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भारत में दलीय व्यवस्था

भारत में दलीय व्यवस्था के निम्नलिखित गुण-धर्म है -

बहुदलीय व्यवस्था

देश का विशाल आकार, भारतीय समाज की विभिन्नता, सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की ग्राह्यता, विलक्षण राजनैतिक प्रक्रियाओं तथा कई अन्य कारणों से कई प्रकार के राजनीतिक दलों का उदय हुआ है। वास्तव में विश्व में भारत में सबसे ज्यादा राजनैतिक दल हैं। वर्तमान में (2009), देश में सात राष्ट्रीय दल, 40 राज्य स्तरीय दल तथा 980 गैर-मान्यता प्राप्त पंजीकृत दल है। इसके अलावा भारत में सभी प्रकार के राजनैतिक दल है-वामपंथी दल, केंद्रीयदल  दक्षिण पंथी दल, सांप्रदायिक दल, तथा गैर सांप्रदायिक दल आदि। परिणामस्वरूप त्रिसंकु संसद और त्रिसंकु विधान सभा तथा साझा सरकार का गठन एक सामान्य बात है ।

एकदलीय व्यवस्था

अनेक दल व्यवस्था के बावजूद भारत में एक लंबे समय तक कांग्रेस का शासन रहा । अतः श्रेष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रजनी कोठारी ने भारत में एक दलीय व्यवस्था को एक दलीय शासन व्यवस्था अथवा कांग्रेस व्यवस्था  कहा। कांग्रेस के प्रभावपूर्ण शासन में 1967 से क्षेत्रीय दलों के तथा अन्य राष्ट्रीय दलों जैसे-जनता पार्टी (1977), जनता दल (1989) तथा भाजपा (1991) जैसी प्रतिद्वंद्विता पूर्ण पार्टियों के उदय और विकास के कारण कमी आनी शुरू हो गई थी।

स्पष्ट विचारधारा का अभाव

भाजपा तथा दो साम्यवादी दलों (सीपीआई और सीपीएम) को छोड़कर अन्य किसी दल की कोई स्पष्ट विचारधारा नहीं है । अन्य सभी दल एक दूसरे से मिलती जुलती विचारधारा रखते है । उनकी नीतियों और कार्यक्रमों में काफी हद तक समानता है । लगभग सभी दल लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, और गांधीवाद की वकालत करते हैं। इसके अलावा सभी दल जिनमें तथा कथित विचार धारावाद दल भी शामिल है, केवल शक्ति प्राप्त से ही प्रेरित हैं। अतः राजनीति विचारधारा के बजाय मुद्दो पर आधारित हो गयी है और फलवादिता ने सिद्वांतो का स्थान ले लिया है ।

व्यक्तित्व का महिमामंडन

बहुधा दलों का संगठन  एक श्रेष्ठ व्यक्ति के चारो ओर होता है जो दल तथा उनकी विचारधारा से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। दल अपने घोषणा पत्रों की बजाय अपने नेताओं से पहचाने जाते हैं। यह भी एक तथ्य है कि कांग्रेस की प्रसिद्व अपने नेताओं जवाहरलाल नेहरू, इन्दिरागांधी तथा राजीव गांधी की वजह से है। इसी प्रकार तमिलनाडु में एआईएडीएमके तथा आंध्रप्रदेश में तेलगू देशम पार्टी ने एम0जी0 रामाचंद्रन तथा एन0टी0 रामाराव से अपनी पहचान प्राप्त की । यह भी रोचक है कि कई दल अपने नाम में अपने नेताओं का नाम इस्तेमाल करते हैं। जैसे-बीजू जनता दल, लोकदल (ए), कांग्रेस (आई) आदि अतः ऐसा कहा जाता है कि भारत में राजनैतिक दलों के स्थान पर राजनैतिक व्यक्तित्व है।

पारंपरिक कारकों पर आधारित

पश्चिमी देशों में राजनैतिक दल सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक कार्यक्रमों के आधार पर बनते हैं। दूसरी ओर भारत में अधिसंख्यक दलों का गठन धर्म,जाति, भाषा, संस्कृति और नस्ल आदि के नाम पर होता है। उदाहरण के लिए शिव सेना, मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा,अकाली दल, मुस्लिम मजलिस, बहुजन समाज पार्टी , रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया, गोरखा लीग आदि । ये दल सांप्रदायिक तथा क्षेत्रिय हितों को बढ़ावा देने के लिए कार्य करते हैं और इस कारण सार्वजनिक हितों की अनदेखी करते हैं।

क्षेत्रीय दलों का उद्भव

भारत की दलीय व्यवस्था का एक दूसरा प्रमुख लक्षण राज्य स्तरीय दलों का उदय और उनकी बढ़ती भूमिका है, कई प्रदेशों में वे सत्तारूढ़ दल हैं, जैसे-उड़ीसा  में बीजेडी, आंध्र प्रदेश में तेलगूदेशम पार्टी तमिलनाडु में डीएमके या एआईएडीएमके, पंजाब में अकाली दल, असम में असम गण परिषद, जम्मू कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस, बिहार में जनता दल, आदि। प्रारंभ में वे क्षेत्रीय राजनीति तक ही सीमित थे किन्तु कुछ समय से केंद्र में साझा सरकारों के कारण राष्ट्रीय स्तर पर इनकी भूमिका महत्वपूर्ण हो गयी है। 1984 में तेलगू देशम पार्टी लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल के रूप में उभरा था।

दल बनाना तथा दल-परिवर्तन

भारत में दल बनाना, दल परिर्वतन, टूट, विलय, विखराव, ध्रवीकरण आदि राजनैतिक दलों की कार्यशैली का महत्वपूर्ण रूप है । सत्ता की लालसा तथा भौतिक वस्तुओं की लालसा के कारण राजनीतिज्ञ अपना दल छोड़कर दूसरे दल में शामिल हो जाते है या नया दल बना लेते हैं। चौथे आम चुनाव (1967) के बाद दल-परिवर्तन में काफी तेजी आयी। इस घटना ने केंद्र तथा राज्य दोनों में राजनीतिक अस्थिरता पैदा की, तथा दलों के विघटन को बढ़ावा मिला। अतः दो जनता दल, दो तेलगू देशम पार्टी, दो डीएमके दो कम्यूनिष्ट दल, तीन अकाली दल, तीन मुस्लिम लीग आदि बनें।

प्रभावशाली विपक्ष का अभाव

भारत में प्रचलित संसदीय लोकतंत्र की सफलता के लिए प्रभावपूर्ण विपक्ष अत्यंत आवश्यक है । यह सत्तारूढ़ दल की निरंकुश शासन की प्रवृत्ति पर रोक लगाता है और वैकल्पिक सरकार देता है किन्तु पिछले पचास वर्षो में कुछ अवसरों को छोड़कर देखा जाये तो ज्ञात होता है कि देश में सशक्त, प्रभावशाली एवं जागरूक बिपक्ष का अभाव ही रहा है। विपक्षी दलों में एकता का अभाव है और बहुधा वह सत्तारूढ़ दलों के संदर्भ में आपसी विवाद में उलझ जाते हैं। वे राष्ट्र निर्माण तथा राजनैतिक क्रियाओं  में सृजनात्मक भूमिका निभाने में असफल रहे हैं।

राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय दलों को मान्यता

  • निर्वाचन आयोग, निर्वाचन के प्रयोजनों हेतु राजनीतिक दलों को पंजीकृत करता है, और उनकी चुनाव निष्पादनता के आधार पर उन्हें राष्ट्रीय या राज्यस्तरीय दलों के रूप में मान्यता देता है अन्य दलों को केवल पंजीकृत-गैर मान्यता प्राप्त दल घोषित किया जाता है ।
  • आयोग द्वारा दलों को प्रदान की गई मान्यता उनके लिए कुछ विशेषाधिकारों के अधिकार का निर्धारण करती है, जैसे-चुनाव चिन्ह का आवंटन, राज्य नियंत्रित टेलीविजन और रेडियो स्टेशनों पर राजनीतिक प्रसारण हेतु समय का उपबंध और निर्वाचन सूचियों को प्राप्त करने की सुविधा।
  • प्रत्येक राष्ट्रीय दल को एक चुनाव चिन्ह प्रदान किया जाता है जो सम्पूर्ण देश में विशिष्ट : उसी के लिए आरक्षित होता है। दूसरी ओर, कोई पंजीकृत गैर-मान्यता प्राप्त दल शेष चुनाव चिन्हों की सूची में से चिन्ह का चुनाव कर सकता है । दूसरे शब्दों में आयोग कुछ चिन्हों को आरक्षित चिन्हों, के रूप में निर्धारित करता है, जो मान्यता प्राप्त दलों के अभ्यर्थियों हेतु होते हैं और अन्य शेष चिन्ह, अन्य अभ्यर्थियों हेतु होते है ।

 राष्ट्रीय दलों के रूप में मान्यता के लिये दशायें

वर्तमान में (2009), एक दल को राष्ट्रीय दल के रूप में तब मान्यता दी जाती है, जब वह निम्नलिखित अर्हताएं पूर्ण करता हो-

1.यदि वह लोकसभा अथवा विधानसभा के आम चुनावों में चार अथवा अधिक राज्यों में वैध मतों का छह प्रतिशत मत प्राप्त करता है तथा इसके साथ वह किसी राज्य या राज्यों से लोकसभा में 4 सीट प्राप्त करता है ।

2.कोई दल राष्ट्रीय दल की मान्यता प्राप्त करता है यदि वह लोकसभा में दो प्रतिशत स्थान जीतता है तथा ये सदस्य तीन विभिन्न राज्यों से चुने जाते हैं।

3.यदि कोई दल कम से कम चार राज्यों में राज्यस्तरीय दल के रूप में मान्यता प्राप्त हो।

राज्यस्तरीय दलों की मान्यता के लिए दशायें

वर्तमान में (2009), एक दल को राज्यस्तरीय दल के रूप में तब मान्यता दी जाती है, जब वह निम्नलिखित अर्हताएं पूर्ण करता हो-

1.यदि उस दल ने राज्य की विधान सभा के आम चुनाव में उस राज्य से हुए कुल वैध मतों का छह प्रतिशत प्राप्त किया हो, तथा इसके अतिरिक्त उसने संबंधित राज्य में 2 स्थान प्राप्त किये हों।

2.यदि वह राज्य लोकसभा के लिए हुये आम चुनाव में उस राज्य से हुए कुल वैध मतों का छह प्रतिशत प्राप्त करता है, तथा इसके अतिरिक्त उसने संबंधित राज्य में उसने लोकसभा की कम से कम 1 सीट जीती हो।

3.यदि उस दल ने राज्य की विधानसभा के कुल स्थानों का तीन प्रतिशत सीटें जो भी ज्यादा हों, प्राप्त किये हों।

4.यदि प्रत्येक 25 सीटों में से उस दल ने लोकसभा की कम से कम 1 सीट जीती हो या लोकसभा के चुनाव में उस संबंधित राज्य में उसे विभाजन से कम से कम इतनी सीटें प्राप्त की हों ।

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