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 बीसवीं शताब्दी के किसान आंदोलन 

19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में हुए किसान आंदोलन का स्वरूप

  • 1858 के बाद के किसान आंदोलन की सबसे बड़ी शक्ति किसान थे, जिन्होंने अपनी मांगों के लिए सीधे लड़ाई शुरू की, इनके दुश्मन थे बागान मालिक, जमींदार तथा महाजन।
  • इस समय का किसान आंदोलन निश्चय ही किसानों के सामाजिक उत्पीड़न के विरूद्ध क्रोध का प्रस्फुटन मात्र था। अपनी पारंपरिक जीवन शैली पर जोर तथा उसे सुरक्षित रखने की उत्कृष्ट इच्छा ने किसानों के विद्रोह के लिए मजबूर किया।
  • इस समय का किसान आंदोलन किसी बदलाव या परिवर्तन के लिए न होकर केवल यथास्थिति को बनाये रखने के लिए था। अधिकांश काश्तकार आंदोलन के पीछे बेदखली तथा लगान की अधिकता ही कारण था।
  • 1858 के बाद के किसान आंदोलन के प्रति सरकार का रवैया भी उदार था, 1858 से पूर्व हुए किसान आंदोलनों तथा आदिवासी विद्रोहों को सरकार ने प्रत्यक्ष चुनौती देकर कुचल दिया था लेकिन 1858 के बाद सरकार ने किसानों के प्रति समझौतावादी दृष्टिकोण अपना कर उनके आंदोलन की सफलता में आंशिक सहयोग दिया।
  • इस समय के किसान आंदोलनों के प्रति सरकार इसस लिए समझौता वादी थी क्योंकि इन आंदोलनों ने सरकार को चुनौती नहीं दी थी।

 

बीसवीं शताब्दी के किसान आंदोलन

  • 1858 से 1914 के बीच हुए किसान विद्रोह एक-दूसरे से असंबद्ध या बिखरे हुए थे।
  • किसान संघर्ष एवं आंदोलनों को राष्ट्रीय आंदोलन के साथ जोड़ने का श्रेय मुख्य रूप से महात्मा गांधी को जाता है, उनके नेतृत्व में ही भारतीय जनमानस अखिल भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की ओर अग्रसर हुआ।
  • गांधी जी के नेतृत्व में दो प्रारंभिक सफल किसान आंदोलनों ने गांधी को राष्ट्रीय मंच के केन्द्र में ला दिया।
  • भारत में गांधीजी के नेतृत्व में किया गया प्रथम किसान सत्याग्रह चंपारन सत्याग्रह था।

चंपारन सत्याग्रह (1917)

  • चंपारन (बिहार) के किसानों से अंग्रेज बागान मालिकों ने एक करार कर रखा था, जिसके अन्तर्गत किसानों को अपने कृषिजन्य क्षेत्र के 3/20वें भाग पर नील की खेती करनी होती थी। इस पद्धति को तिनकठिया पद्धति के नाम से जाना जाता था।
  • 19वीं सदी के अंतिम दिनों में रासायनिक रंगों की खोज और उसके प्रचलन से नील के बाजार में गिरावट आने लगी, जिससे नील बागान मालिक चंपारन क्षेत्र के अपने नील कारखाने को बंद करने लगे।
  • करार या समझौता जो किसानों से किया गया था, से मुक्त करने के लिए अंग्रेज बागान मालिकों ने भारी लगान की मांग की, परिणामस्वरूप विद्रोह शुरू हुआ।
  • 1917 में चंपारन के राजकुमार शुक्ल ने चंपारन किसान आंदोलन का नेतृत्व गांधी जी को सौंपने के लिए लखनऊ में उनसे मुलाकात की।
  • गांधी जी के चंपारन पहुंचने पर वहां के प्रशासन ने उन्हें जिला छोड़ने का आदेश दिया, लेकिन गांधी जी ने ‘सत्याग्रह’ की धमकी दे डाली जिससे डरकर आदेश वापस ले लिया गया।
  • सत्याग्रह’ (भारत में) प्रयोग का गांधी जी द्वारा किया गया यह प्रथम प्रयास था।
  • चंपारन में गांधी जी के साथ राजेंद्र प्राद, ब्रजकिशोर, महादेव देसाई, नरहरि पारिख, जे.वी. कृपलानी भी थे।
  • ज्युडिथ ब्राउन ने अपनी पुस्तक ‘गांधीज राइज टू पावर’ में राजेंद्र प्रसाद, एस.एन. सिन्हा तथा जे.बी. कृपलानी को ‘सब-कांट्रैक्टर्स’ कहा।
  • चंपारन आंदोलन में गांधी जी के नेतृृत्व में किसानों की एकजुटता को देखते हुए सरकार ने जुलाई 1917 में मामले की जांच के लिए एक आयोग स्थापित किया जिसके सदस्यों में गांधी जी भी शामिल थे।
  • आयोग की सलाह पर सरकार ने ‘तिनकठिया पद्धति’ को समाप्त घोषित करते हुए किसानों को अवैध रूप से वसूले गये धन का 25 प्रतिशत भाग वापस कर दिया गया।
  • 1917 के बाद किसान घटी हुई दर पर वसूल की जाने वाली शहरवेशी नामक कर देने से इंकार कर देते थे।
  • चंपारन सत्याग्रह के दौरान गांधी जी के कुशल नेतृत्व से प्रभावित होकर रवींद्र नाथ टैगोर ने उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि प्रदान की।

खेड़ा सत्याग्रह (1918)

  • गुजरात के खेड़ा जिले के किसानों ने सरकार के विरूद्ध बढ़ी हुई लगान की वसूली के खिलाफ गांधी जी के नेतृत्व में आंदोलन किया।
  • 1917-18 में फसल खराब होने के बाद भी खेड़ा के किसानों से लगान की वसूली की जा रही थी, खेड़ा के कुनबी-पाटीदार किसानों ने सरकार से लगान में राहत की मांग की लेकिन कोई रियायत न मिली।
  • खेड़ा के किसानों का सहयोग गांधी जी ने इन्दुलाल याज्ञनिक और बल्लभ भाई पटेल के साथ किया, उन्होंने किसानों को लगान न अदा करने का सुझाव दिया।
  • लगान न अदा करने का पहला नारा खेड़ा के ‘कापड़ गंज’ तालुके में स्थानीय नेता मोहन लाल पांड्या ने दिया।
  • गांधीजी ने खेड़ा आंदोलन की बागडोर 22 मार्च, 1918 को संभाला गांधीजी के सत्याग्रह के आगे लाचार सरकार ने इस आशय का गोपनीय दस्तावेज जारी किया कि लगान उसी से वसूली जाये जो देने में समर्थ हो।
  • गांधीजी के नेतृत्व में आंदोलन सफल रहा। खेड़ा में ही गांधी जी ने अपने प्रथम वास्तविक किसान सत्याग्रह की शुरूआत की।

 

अवध किसान सभा

  • अवध के क्षेत्र में सर्वप्रथम किसानों को जमींदारों और ताल्लुकेदारों के शोषण के विरूद्ध संगठित करने का प्रयास होमरूल लीग के कार्यकर्ताओं ने किया।
  • गौरीशंकर मिश्र, इन्द्र नारायण द्विवेदी तथा मदन मोहन मालवीय के प्रयत्नों से फरवरी, 1918 में अवध में उ.प्र. किसान सभा का गठन किया।
  • उ.प्र. किसान सभा ने शीघ्र ही शोषण के विरूद्ध विद्रोह करना शुरू कर दिया। प्रतापगढ़ के एक जिले में ‘नाई-बोधी बंद’ (जमींदारों, ताल्लुकेदारों का सामाजिक बहिष्कार) नामक आंदोलन चलाया गया।
  • उत्तर प्रदेश किसान सभा को शक्तिशाली बनाने में बाबा रामचंद्र, झिंगुरीपाल सिंह, दुर्गापाल सिंह की भूमिका महत्वपूर्ण थी।
  • बाबा रामचंद्र महाराष्ट्र के ब्राम्हण थे जिन्होंने एक संन्यासी के रूप में रामचरित मानस का पाठ कर किसानों में गौरव की भावना को जागृत किया, भूस्वामियों के विरूद्ध किसानों को संगठित करने में  इनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही।
  • 1920 में बाबा रामचंद्र की मुलाकात पं. जवाहरलाल नेहरू से हुई, बाबा ने जवाहरलाल और गौरीशंकर से किसानों की दुर्दशा का अवलोकन करने को कहा।
  • 1920 में उ.प्र. किसान आंदोलन,  असहयोग आंदोलन के साथ जुड़ गया।
  • 17 अक्टूबर, 1920 को बाबा रामचंद्र के प्रयास से ‘अवध किसान सभा’ का गठन किया गया, इस संगठन को शक्तिशाली बनाने के लिए जवाहर लाल नेहरू, गौरीशंकर, माताबदल पांडे, देवनारायण पांडे, केदारनाथ आदि ने कार्य किया।
  • अवध किसान सभा ने किसानों से बेदखली, भूमि न जोतने तथा बेगार न करने की अपील की।
  • प्रतापगढ़ का रूर गांव इस समय के किसान आंदोलन का प्रमुख केन्द्र था।
  • रायबरेली, सुल्तानपुर तथा फैजाबाद किसान विद्रोह के प्रमुख केन्द्र थे। विद्रोहियों ने बाजारों, मकानों, खलिहानों (साहूकारों से संबंधित) आदि में लूट-पाट की।
  • 1921 के अंत तक और 1922 के प्रारंभ तक किसान आंदोलन हरदोई, बहराइच तथा सीतापुर में एका आंदोलन के रूप में चलता रहा।
  • एका आंदोलन का नेतृत्व पिछड़ी जाति के मदारी पासी ने किया। आंदोलन का मुख्य मुद्दा स्वीकृत लगान से 50 प्रतिशत अधिक लगान वसूलना था।
  • आंदोलन अन्य किसान आंदोलनों से इस मामलों में भिन्न था कि इसमें काश्तकारों के साथ छोटे स्तर के जमींदार भी शामिल थे।
  • एका आंदोलन का राष्ट्रवादियों द्वारा निर्धारित अहिंसक नीतियों में विश्वास कम था इसलिए कालांतर में ये आंदोलनकारी अलग-थलग पड़ गये।
  • 1 मार्च, 1922 को सरकार ने विद्रोहियों से निपटने के लिए देशद्रोही बैठक अधिनियम पारित किया और आंदोलन को कुचलने में सफल रही।

 

एका आंदोलन

  • 1921 के अंत और 1922 के प्रारंभ तक अवध का किसान आंदोलन हरदोई, बहराइच तथा सीतापुर में “एका आंदोलन के रूप में चलता रहा।
  • इस आंदोलन का कारण किसानों की जो-भूमि पर उनका दखल संबंधी अधिकार न होना था। स्थायी या अत्यधिक लगान के अतिरिक्त भू-स्वामियों द्वारा शुल्क, उपकर, भेंट, जबरिया मजदूरी आदि लिया जाता था।
  • एका आंदोलन का नेतृत्व पिछड़ी जाति के मदारी पासी ने किया था। इस आंदोलन की मुख्य बात यह थी कि इसमें छोटे काश्तकारों के साथ छोटे जमींदार भी शामिल थे।
  • एका आंदोलनकारी नेताओं का राष्ट्रवादियों द्वारा निर्धारित अहिंसक नीति में विश्वास कम था, इसलिए कालांतर में दमनात्मक कार्रवाई के चलते यह आंदोलन अलग-थलग पड़ गया।
  • 1922 तक सरकार ने इस आंदोेलन का दमन कर दिया।

 

बारदोली सत्याग्रह (1928)

  • सूरत (गुजरात) के बारदोली ताल्लुके में 1928 में किसानों द्वारा ‘लगान न अदायगी’ का आंदोलन चलाया गया।
  • गुजरात के किसान आंदोलन में कुनबी-पाटीदार जातियों के भू-स्वामी किसानों ने ही नहीं बल्कि कालिपराज (काले लोग) जनजाति के लोगों ने भी हिस्सा लिया।
  • कालीपराज जनजाति की स्थिति बदतर थी, उन्हें ‘हाली पद्धति’ के अन्तर्गत उच्च जातियों को यहां पुश्तैनी मजदूर के रूप में कार्य करना होता था जिसके बदले उन्हें जीने भर का भोजन और तन ढकने भर का कपड़ा मिलता था।
  • बारदोली के मेहता बंधुओं (कल्याण जी, कुंवर जी, दयाल जी) ने किसानों के समर्थन में 1922 से ही आंदोलन चलाया हुआ था, लेकिन कालांतर में कपास की कीमत गिरने के बाद भी बंबई सरकार द्वारा लगान में 30 प्रतिशत की वृद्धि कर देने के बाद मेहता बंधुओं ने ‘लगान अदायगी रोक’ नामक सत्याग्रह का नेतृत्व गांधीवादी रानीपराज (बनवासी) ने किया ।
  • 4 फरवरी, 1928 को बारदोली किसान सत्याग्रह का नेतृत्व बल्लभभाई पटेल ने संभाला, बढ़ी हुई लगान के विरूद्ध सरकार को पत्र लिखकर पटेल ने जांच कराने की मांग की।
  • पटेल द्वारा ‘लगान न अदायगी’ हेतु किसानों को संगठित किये जाने के बाद किसानों ने (हिन्दू-मुस्लिम) गीता और कुरान पर हाथ रखकर लगान न देने की कसम खाई।
  • कांग्रेस के नरमपंथी गुट ने ‘सर्वेंट आफ इंडिया सोसाइटी’ के माध्यम से सरकार द्वारा किसानों की मांगों की जांच करवाने का अनुरोध किया।
  • बारदोली किसान आंदोलन के समर्थन में बंबई विधान परिषद के भारतीय नेताओं ने त्यागपत्र दे दिया, आंदोलन के बारे में ब्रिटेन की संसद में भी बहस हुई।
  • वायसराय इरविन ने भी बंबई के गवर्नर विल्सन को मामले को शीघ्र निपटाने का निर्देश दिया।
  • सरकार ने ब्रूम फील्ड और मैक्सवेल को बारदोली मामले की जांच का आदेश दिया। जांच रिपोर्ट में बढ़ी हुई तीस प्रतिशत लगान को अवैध करार दिया गया, सरकार ने लगान को घटाकर 6.03 प्रतिशत कर दिया।
  • वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में बारदोली का सफल किसान आंदोलन सम्पन्न हुआ। गांधी जी ने आंदोलन की सफलता पर कहा कि ‘‘बारदोली संघर्ष चाहे जो कुछ भी हो, यह ‘स्वराज’ की प्राप्ति के लिए संघर्ष नहीं है। लेकिन इस तरह का हर संघर्ष, हर कोशिश हमें स्वराज्य के करीब पहुंचा रही है।
  • बारदोली सत्याग्रह के समय ही यहां की महिलाओं की ओर से गांधीजी ने वल्लभभाई पटेल को ‘सरदार’ की उपाधि प्रदान की।

तेभागा आंदोलन

  • बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध का यह किसान आंदोलन बंगाल का सर्वाधिक सशक्त आंदोलन था। इस आंदोलन द्वारा बटाईदारों ने यह मांग की कि उन्हें उपज का तिभागा अर्थात एक-तिहाई भाग प्रदान किया जाय।
  • यह जोतदारों के विरूद्ध बटाईदारों का आंदोलन था जिसे कम्पाराम और भवन सिंह जैसे नेताओं ने नेतृत्व प्रदान किया।
  • बंगला भू-राजस्व अथवा फ्लाउड कमीशन से प्रेरित यह आंदोलन स्वतंत्रता प्राप्ति तक चलता रहा।

 

अखिल भारतीय किसान सभा

  • 1918 में स्थापित ‘संयुक्त प्रान्तीय किसान सभा’ ने 1920-21 में अवध के कुछ जिलों में शक्तिशाली किसान आंदोलन चलाया।
  • 1928 में आंध्र प्रान्तीय रैय्यत सभा की स्थापना हुईं।
  • 1929 में स्वामी सहजानंद सरस्वती ने बिहार किसान सभा की स्थापना की।
  • उड़ीसा में मालती  चौधरी ने उत्कल प्रान्तीय किसान सभा की स्थापना की।
  • बंगाल ने टेनेसी एकट को लेकर अकरम खां, अब्दुर्रहीम, फजलुलाहक  के प्रयासों से 1929 कृषक प्रजापार्टी की स्थापना हुई।
  • सविनय अवज्ञा आंदोलन की समाप्ति के बाद 11 अप्रैल, 1936 को लखनऊ में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना की गई।
  • प्रथम अखिल भारतीय किसान सभा की अध्यक्षता स्वामी सहजानंद सरस्वती ने की। आंध्र प्रदेश किसान आंदोलन के अग्रणी नेता एन.सी. रंगा को किसान सभा का महासचिव नियुक्त किया गया।
  • फैजपुर में कांग्रेस सम्मेलन के समय उसके समानांतर होने वाले अखिल भारतीय किसान आंदोलन की अध्यक्षता एन.जी. रंगा ने की। इस सम्मेलन में भू-राजस्व की दर को 50 प्रतिशत कम करने तथा किसान संगठनों को मान्यता देने की मांग रखी गई।
  • अखिल भारतीय किसान सभा को पं. जवाहर लाल नेहरू ने भी संबोधित किया था। इस सम्मेलन में हिस्सा लेने वाले अन्य नेता थे-राम मनोहर लोहिया, सोहन सिंह जोश, इन्दुलाल याज्ञनिक, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव तथा कमल सरकार।

 

भारत का मजदूर आंदोलन

  • भारत में मजदूर संघ का अस्तित्व 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आधुनिक उद्योगों की स्थापना के साथ शुरू होता है। रेलवे का निर्माण इस दिशा में प्रथम कदम था।
  • आधुनिक उद्योगों के उदय के साथ ही कारखानों में अनेक बुराइयां जैसे काम के अधिक घंटे, आवास की असुविधा, कम वेतन, अत्यधिक असुरक्षा आदि देखने को मिली। कारखानों में सुधार हेतु प्रथम प्रयास समाजसेवी संस्थाओं द्वारा किया गया।
  • 1877 में नागपुर स्थित एम्प्रेस मिल के मजदूरों ने अपने वेतन की दरों के विरूद्ध हड़ताल का आयोजन किया।
  • 1878 में सोराबजी शपूर जी बंगाली ने बंबई विधानसभा में श्रमिकों की कार्यावधि के बारे में एक विधेयक पेश करना चाहा लेकिन असफल रहे।
  • 1870 में बंगाल के शशिपाद बनर्जी ने मजदूरों का एक क्लब स्थापित किया और ‘भारत श्रमजीवी’ नामक पत्रिका का प्रकाशन किया।
  • 1890 में एन.एम. लोखण्डी महोदय ने बंबई मिल हैण्ड्स एसोसिएशन की स्थापना की जिसे आंशिक रूप से भारत का पहला मजदूर संघ माना जाता है।
  • कागमार हितवर्धक सभा (1909), सामाजिक सेवा संघ (1911), कलकत्ता मुद्रक संघ (1905), भारतीय रेल कर्मचारी एकीकृत सोसाइटी (1897) आदि प्रारंभिक मजदूर आंदोलन से जुड़ी संस्थायें थी।
  • प्रारंभिक दिनों में राष्ट्रवादी नेताओं का रूख मजदूर आंदोलन के प्रति उदासीनता का था।
  • उदासीनता का कारण साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन था जो अपने पहले चरण में था, राष्ट्रवादी नेता इस समय केवल उन्हें मुद्दे से लड़ना चाहते थे जिसमें समूचे देश की भागीदारी हो।
  • 20वीं सदी के किसान आंदोलन किसान सभा आंदोलन
  • अवध के क्षेत्र में सर्वप्रथम सिानों को जमीदारों और तालुकदारों के शोषण के विरूद्ध संगठित करने का प्रयास होमरूल लीग के सदस्यों ने किया।
  • गौरीशंकर मिश्र तथा इंद्र नारायण द्विवेदी के प्रयत्नों से फरपरी 1918 में उत्तर प्रदेश किसान सभा का गठन किया गया। इस कार्य में मदन मोहन मालवीय ने इन्हें सराहनीय योगदान दिया (कुछ सा्रोतो में 1917 भी पढ़ने को मिलता है।)
  • इस किसान सभा को शक्तिशाली बनाने में बाबा रामचंद्र, झिंगुरीलाल सिंह, दुर्गापाल की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
  • 1919 में किसानों द्वारा विरोध की सबसे अधिक संगठित  “नाई-धोबी बंद’’ सामाजिक बहिष्कार कार्यविधि की गई।
  • बाबा रामचंद्र ने असहयोग आंदोलन के समय अवध किसान सभा (1920) का गठन किया
  • इस सभा ने किसानो से बेदखली, भूमि न जोतने तथा बेगार न करने की अपील की। इस आंदोलन का मुख्य केंद्र प्रतापगढ़ का  “रूर गाँव’’ था।
  • किसानों ने बाजारों, घरों एवं अनाज की दुकानों पर धावा बोलकर उन्हें लूटा तथा पुलिस के साथ हिंसक झड़पे हुई। रायबरेली, फैजाबाद, एवं सुल्तानपुर इन गतिविधियों के प्रमुख केंद्र थे।
  • किसान सभा आंदोलन की विशिष्टता यह थी कि इसमें ऊँची व नीची जातियों के किसानों ने मिलकर भागीदारी की।

 

 

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