे हैं-

1. कुल 10 रडार लगाए गए हैं (पूर्व में 6 और पश्चिम में 4) इनसे तटीय भागों एवं जहाजों को समय-समय पर इन चक्रवातों के वायुदाब व गति संबंधी जानकारी मिलती रहती है।

2. हवाई जहाजों के द्वारा भी रेडियो तरंगों को भेजकर चक्रवातों के क्रियाविधि संबंधी जानकारी प्राप्त कर इनके बारे में पूर्वानुमान लगाया जाता है।

3. उपग्रहों के द्वारा और भी सूक्ष्मतर तरीकों से इन चक्रवातों के संबंध में जानकारी प्राप्त की जाती है।

          इस प्रकार, वर्तमान समय में कम से कम 48 घंटे पहले इन चक्रवातों की सूचना दी जा रही है। परन्तु महाचक्रवात के आने पर चक्रवात के प्रभाव की जानकारी दे पाना आसान नहीं रहता। चक्रवात के आने की जानकारी मछुआरों को और तटीय क्षेत्र के निवासियों को मौसम विभाग से प्राप्त सूचना के आधार पर पूर्व में ही दे दी जाती है, परन्तु उस पर उनके द्वारा अधिक ध्यान नहीं दिए जाने के कारण अधिक नुकसान उठाना पड़ जाता है।

 

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प्रतिचक्रवात

          यह भी हवाओं का चक्रीय प्रवाह है, परन्तु चक्रवात के विपरीत इसके केन्द्र में उच्च वायुदाब रहता है। इसमें परिधि से बाहर की ओर क्रमशः घटते वायुदाब की संकेन्द्रीय समदाब रेखाएं होती हैं। परिणामस्वरूप वायु का प्रवाह केन्द्र से परिधि की ओर होता है। अतः प्रतिचक्रवात किसी क्षेत्र में उच्चदाब क्षेत्र का निर्माण करता है तथा साफ मौसमी दशाओं को संकेतिक करता है।

चूंकि प्रतिचक्रवात में हवाएं ऊपर से नीचे की ओर अवतलित होती है। इसीलिए इसके केन्द्रीय भाग में मौसम साफ रहता है व वर्षा की संभावना नहीं रहती। प्रतिचक्रवातों में केन्द्र और परिधि के बीच दाब-प्रवणता 10 से 20 मिलीबार से अधिक नहीं होता।

इसीलिए प्रतिचक्रवातों में पवन गति प्रायः 30-50 किमी. प्रति घंटे होती है। प्रतिचक्रवातों के मार्ग व दिशा में निश्चितता का अभाव होता है। सामान्य रूप से प्रतिचक्रवातों में पवन दिशा उत्तरी-गोलार्द्ध में दाहिनी ओर एवं दक्षिणी गोलार्द्ध में बायीं ओर होती है।

प्रतिचक्रवात का आकार काफी बड़ा होता है। कभी-कभी इसका व्यास 9,000 किमी. तक होता है।

प्रतिचक्रवात के प्रकार (Types of Anticyclone)

1. शीत प्रतिचक्रवात : आर्कटिक क्षेत्रों में शीतकाल में विकिरण द्वारा अत्यधिक ताप ह्रास होने तथा कण सूर्यातप मिलने के कारण उच्च दाब बन जाता है जिससे शीत प्रति चक्रवात उत्पन्न हो जाते हैं। कनाडा के उत्तर में उत्पन्न प्रतिचक्रवात कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका को प्रभावित करते हैं। साइबेरिया के उत्तर में उत्पन्न प्रतिचक्रवात चीन, जापान को प्रभावित करते हैं।

2. गर्म प्रतिचक्रवात : इन चक्रवातों की उत्पत्ति उपोष्ण उच्च वायुदाय पेटी में होती है, क्योंकि जो हवाएँ क्षोभसीमा से नीचे की ओर उतरती हैं, संपीड़न के कारण पृथ्वी के धरातल पर उच्च वायुदाब स्थापित करती हैं, इसी से हवाओं का अपसरण होता है। उपोष्ण कटिबंध होने के कारण सूर्यातप ज्यादा होता है जिससे अनुकूल गर्म प्रतिचक्रवाती स्थित पैदा होती है। ये प्रतिचक्रवात दक्षिण-पूर्वी संयुक्त राज्य अमेरिका तथा पश्चिमी यूरोप को अधिक प्रभावित करते हैं।

पुनः हफ्री (Humphrey) ने प्रतिचक्रवातों को तीन प्रकार में विभाजित किया है।

1. यांत्रिक प्रतिचक्रवातः वायु को संवहन गति से ऊपर उठी वायु जब 30 से 35° अक्षांशों के मध्य दोनों ही गोलाद्ध में अवतलित होती है तब इस क्षेत्र में यात्रिक प्रतिचक्रवात निर्मित होते हैं।

2. विकिरित प्रतिचक्रवात : ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका में हमेशा अधिक ऊँचाई तथा मुक्त विकिरण के कारण उच्च वायुदाब की स्थित बनी रहती है। इस कारण यहाँ एक अस्थायी प्रतिचक्रवात का केंद्र बना रहता है।

3. तापीय प्रतिचक्रवात : यह एक अस्थायी स्वभाव वाला प्रतिचक्रवात है। इसकी उत्पत्ति ठंडी जलधाराओं द्वारा समुद्र के सतह के तापमान को कम कर देने के कारण उत्पन्न हुए उच्चदाब से होता है। बरमूडा तथा न्यूजीलैंड को छोड़कर यांत्रिक प्रतिचक्रवात का क्षेत्र तापीय प्रतिचक्रवात का भी क्षेत्र है।

 

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