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मध्यकालीन भारतीय इतिहास में अरबों के आक्रमण के बाद भारत पर तुर्कों का आक्रमण और तुर्क-शासन की स्थापना एक महत्वपूर्ण घटना है। भारतीय इतिहास के किसी भी काल में पहली बार जिस विदेशी जाति ने एक विशाल साम्राज्य स्थापित करने में सफलता प्राप्त की वह थी-तुर्क

भारत पर सुबुक्तगीन से लेकर मुहम्मद गौरी तक तुर्कों ने अनेक सैन्य आक्रमण किए और लूटपाट मचाकर अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत करने की कोशिश की।

मुहम्मद गौरी के समय तक तुर्कों की नीति भारत को लूटने तक सीमित रही, परन्तु उसके बाद उसके गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने इस नीति को त्यागकर भारत में स्थायी राजनीतिक शासन की स्थापना की नीति अपनाई।

तुर्कों द्वारा तेरहवीं शताब्दी के प्रारंभ में हिन्दुस्तान-विजय से पूर्व उनकी प्रशासनिक एवं राजनीतिक व्यवस्था मध्य एशिया में केंद्रित रहने के कारण प्रबुद्ध हो चुकी थी। उल्लेख्यनीय है कि इस समय एक ओर जहां स्थानीय परिस्थितियों के कारण समन्वयकारी दृष्टिकोण का विकास हो रहा था वहीं दूसरी ओर नवीन राजनीतिक परीक्षण भी किए जा रहे थे। उदाहरण के लिए खलीफा का प्रभाव घटकर कम हो गया था और वह प्रतीक मात्र रह गया था। इस्लाम के विस्तार के साथ-साथ उम्मैयद एवं अब्बासिद प्रशासनिक ढांचों को अपनाया जा रहा था।

भारत पर तुर्कों के आक्रमण इस्लाम के प्रसार और धर्म-परिवर्तन मात्र के लिए थे, ऐसा कहना तत्कालीन सामाजिक, सामयिक एवं राजनीतिक प्रवृत्तियों तथा परिप्रेक्ष्यों की उपेक्षा करना होगा। उल्लेख्यनीय है कि शिहाबुद्दीन ने भारतीय भूमि पर पहली लड़ाई अपने सहधर्मी मुस्लिम शासक के साथ ही लड़ी थी। उसने अपनी राजनीतिक सूझबूझ का परिचय देते हुए स्थानीय शासकों के साथ समझौते की नीति भी अपनाई।

अंत में कहा जा सकता है कि तुर्कों का आरंभिक शासन-काल धर्म-आधारित था किन्तु उत्तरवर्ती शासनकाल में उनकी राज्य नीति में धार्मिक सहिष्णुता का समावेश हो गया था और उसमें समन्वयात्मक चेतना का प्रवेश हुआ।

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