समाचार पत्रों का पत्रेक्षण (सेंसरशिप) अधिनियम (1799)
- लार्ड वेलजली ने सभी समाचार पत्रों पर सेंसर लगा दिया। साथ ही यह नियम लागू कर दिया कि सभी समाचार पत्र अपने मालिक संपादक, मुद्रण का नाम स्पष्ट तौर पर समाचार पत्रों में छापें। साथ ही समाचार पत्रों को प्रकाशन पूर्व सरकार के सचिव के पास पूर्व पत्रेक्षण के लिये भेजना अनिवार्य बना दिया।
- लार्ड हेस्टिंग्स की उदारवादी और प्रगतिशील रवैये के कारण इन नियमों में ढील दे दी गई।
- 1818 में समाचार पत्रों की पूर्व पत्रेक्षण समाप्त कर दी गयी परंतु सामान्य नियम बनाकर उन विषयों की चर्चा पर रोक लगा दी, जिससे सरकार के अधिकार या जनहित को किसी भी प्रकार की हानि पहुंच सकती हो।
1823 का अनुज्ञप्ति नियम (1823)
- 1823 में जॉन एडम्स के कार्यवाहक गवर्नर जनरल बनने के बाद भारतीय प्रेस पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित किया गया।
- इस अधिनियम के अनुसार मुद्रक तथा प्रकाशक को मुद्रणालय स्थापित करने के लिये अनुज्ञप्ति लेनी होगी।
- लाइसेंस के बिना किसी भी साहित्य को मुद्रण अथवा प्रकाशित करने पर आर्थिक जुर्माना अथवा कारावास का दंड होगा। मजिस्ट्रेट बिना अनुमति प्राप्त मुद्रणालय को जब्त कर सकते थे।
- गवर्नर जनरल को अधिकार था कि वह किसी लाइसेंस को रद्द कर सकता है। अथवा नया प्रार्थना-पत्र मांग ले।
1835 का प्रेस अधिनियम या मेटकॉफ अधिनियम
- गवर्नर जनरल चार्ल्स मेटकॉफ (1835-36) ने भारतीय प्रेस के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण अपनाया। 1823 के अनुज्ञप्ति लाइसेंस नियम को रद्द कर दिया।
- इस प्रयास के कारण मेटकॉफ को 'भारतीय समाचार पत्रों का मुक्तिदाता ' कहा जाता है।
- 1835 के इस प्रेस अधिनियम के अनुसार प्रकाशक, मुद्रक केवल प्रकाशन के स्थान की सूचना देकर आसानी से अपना कार्य कर सकता था
- 1856 तक यह कानून चलता रहा और इस अवधि में देश में समाचारों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई ।
1857 की अनुज्ञप्ति (लाइसेंस) अधिनियम
- 1857 के विद्रोह से उत्पन्न आपातकालीन स्थिति से निपटने के लिए अनुज्ञप्ति व्यवस्था फिर से लागू कर दी गई ।
- इस अधिनियम के अनुसार, बिना लाइसेंस के मुद्रणालय स्थापित नहीं किया जा सकता था। सरकार लाइसेंस को रद्द भी कर सकती थी।
- यह संकटकालीन अधिनियम था । अतः 1 वर्ष बाद इसे समाप्त कर दिया गया। इसके समाप्त होने पर मेटकॉफ के द्वारा बनाए नियम ही चलते रहे।
पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन) अधिनियम, 1867
- इस अधिनियम के द्वारा प्रेस एवं समाचार पत्रों को प्रतिबंधित न करके उन्हें नियमित किया गया।
- यह अनिवार्य कर दिया गया कि मुद्रित सामग्री पर मुद्रक, प्रकाशक तथा मुद्रण स्थान का नाम अवश्य उल्लेखित हो।
- इसके अतिरिक्त प्रकाशन के एक माह के भीतर पुस्तक की एक निःशुल्क प्रति सरकार को देनी आवश्यक थी।
- वहाबी विद्रोह से जुड़े लोगों द्वारा सरकार विरोधी लेखों से निपटने के लिये ब्रिटिश सरकार ने भारतीय दंड संहिता की धारा 124 में 124 ए जोड़ दी, जिसमें राजद्रोह फैलाने वाले व्यक्तियों को आजीवन निर्वासन व जुर्माने की व्यवस्था की गई।
देशी भाषा समाचार पत्र अधिनियम, 1878 (वर्नाकुलर प्रेस एक्ट)
- 1857 के पश्चात देशी समाचार पत्रों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। अब इन समाचार पत्रों से सरकार की अधिक आलोचना की जाने लगी। परिणामतः सरकार ने देशी भाषा के समाचार पत्रों पर प्रतिबंध लगाने के लिए यह अधिनियम पारित किया।
- 1878 का वर्नाकुलर प्रेस एक्ट या 'मुंह बंद करने वाला अधिनियम' राजद्रोही लेखों को दबाने और ऐसा करने वाले समाचार पत्रों को दंडित करने हेतु पारित किया गया था।
- इस अधिनियमा के अनुसार , जिला दंडनायक को स्थानीय सरकार की आज्ञा के किसी भारतीय भाषा के समाचार पत्र को आज्ञा देने का आदेश दे दिया कि वे बंधन पत्र पर हस्ताक्षर करें तथा कोई ऐसी सामग्री प्रकाशित नहीं करेंगे, जिससे सरकार विरोधी भावना भड़के। इसके विषय में मजिस्ट्रेट के निर्णय को अंतिम माना गया।
- इसमें अंग्रेजों और देशी समाचार पत्रों में भेद किया गया था तथा जिला दंडनायक के निर्णय के खिलाफ आगे अपील करने का प्रावधान नहीं था।
- इस अधिनियम के अधीन सोम प्रकाश, भारत मिहिर, ढाका प्रकाश, सहचर तथा अनेक अन्य समाचार पत्रां के विरूद्ध मामले दर्ज किये गए। अब प्रायः देशी समाचार पत्रों में अंग्रेजी समाचार पत्र से समाचार उधार लिये जाने लगे। इस अधिनियम से बचने के लिये ’अमृत बाजार पत्रिका’ रातों-रात अंग्रजी समाचार पत्र में बदल गई।
- सितंबर 1878 में तात्कालिक भारत सचिव क्रेनबुक ने पूर्व-सेंसर की धारा हटा दी।
- लार्ड रिपन ने 1882 में वर्नाकुलर प्रेस एक्ट को रद्द कर दिया।
समाचार पत्र अधिनियम, 1908
- लार्ड कर्जन द्वारा बंगाल विभाजन जैसी नीतियों के उपरांत उत्पन्न अशांति से राष्ट्रीय कांग्रेस में उग्रवादी दल का उत्थान हुआ तथा हिंसक घटनाएं हुयी। समाचार पत्रों आदि में सरकार की कड़ी आलोचना की गई परिणामतः इनको दबाने के लिए सरकार ने एक अधिनियम न्यूज पेपर एक्ट, 1908 पारित किया। इसके अनुसार, जो समाचार पत्र आपत्ति जनक सामग्री, जिससे लोगों को हिंसा अथवा हत्या की प्रेरणा मिलती हा, प्रकाशित करेगा, उसकी सम्पत्ति अथवा मुद्रणालय को जब्त किया जा सकता है।
- स्थानीय सरकार 1867 के समाचार पत्र तथा पुस्तकों के पंजीकरण के अधिनियम के अधीन किसी मुद्रक अथवा प्रकाशक द्वारा की गई घोषणा को रद्द कर सकती थी।
भारतीय समाचार पत्र अधिनियम, 1910
- भारतीय समाचार पत्र अधिनियम, 1910 ने लिटन के अधिनियम के सभी घिनौने प्रावधानों को पुनर्जीवित कर दिया था।
- इस अधिनियम के तहत सरकार किसी समाचार पत्र के प्रकाशक से पंजीकरण जमानत मांग सकती थी। पंजीकरण जमानत की न्यूनतम राशि रूपया 500 व अधिकतम 2000 तक हो सकती थी। साथ ही सरकार इस अधिनियम के तहत पंजीकरण रद्द करने के साथ-साथ जमानत भी जब्त कर सकती थी।
- सरकार को पुनः पंजीकरण के लिए कम से कम रूपया 1000 और ज्यादा से ज्यादा रूपया 10,000 की जमानत मांगने का अधिकार था। समाचार पत्रों द्वारा पुनः आपत्तिजनक सामग्री प्रकाशित करने पर नया पंजीकरण भी रद्द किया जा सकता है।
- इस अधिनियम के शिकार समाचार पत्र 2 महीने के अंदर स्पेशल ट्रिब्यूनल के पास अपील कर सकते थे।
प्रेस इन्क्वारी कमेटी, 1921
- भारतीय समाचार पत्रों के प्रति कठोर प्रेस कानूनों की समीक्षा के लिए 1921 मे विधि सदस्य सर तेजबहादुर सप्रू की अध्यक्षता में प्रेस इंक्वायरी कमेटी की नियुक्ति की गई।
- प्रेस समिति की अनुशंसाओं के आधार पर समाचार पत्र अधिनियम 1908 तथा भारतीय समाचार पत्र अधिनियम, 1910 को समाप्त कर दिया गया।
भारतीय समाचार पत्र (संकटकालीन शक्तियां) अधिनियम, 1931
- 20वी शताब्दी में राजनीतिक आंदोलन में आई गति तथा महात्मा गांधी द्वारा प्रारंभ किये गए सविनय अवज्ञा आंदोलन के कारण सरकार ने समाचार पत्रों पर अधिक नियंत्रण करने की भावना से एक नया समाचार पत्र अध्यादेश जारी किया। प्रांतों को सविनय अवज्ञा के प्रचार को दबाने के लिए अत्यधिक शक्तियां दी गई।
- इस अधिनियम की धारा 4-1 में शब्द, संकेत अथवा आकृति द्वारा किसी की हत्या के या अन्य संज्ञेय अपराध के बदले कठोर दंड की व्यवस्था की गई।
- 1932 के इस अधिनियम का विस्तार करके ’क्रिमनल एमेंडमेंट एक्ट, लागू किया गया। इसमें वे सभी गतिविधयां शामिल कर दी गई जो सरकार की प्रभुसत्ता को हानि पहुंचा सकती थी।