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प्रवासी भारतीय की नागरिकता संबंधी नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2003

प्रवासी भारतीयों विदेश में बसे भारतीय मूल के लोगों को दोहरी नागरिकता प्रदान करने के उद्देश्य से संसद द्वारा अधिनियम, 1955 में संशोधन किया गया है। इसके लिए नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2003 को राज्यसभा  ने 8 दिसम्बर, 2003 को और लोकसभा ने 22 दिसंबर 2003 को सर्वसम्मति से पारित किया है। यह विधेयक लक्ष्मीमल सिंघवी की अध्यक्षता वाली समिति की सिफारिशों के आधार पर तैयार किया गया था।

नागरिकता अधिनियम, 1955 में संशोधन करके 16 देशों में बसे भारतीय मूल के लागो को उनकी विदेशी नागरिकता के साथ भारत की ओवरसीज नागरिकता प्रदान करने  का प्रावधान किया गया है। इन 16 देशों में स्विट्जरलैंड, आस्ट्रेलिया, कनाडा, पुर्तगाल, फांस, स्वीडन, न्यूजीलैंड, यूनान, साइप्रस, इटली, फिनलैण्ड, आयरलैण्ड, नीदरलैण्ड, ब्रिटेन सं. रा. अमेंरिका शामिल हैं देशों की इस सूची का बाद में विस्तार किया जाएगा। ऐसी दोहरी नागरिकता प्राप्त करने वाले भारतीय मूल के व्यक्तियों को भारत में आने-जाने की स्वतंत्रता होगी, किन्तु संवैधानिक पद को प्राप्त करने का भी अधिकार नहीं होगा इसके अतिरिक्त सार्वजनिक नौकरियों को लिए संविधान के अनुच्छेद 16 में प्रदत्त अवसर की समानता का अधिकार भी इन्हें प्राप्त नहीं होगा।

भारतीय नागरिकता की समाप्ति

भारतीय नागरिकता निम्नलिखित प्रकार से समाप्त होती हैः-

1.अन्य देशों की नागरिकता स्वीकार करने पर ,

2.नागरिकता का परित्याग करने पर,

3.सरकार द्वारा नागरिकता छीनने पर।

किसी राज्य में स्थायी निवास करने पर लाभ - भारत में एकल नागरिकता है और नागरिकों के किसी राज्य में निवास के आधार पर नागरिकों के सम्बन्ध में कोई भेद नहीं किया जा सकता है लेकिन किसी राज्य में स्थायी निवास के कुछ मामलों में लाभ हो सकता है। यह लाभ दो प्रकार से प्रदान किया जा सकता है-

1.संसद द्वारा कानून बनाकर- संविधान के अनुच्छेद 16 (3) के अधीन संसद को यह अधिकार प्रदान किया गया है कि वह किसी राज्य या संघ राज्य क्षेत्र की सरकार के या उसमें के किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी के अधीन आने वाले किसी वर्ग या वर्गो के पर नियोजन या नियुक्ति के सम्बन्ध में ऐसे नियोजन या नियुक्ति से पहले उस राज्य या संघ राज्य क्षेत्र के भीतर निवास सम्बन्धी योग्यता की अपेक्षा नियत कर सकती है।केवल नागरिकों को प्राप्त कुछ विशेष अधिकार

  • 1.अनुच्छेद 15,16,19, और 29 के द्वारा प्रदत्त मूल अधिकार।
  • 2.विदेशी राज्य से उपाधि प्राप्त करने पर प्रतिबंध।
  • 3.कुछ महत्वपूर्ण संवैधानिक पद, यथाः राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश, उच्च न्यायालय का न्यायाधीश, राज्यपाल, महान्यायवादी, महाधिवक्ता आदि पर नियुक्त का अधिकार।
  • 4.लोकसभा और राज्य विधान सभा के लिए मतदान करने की पात्रता।
  • 5.संसद या राज्य विधानमंडल के सदस्य होने के लिए अर्हता।

 

इस अधिकार के प्रयोग में संसद ने लोक नियोजन (निवास की अपेक्षा) अधिनियम, 1957 पारित करके केन्द्र सरकार को आन्ध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर तथा त्रिपुरा में अराजपत्रित पदों में नियुक्ति के लिए अधिवास की अपेक्षा यह विहित करने के लिए नियम बनाने की शक्ति दी थी। बाद में 1974 में इस अधिनियम को संसद द्वारा निरस्त कर दिया गया। संसद ने इस अधिकार का प्रयोग करके कोई अधिनियम नहीं बनाया। इसलिए वर्तमान स्थिति यह है कि किसी भी व्यक्ति को किसी भी राज्य में इस आधार पर नियोजन से वंचित नहीं किया जा सकता कि वह उस राज्य का निवासी नहीं है।

राज्य विधानमंडल द्वारा कानून बनाकर- कोई राज्य अपने राज्य के निवासियों के लाभ के लिए कोई कानून बना सकता है क्योंकि संविधान के अनु0-15 (1) में केवल, धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद को प्रतिषिद्ध किया गया है। इसमें निवास स्थान का उल्लेख नहीं है। इस प्रकार संविधान भी यह अनुमति देता है कि राज्य संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों से भिन्न विषयों में अपने निवासियों को लाभ प्रदान कर सकता है। उच्चतम न्यायालय ने भी इसका समर्थन करते हुए कहा कि अनुच्छेद 15 में निवास स्थान के आधार पर विभेद को प्रतिषिद्व नही किया गया है, इसलिए राज्य अपने राज्य के शिक्षण संस्थानों में फीस आदि के संबन्ध में अपने निवासिंयों को रियायत दे सकता है।

जम्मू-कश्मीर राज्य को अपने निवासियों को अधिकार तथा विशेषाधिकार प्रदान करने की शक्ति

  • जम्मू-कश्मीर राज्य के विधान मण्डल को निम्नलिखित विषयों के सम्बन्ध में राज्य में स्थायी रूप से निवास करने वाले व्यक्तियों को अधिकार तथा विशेषाधिकार प्रदान करने की शक्ति प्रदान की गयी है |
  • राज्य के अधीन नियोजन के सम्बन्ध में
  • राज्य के अचल सम्पत्ति के अर्जन के सम्बन्ध में,
  • छात्रवृत्तियों अथवा इसी प्रकार की सहायता, जो राज्य सरकार प्रदान करे, के संबन्ध में।

 

 

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