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किसी भी देश के संविधान की रचना मात्र एक दिन की उपज नहीं होती है । बल्कि संविधान एक सतत् विकास का परिणाम होता है । भारतीय संविधान ऐतिहासिक विकास का काल सन् 1599 ई० से शुरू होता है तथा उसी समय ब्रिटेन में ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना भी हुई थी । ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना 1599 ई० में हुई ।

महारानी एलिजाबेथ ने एक राजलेख द्वारा 15 वर्षों के लिए व्यापार का अधिकार दिया , जिसे 1599 ई० का चार्टर कहा जाता है ।

 इस राजलेख द्वारा कम्पनी को समस्त पूर्वी देशों में व्यापार का एकमेव स्वामित्व सौंपा गया  तथा कम्पनी की समस्त शक्तियां 24 सदस्यीय परिषद में निहित थी । 1726 के राजलेख द्वारा कलकत्ता , बम्बई तथा मद्रास प्रेसीडेन्सी के गवर्नरों को विधि बनाने की शक्ति सौंपी गयी । 1726 के चार्टर के द्वारा भारत स्थित कम्पनी को नियम , उपनियम तथा अध्यादेश जारी करने की शक्ति प्रदान की गयी ।

 

1773 का रेग्युलेटिंग ऐक्ट 

 

रेग्युलेटिंग एक्ट का उद्देश्य भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी की गतिविधियों को ब्रिटिश सरकार की निगरानी में लाना था। इसके अतिरिक्त कम्पनी की संचालन समिति में आमूल-चूल परिवर्तन करना तथा कम्पनी के राजनीतिक अस्तित्व को स्वीकार कर उसके व्यापारिक ढाँचे को राजनीतिक कार्यों के संचालन योग्य बनाना भी इसका उद्देश्य था। इस अधिनियम को 1773 ई. में ब्रिटिश संसद ने पास किया तथा 1774 ई. में इसे लागू किया गया। एक्ट के मुख्य प्रावधान निम्नलिखित हैं–

  • कोर्ट आफ़ डायरेक्टर का कार्यकाल 1 वर्ष के स्थान पर 4 वर्ष का हो गया तथा डायरेक्टरों की संख्या 24 निर्धारित की गयी, जिसमें से 25% अर्थात् 6 सदस्यों द्वारा प्रति वर्ष अवकाश ग्रहण करना पड़ता था। 1000 पौण्ड के हिस्सेदारों को वोट का अधिकार दिया गया। 3.6 एवं 10 हज़ार पौण्ड के हिस्सेदारों को क्रमशः 2, 3 एवं 4 मत देने के अधिकार मिले।
  • कोर्ट आफ़ प्रेसीडेंसी (बंगाल) के प्रशासक को अब अंग्रेज़ी क्षेत्रों का गवर्नर जनरल कहा जाने लगा तथा उसको सलाह देने हेतु 4 सदस्यों की एक कार्यकारिणी बनाई गयी, जिसका कार्यकाल 5 वर्ष का होता था। मद्रास तथा बम्बई के गवर्नर उसके अधीन हो गये। अधिनयम में प्रथम गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स तथा पार्षद सर फ़िलिप फ़्राँसिस, क्लेवारंग, मानसन तथा बारवेल का नाम लिख दिया गया था। ये केवल कोर्ट आफ़ डायेरेक्टर्स की सिफ़ारिश पर ब्रिटिश सम्राट द्वारा ही 5 वर्ष के पूर्व हटाये जा सकते थे।
  • कलकत्ता में एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गयी, जिसमें एक मुख्य न्यायधीश और तीन अन्य न्यायाधीश नियुक्त किये गये, जो अंग्रेज़ी क़ानून के अनुसार प्रजा के मुक़दमों का निर्णय करते थे। इसका कार्य क्षेत्र बंगाल, बिहार, उड़ीसा तक था। इस सर्वोच्च न्यायालय को साम्य न्याय तथा सामान्य विधि के न्यायालय, नौसेना विधि के न्यायालय तथा धार्मिक न्यायालय के रूप में काम करना था। उच्चतम न्यायालय 1774 ई. में गठित किया गया और सर एलीजा इम्पी मुख्य न्यायाधीश तथा चेम्बर्ज, लिमैस्टर और हाइड अन्य न्यायाधीश नियुक्त हुए।
  • बिना लाइसेंस प्राप्त किए कम्पनी के कर्मचारी को निजी व्यापार करने से प्रतिबंधित कर दिया गया।
  • गवर्नर जनरल व उसकी कौंसिल को नियम बनाने तथा अध्यादेश पारित करने का अधिकार दिया गया, पर यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा पंजीकृत होना ज़रूरी था।
  • कम्पनी के प्रत्येक सैनिक अथवा असैनिक पदाधिकारी को किसी भी व्यक्ति के उपहार, दान या पारितोषिक लेने से प्रतिबंधित कर दिया गया।
  • कम्पनी के अधिकारियों व कर्मचारियों के वेतन को बढ़ा दिया गया।
  • इस अधिनियम के लागू होने के बाद गवर्नर जनरल को अपनी कौंसिल के सदस्यों को नियंत्रित करने की शक्ति नहीं थी। उसे अपनी कौंसिल के सदस्यों के बहुमत के विरुद्ध कार्य करने का अधिकार नहीं था, इससे उसके समक्ष अनेक व्यावहारिक कठिनाइयाँ आईं। रेग्यूलेटिंग एक्ट के पश्चात् 1781 ई. के इंडिया एक्ट (सेशोधनात्मक अधिनियम) द्वारा एक अनुपूरक क़ानून बनाया गया, जिससे रेग्यूलेटिंग एक्ट की कुछ ख़ामियों को दूर करने का प्रयत्न किया गया। इस एक्ट द्वारा सुप्रीम कोर्ट का अधिकार क्षेत्र अधिक स्पष्ट किया गया तथा उसे कलकत्ता के सभी निवासियों (अंग्रेज़ तथा भारतीय) पर अधिकार दिया गया और यह भी आदेश दिया गया कि प्रतिवादी का निजी क़ानून लागू हो।

 

पिट्स इंडिया एक्ट, 1784 

पिट का इंडिया एक्ट विलियम पिट कनिष्ठ ने 1784 ई. में प्रस्तावित किया और इसे पास किया था। विलियम पिट उस समय इंग्लैण्ड का प्रधानमंत्री था। पिट एक्ट के प्रभाव से अब कोई भी लिफ़ाफ़ा या थैला कोर्ट ऑफ़ डाइरेक्टर्स की आज्ञा के बिना भारत नहीं भेजा जा सकता था। बाद के कुछ दिनों में पिट एक्ट में संशोधन करके गवर्नर-जनरल को यह अधिकार दे दिया गया कि उसे जब उचित प्रतीत हो, वह अपनी कौंसिल के निर्णय को अस्वीकार कर सकता है।

पिट्स एक्ट का उद्देश्य

पिट एक्ट का उद्देश्य 1773 ई. के रेग्युलेटिंग एक्ट के कुछ स्पष्ट दोषों को दूर करना था। इसके द्वारा भारत में ब्रिटिश राज्य पर कम्पनी और इंग्लैण्ड की सरकार का संयुक्त शासन स्थापित कर दिया गया। 'कोर्ट आफ़ डाइरेक्टर्स' के हाथ में वाणिज्य का नियंत्रण तथा नियुक्तियाँ करने का कार्य रहने दिया गया, परन्तु 'कोर्ट आफ़ प्रोपाइटर्स' के हाथ से 'कोर्ट आफ़ डाइरेक्टर्स' का चुनाव करने के अतिरिक्त सब अधिकार छीन लिये गये। एक 'बोर्ड ऑफ़ कन्ट्रोल' की स्थापना कर दी गई। इसमें छह अवैतनिक प्रिवी कौंसिलर होते थे। उनमें से एक को अध्यक्ष बना दिया जाता था और उसे निर्णायक मत प्राप्त होता था।

 

इस एक्ट के प्रभाव से अब कोर्ट आफ़ डाइरेक्टर्स बोर्ड की पूर्व अनुमति के बिना कोई भी ख़रीता (थैला, झोला, लिफ़ाफ़ा, सरकारी आदेश पत्र का लिफ़ाफ़ा) भारत नहीं भेज सकता था। इसी प्रकार भारत से जो ख़रीद आते थे, वे बोर्ड के सामने रखे जाते थे। बोर्ड यह आग्रह भी कर सकता था कि कोर्ट आफ़ डाइरेक्टर्स की सहमति न होने पर भी केवल उसी के आदेश भारत में भेजे जाएँ। गवर्नर-जनरल की नियुक्ति पहले की भाँति कोर्ट आफ़ डाइरेक्टर्स करता था, परन्तु इंग्लैण्ड का राजा उसे वापस बुला सकता था। गवर्नर-जनरल की कौंसिल के सदस्यों की संख्या चार से घटाकर तीन कर दी गई, जिनमें से एक प्रधान सेनापति होता था। कौंसिल के सहित गवर्नर-जनरल को युद्ध, राजस्व तथा राजनीतिक मामलों में बम्बई तथा मद्रास प्रेसीडेंसी पर अधिक नियंत्रण प्रदान कर दिया गया। कौंसिल के सहित गवर्नर-जनरल को बोर्ड आफ़ कंट्रोल की सहमति से कोर्ट अथवा उसकी गुप्त समिति के द्वारा भेजे गये किसी स्पष्ट निर्देश के बिना युद्ध की घोषणा करने अथवा युद्ध शुरू करने के उद्देश्य से कोई संधि वार्ता चलाने से रोक दिया गया। एक्ट में बाद में एक संशोधन कर दिया गया, जिसके द्वारा गवर्नर-जनरल को जब वह आवश्यक समझे, अपनी कौंसिल के निर्णय को अस्वीकार कर देने का अधिकार दे दिया गया।

 

1786 का अधिनियम

  • पिट्स ने 1786 में यह अधिनियम पारित करवाया जिसका प्रमुख उद्देश्य कार्नवालिका को भारत के गवर्नर जनरल के पद के लिए तैयार करना था ।
  • इस अधिनियम के तहत मुख्य सेनापति की शक्तियां भी गवर्नर जनरल में निहित कर दी गयी ।
  • गवर्नर जनरल विशेष अवस्था में परिषद के निर्णयो को रद्द कर सकता था तथा उसे लागू भी कर सकता था । 

 

1793 का चार्टर एक्ट 

  • 1793 ई० में एक चार्टर एक्ट पारित किया गया जिसके द्वारा कम्पनी के व्यापारिक अधिकारों को 20 वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया ।
  • गवर्नर - जनरल का बम्बई तथा मद्रास प्रेसीडेन्सियों पर अधिकार स्पष्ट कर दिये गये । यदि गवर्नर जनरल बंगाल के बाहर जाता था तो उसे अपनी परिषद के असैनिक सदस्य में से किसी एक को उपप्रधान नियुक्त करना होता था । मुख्य सेनापति को गवर्नर - जनरल की परिषद् का स्वत : ही सदस्य होने का अधिकार समाप्त हो गया । इन सभी सदस्यों का वेतन भारतीय कोष से मिलता था , जो 1919 तक जारी रहा ।

 

1813 का चार्टर एक्ट 

  • समकालीन यदभाव्यम् के सिद्धान्त तथा अंग्रेजों के यूरोपीय व्यापार बन्द होने के कारण से कम्पनी के व्यापारिक अधिकार को समाप्त करने के लिए 1813 का चार्टर एक्ट लाया गया ।
  • इसलिए 1813 के चार्टर एक्ट के द्वारा कम्पनी के भारतीय व्यापार के एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया ।
  • कम्पनी के चीन तथा चाय के व्यापार का एकाधिकार चलता रहा ।
  • प्रथम बार अंग्रेजो की भारत पर संवैधानिक स्थिति स्पष्ट की गयी थी । 1813 के चार्टर के द्वारा नियंत्रण बोर्ड की अधीक्षण तथा नियंत्रण शक्ति को न केवल परिभाषित किया गया अपितु उसका विस्तार भी किया गया ।
  • इस एक्ट के तहत एक लाख रूपया प्रतिवर्ष विद्वान भारतीयों के प्रोत्साहन तथा साहित्य के सुधार तथा पुनुरूत्थान के लिए रखा गया । यह भारत सम्बन्धी अंग्रेजी घोषणा में अपना एक अलग महत्व रखता है ।

 

1833 का चार्टर एक्ट 

  • 1833 के चार्टर एक्ट पर , इंग्लैंड की औद्योगिक क्रान्ति , उदारवादी नीतियों का क्रियान्वयन तथा लेसेज फेयर के सिद्दान्त की छाप थी । नियंत्रण बोर्ड के सचिव मेकाले तथा बेन्थम के शिष्य जेम्स मिल का प्रभाव 1833 के चार्टर एक्ट पर स्पष्ट रूप से प्रतिध्वनित होता है ।इस एक्ट ने कंपनी को अगले वर्षों के लिए नया जीवन दिया तथा उसे एक ट्रस्टी  के रूप में प्रतिष्ठित किया । कम्पनी के वाणिज्यिक अधिकार समाप्त कर दिये गये तथा उसे भी केवल राजनैतिक कार्य ही करने थे । इस अधिनियम ने कम्पनी के डायरेक्टरों के संरक्षण को कम किया ।
  • इस अधिनियम के द्वारा भारतीय प्रशासन का केन्द्रीयकरण किया गया ।
  • बंगाल का गवर्नर अब भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया । गवर्नर जनरल को कम्पनी के सैनिक तथा असैनिक कार्य की नियंत्रण, निरीक्षण तथा निर्देशन सौंपा गया ।
  • इस अधिनियम द्वारा भारत में दासता को अवैध घोषित किया गया । सभी कर सपरिषद गवर्नर जनरल की आज्ञा से ही लगाये जा सकते थे । इस प्रकार प्रशासन तथा वित्त को सारी शक्ति गवर्नर जनरल और उसको परिषद् में केन्द्रित हो गयी । इस अधिनियम के द्वारा कानून बनाने के लिए गवर्नर - जनरल की परिषद में । एक कानूनी सदस्य चौथे सदस्य के रूप में सम्मिलित किया गया ।
  • सर्वप्रथम मैकाले को विधि सदस्य के रूप में गवर्नर जनरल की परिषद में सम्मिलित किया गया ।
  • केवल सपरिषद गवर्नर जनरल को ही भारत के लिए कानून बनाने के अधिकार प्राप्त था । भारतीय कानूनों को संचित लिपिबद्ध तथा सुधारने के उद्देश्य से एक विधि आयोग का गठन किया गया । इस अधिनियम के द्वारा कम्पनी के चीन से व्यापार तथा चाय सम्बन्धी व्यापार के एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया ।
  • गवर्नर जनरल को ही विधि आयुक्त को नियुक्त करने का अधिकार प्रदान किया गया ।
  • इस अधिनियम के द्वारा नियुक्तियों के लिए योग्यता सम्बन्धी मापदंड को अपना कर भेदभाव समाप्त किया गया । इस अधिनियम द्वारा बंगाल का गवर्नर - जनरल अब समूचे भारत का गवर्नर जनरल बन गया ।

 

1853 का चार्टर एक्ट 

  • इस चार्टर ने कार्यपालिका तथा विधायी शक्तियों को पृथक करने का एक निश्चित कदम उठाया । भारत वर्ष के लिए एक पृथक विधान परिषद की स्थापना की गयी।
  • विधान परिषद में 12 सदस्य होते थे । कमान्डर - इन - चीफ , गवर्नर - जनरल , गवर्नर जनरल के चार - सदस्य और 6 सभासद विधानपरिषद के सदस्य होते थे ।
  • अन्य 6 सदस्यों में बंगाल के मुख्य न्यायाधीश , कलकत्ता सुप्रीम कोर्ट का एक न्यायाधीश और बंगाल - मद्रास , बम्बई और आगरा चार प्रान्तों के प्रतिनिधि शामिल थे।
  • इस प्रकार भारतीय विधान परिषद में सर्वप्रथम क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व का सिद्धान्त पारित किया गया ।
  • विधान परिषद द्वारा पारित विधेयकों को गवर्नर - जनरल वीटो कर सकता था ।
  • विधि सदस्य को गवर्नर - जनरल की कर्यकारिणी का पूर्ण सदस्य बना दिया गया ।
  • परिषद में वाद - विवाद का प्रारूप मौखिक था । परिषद का कार्य गोपनीय नहीं सार्वजनिक प्रकृति का था ।
  • 1853 के अधिनियम ने ही सर्वप्रथम सम्पूर्ण भारत के लिए एक - विधान मण्डल  की स्थापना की । इस अधिनियम ने कम्पनी डायरेक्टरों से नियुक्ति सम्बन्धी अधिकार वापस ले लिया जिससे डायरेक्टरों का संरक्षण भी समाप्त हो गया । 

1858 का अधिनियम

 

भारत सरकार अधिनियम (1858) को 'भारतीय प्रशासन सुधार सम्बन्धी अधिनियम' भी कहा गया है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के भारतीय शासन के विरुद्ध इंग्लैण्ड में असंतोष की भावना विद्यामान थी। वर्षों से उसे समाप्त करने हेतु आन्दोलन चल रहा था। उदारवादी, सुधारवादी और संसदीय शासन के समर्थक यह मांग कर रहे थे कि कम्पनी जैसी व्यापारिक संस्था के हाथों में भारत जैसे विशाल देश का शासन भार नहीं सौंपा जाना चाहिये। संसद ने समय-समय पर विचित्र एक्ट पारित किये, जिनके माध्यम से कम्पनी पर संसद का प्रभावशाली नियन्त्रण स्थापित करने का प्रयास किया गया। '1857 के विद्रोह' ने इस विचारधारा को और भी गति प्रदान कर दी थी।

विशेषताएँ

  • ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन समाप्त कर शासन की ज़िम्मेदारी ब्रिटिश क्राउन को सौंप दी गयी।
  • भारत का गवर्नर-जनरल अब भारत का वायसराय कहा जाने लगा था।
  • 'बोर्ड ऑफ़ डाइरेक्टर्स' एवं 'बोर्ड ऑफ़ कन्ट्रोल' के समस्त अधिकार 'भारत सचिव' को सौंप दिये गये। भारत सचिव ब्रिटिश मंत्रिमण्डल का एक सदस्य होता था, जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यीय 'भारतीय परिषद' का गठन किया गया था, जिसमें 7 सदस्यों की नियुक्ति 'कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स' एवं शेष 8 की नियुक्ति ब्रिटिश सरकार करती थी। इन सदस्यों में आधे से अधिक के लिए यह शर्त थी कि वे भारत में कम से कम 10 वर्ष तक रह चुके हों।
  • भारत सचिव व उसकी कौंसिल का खर्च भारतीय राजकोष से दिया जायगा। संभावित जनपद सेवा में नियुक्तियाँ खुली प्रतियोगिता के द्वारा की जाने लगीं, जिसके लिए राज्य सचिव ने जनपद आयुक्तों की सहायता से निगम बनाए।
  • इस अधिनियम के लागू होने के बाद 1784 ई. के 'पिट एक्ट' द्वारा स्थापित द्वैध शासन पद्धति पूरी तरह समाप्त हो गयी। देशों व राजाओं का क्राउन से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित हो गया और डलहौज़ी की 'राज्य हड़प नीति' निष्प्रभावी हो गयी।

 

1861 का भारत परिषद अधिनियम  

भारतीय परिषद अधिनियम (1861) भारत के संवैधानिक इतिहास की एक युगांतकारी तथा महत्त्वपूर्ण घटना है। यह मुख्य रूप से दो कारणों से विशेष है। एक तो यह कि इसने गवर्नर-जनरल को अपनी विस्तारित परिषद में भारतीय जनता के प्रतिनिधियों को नामजद करके उन्हें विधायी कार्य से संबद्ध करने का अधिकार प्रदान दिया तथा दूसरा यह कि इसने गवर्नर-जनरल की परिषद की विधायी शक्तियों का विकेन्द्रीकरण कर दिया, जिससे बम्बई और मद्रास की सरकारों को भी विधायी शक्ति प्रदान की गयी।

वर्ष 1858 ई. का अधिनियम अपनी कसौटी पर पूर्णतः खरा नहीं उतर सका, जिसके परिणामस्वरूप 3 वर्ष बाद ही 1861 ई. में ब्रिटिश संसद ने 'भारतीय परिषद अधिनियम' पारित किया। यह पहला ऐसा अधिनियम था, जिसमें 'विभागीय प्रणाली' एवं 'मंत्रिमण्डलीय प्रणाली' की नींव रखी गयी थी। पहली बार विधि निर्माण कार्य में भारतीयों का सहयोग लेने का प्रयास किया गया।

विशेषताएँ

  • वायसराय की परिषद में एक सदस्य और बढ़ा कर सदस्यों की संख्या 5 कर दी गयी। 5वाँ सदस्य विधि विशेषज्ञ होता था।
  • क़ानून निर्माण के लिए वायसराय की काउन्सिल में कम से कम 6 एवं अधिकतम 12 अतिरिक्त सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार वायसराय को दिया गया। इन सदस्यों का कार्यकाल 2 वर्ष का होता था।
  • गैर सरकारी सदस्यों में कुछ उच्च श्रेणी के थे, पर भरतीय सदस्यों की नियुक्ति के प्रति वायसराय बाध्य नहीं था, किन्तु व्यवहार में कुछ गैर सरकारी सदस्य 'उच्च श्रेणी के भारतीय' थे। इस परिषद का कार्य क्षेत्र क़ानून निर्माण तक ही सीमित था।
  • इस अधिनियम की व्यवस्था के अनुसार बम्बई (वर्तमान मुम्बई) एवं मद्रास (वर्तमान चेन्नई) प्रान्तों को विधि निर्माण एवं उनमें संशोधन का अधिकार पुनः प्रदान कर दिया गया, किन्तु इनके द्वारा निर्मित क़ानून तभी वैध माने जाते थे, जब उन्हें वायसराय वैध ठहराता था।
  • वायसराय को प्रान्तों में विधान परिषद की स्थापना का तथा लेफ़्टीनेन्ट गवर्नर की नियुक्ति का अधिकार प्राप्त हो गया।

 

1892 का भारत परिषद अधिनियम 

भारतीय परिषद अधिनियम (1892) को भारतीयों ने कुछ समय तक 'लॉर्ड क्राउन अधिनियम' नाम दिया था। 1861 का भारतीय परिषद अधिनियम जहाँ एक ओर उत्तरदायी सरकार स्थापित करने में असमर्थ रहा, वहीं दूसरी ओर लॉर्ड लिटन की बर्बर नीतियों से जनता में असन्तोष व्याप्त हो गया। ऐसी स्थिति में 1892 का अधिनियम पारित किया गया।

प्रमुख प्रावधान

  • अतिरिक्त सदस्यों की संख्या केन्द्रीय परिषद में बढ़ाकर कम से कम 10 व अधिकतम 16 कर दी गयी। बम्बई तथा मद्रास की कौंसिल में भी 20 अतिरिक्त सदस्य, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत व बंगाल की कौंसिल में भी 20 अतिरिक्त सदस्य नियुक्त किये गये।
  • परिषद के सदस्यों को कुछ अधिक अधिकार मिले। वार्षिक बजट पर वाद-विवाद व इससे सम्बन्धित प्रश्न पूछे जा सकते थे, परन्तु मत विभाजन का अधिकार नहीं दिया गया था। अतिरिक्त सदस्यों को बजट से सम्बन्धित विशेष अधिकार था, किन्तु वे पूरक प्रश्न नहीं पूछ सकते थे।
  • अतिरिक्त सदस्यों में से 2/5 सदस्य ग़ैर सरकारी होने चाहिए। ये सदस्य भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों, जातियों, व विशिष्ट हितों के आधार पर नियुक्त किये गये। यह परम्परा कालान्तर में भारतीय राष्ट्रीय एकता के विकास में बाधक बनी।
  • इस अधिनियम द्वारा जहाँ एक ओर संसदीय प्रणाली का रास्ता खुला तथा भारतीयों को कौंसिलों में अधिक स्थान मिला, वहीं दूसरी ओर चुनाव पद्धति एवं ग़ैर सदस्यों की संख्या में वृद्धि ने असन्तोष उत्पन्न किया।

 

1909 का भारतीय परिषद  एक्ट अथवा मार्ले-मिंटो सुधार 

  • नवम्बर , 1906 में लार्ड कर्जन के स्थान पर लार्ड मिन्टो को भारत का वायसराय नियुक्त किया गया तथा जॉन  मार्ले को भारत सचिव नियुक्त किया गया ।
  • मॉरले उदारवादी विचारों के व्यक्ति थे तथा भारतीय प्रशासन में सुधारों के समर्थक थे तथा भारत के वायसराय लार्ड मिन्टो , भारत सेक्रेटरी मार्ले  के विचारों से सहमत थे । इसलिए इनके द्वारा किये गये सुधारों को मार्ले  -मिन्टो  के सुधार के नाम से जाना जाता है ।
  • 1909 के अधिनियम द्वारा भारतीयों को विधि - निर्माण तथा प्रशासन दोनों में प्रतिनिधित्व प्रदान किया ।
  • केन्द्रीय विधान सभा में सदस्यों की संख्या 60 कर दी गयी । अब विधान मण्डल में 69 सदस्य थे जिनमें से 37 शासकीय सदस्य तथा 32 गैर शासकीय वर्ग के थे ।
  • 32 गैर सरकारी सदस्यों में से 27 सदस्य निर्वचित होते थे और पांच नाम जद ।
  • निर्णायक मण्डल को तीन भागों में बाँटा गया था - सामान्य निर्वाचक वर्ग , वर्गीय निर्वाचक वर्ग तथा विशिष्ट निर्वाचक वर्ग ।
  • इस अधिनियम ने केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधायनी शक्ति को बढ़ा दिया । परिषद् के सदस्यों को बजट की विवेचना करने तथा उस पर प्रश्न करने का अधिकार दिया गया ।
  • बंगाल मद्रास तथा बम्बई की कार्यकारिणी की संख्या बढ़ाकर 4 कर दी गयी । उप राज्यपालों को भी अपनी कार्यकारिणी नियुक्त करने की अनुमति दी गयी । परिषद् के सदस्यों को विदेशी सम्बन्धों तथा देशी राजाओं से सम्बन्धों कानून के सामने निर्णय के लिए आये प्रश्नों को उठाने की अनुमति नहीं थी ।
  • इस अधिनियम के द्वारा मुसलमानों के लिए पृथक मताधिकार तथा पृथक निर्वाचन क्षेत्रों की स्थापना की गयी । इस अधिनियम के बारे में के . एम . मुन्शी के अनुसार "इन्होंने उभरते हुए प्रजातन्त्र को मार डाला है । "
  • लार्ड मिन्टो ने पृथक् निर्वाचक मण्डल स्थापित करके लार्ड मॉरले को लिखा था - " हम नाग के दांत बो रहे हैं और इसका फल भीषण होगा । '' 
  •  इस अधिनियम के द्वारा स्थापित चुनाव प्रणाली बहुत ही अस्पष्ट तथा जनप्रतिनिधित्व के विरुद्ध थी ।
  • इस अधिनियम में मताधिकार के सम्बन्ध में हिन्दुओं के साथ अन्याय किया गया । 
  • प्रान्तों में गैर - सरकारी सदस्यों का बहुमत दिखावा मात्र था क्योंकि सरकारी और मनोनीत गैर सरकारी सदस्य मिलकर बहुमत में हो जाते थे ।  इस अधिनियम के बारे में मजूमदार टिप्पणी करते हुए कहते हैं - " 1909 के सुधार केवल चन्द्रमा की चांदनी के समान है । "
  • रैम्जे मैकडोनाल्ड के शब्दों में – “ ये सुधार प्रजातन्त्रवाद और नौकरशाही के मध्य एक अधूरा और अल्प कालीन समझौता है ।'' 

 

1919 का भारत सरकार अधिनियम  (मॉण्ट - फोर्ड सुधार )  

  • 1919 के अधिनियम का तात्कालिक कारण 1916 का होमरूल आन्दोलन तथा मेसोपोटेमिया कमीशन की रिपोर्ट थी । जिसमें भारतीय सरकार की अकुशलता का स्पष्ट आरोप था ।
  • 1919 के अधिनियम का यह भी प्रयत्न था कि किस प्रकार भारत के एक प्रभावशाली वर्ग को कम से कम दस वर्ष के लिए ब्रिटिश राज का समर्थक बना लिया जाय ।
  • इस अधिनियम में पहली बार ''उत्तरदायी शासन'' शब्दों का स्पष्ट प्रयोग किया गया था । जिसने भारत में तनावपूर्ण वातावरण को कुछ समय के लिए शान्त बना दिया। प्रांतों में आंशिक उत्तरदायी शासन तथा वैध शासन की स्थापना की गयी । 
  • 1793 ई० से भारत राज्य सचिव को भारतीय राजस्व से वेतन मिलता था इसे अंग्रेजी राज्य से मिलना तय किया गया ।
  • केन्द्रीय परिषद में भारतीयों को अधिक प्रभावशाली भूमिका दी गयी। वाइसराय के 8 सदस्यों में से 3 भारतीय नियुक्त किये गये और उन्हें - विधि , शिक्षा , उद्योग आदि विभाग सौंपे गये ।
  • इस नये अधिनियम के अनुसार सभी विषयों को केन्द्र तथा प्रान्तों में बांट दिया गया ।
  • केद्रीय सूची में वर्णित विषयों पर सपरिषद गवर्नर जनरल का अधिकार था । जैसे - विदेशी मामले , रक्षा , डाक - तार , सार्वजनिक ऋण आदि ।
  • प्रान्तीय सूची के विषय थे - स्थानीय स्वशासन , शिक्षा चिकित्सा , भूमिकर , जल संभरण , अकाल सहायता , कृषि व्यवस्था आदि ।
  • सभी अवशेष शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास थी ।
  • इस अधिनियम के तहत केन्द्र में द्विसदनीय व्यवस्था स्थापित की गयी । एक सदन राज्य परिषद तथा दूसरे को केन्द्रीय विधान सभा कहा गया ।
  • राज्य परिषद में सदस्यों की संख्या 60 निश्चित की गयी । जिसमें 34 निर्वाचित तथा शेष 26 गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत होते थे ।
  • राज्य - परिषद का प्रतिवर्ष नवीनीकरण होता था परन्तु ये सदस्य 5 वर्ष के लिए बनते थे । 
  • स्त्रियों को सदस्यता के उपयुक्त नहीं समझा गया । वाइसराय को इस सदन को बुलाने , स्थापित तथा भंग करने का अधिकार था ।
  • निम्न सदन को केन्द्रीय विधान सभा का नाम दिया गया । इसमें सदस्यों की संख्या 145 निर्धारित की गयी 104 निर्वाचित तथा 41 सदस्य मनोनीत होते मनोनीतों में 26 शासकीय तथा 15 अशासकीय थे । सभा कार्यकाल त्रिवर्षीय था , वायसराय इसके कार्यकाल को बढ़ा भी सकता था ।
  • द्विसदनीय केन्द्रीय विधानमण्डल को प्रर्याप्त शक्तियां दी गयी थी यह समस्त भारत के लिए कानून बना सकती थी ।
  • सदस्यों को प्रस्ताव तथा स्थगन प्रस्ताव लाने की अनुमति थी प्रश्न तथा पूरक प्रश्नों पर कोई रोक नहीं थी ।
  • सदस्यों को बोलने का अधिकार तथा स्वतन्त्रता थी ।
  • गवर्नर - जनरल क्राउन की अनुमति से कोई भी बिल पारित कर सकता था । वह अध्यादेश जारी कर सकता था जिसकी वैधता 6 माह की होती थी ।
  • इस विधेयक के तहत प्रान्तों में द्वैध शासन प्रणाली लागू की गयी । प्रान्तीय विषयों को दो भागों में बांटा गया था - आरक्षित तथा हस्तान्तरित विषय ।
  • आरक्षित विषयों पर प्रशासन गवर्नर अपने उन पार्षदों की सहायता से करता था जिन्हें वह मनोनीत करता था तथा हस्तान्तरित विषयों का प्रशासन निर्वाचित सदस्यों के द्वारा करता था ।
  • प्रान्तीय परिषदों में कम से कम 70 प्रतिशत सदस्य निर्वाचित तथा शेष मनोनीत होते थे । शासकीय सदस्यों की संख्यया 20 प्रतिशत से अधिक नहीं होती थी ।
  • 1919 के अधिनियम के द्वारा पंजाब में सिखों को कुछ प्रान्तों में यूरोपियनों , एग्लो इंडियनों को तथा भारतीय ईसाइयों को पृथक प्रतिनिधित्व दिया गया ।
  • इस अधिनियम द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली लागू की गयी और मताधिकार 3 प्रतिशत से बढ़ाकर 10 प्रतिशत कर दिया गया ।

 

भारत शासन अधिनियम - 1935 

भारत सरकार अधिनियम- 1935 के पारित होने से पूर्व इससें 'साइमन आयोग रिपोर्ट', 'नेहरू समिति की रिपोर्ट', ब्रिटेन में सम्पन्न तीन गोलमेज सम्मेलनों में हुये कुछ विचार-विमर्शों से सहायता ली गयी। तीसरे गोलमेज सम्मेलन के सम्पन्न होने के बाद कुछ प्रस्ताव 'श्वेत पत्र' नाम से प्रकाशित हुए, जिन पर बहस के लिए ब्रिटेन के दोनों सदनों एवं कुछ भारतीय प्रतिनिधियों ने रिपोर्ट प्रस्तुत की। अन्ततः इस रिपोर्ट के आधार पर 1935 ई. का अधिनियम पारित हुआ। 1935 ई. का अधिनियम काफ़ी लम्बा एवं जटिल था। इसे 3 जुलाई, 1936 को आंशिक रूप से लागू किया गया, किन्तु पूर्णरूप से चुनावों के बाद अप्रैल, 1937 में यह लागू हो पाया।

अधिनियम की विशेषताएं 

इस अधिनियम में कुल 321 धारायें एवं 10 सूचियों का समावेश था, अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार थीं-

  • केंद्र में द्वैध शासन की व्यवस्था की गयी। संघीय विषयों को दो भागों में संरक्षित एवं हस्तान्तरित में विभाजित किया गया। संरक्षित विषय का प्रशासन गवर्नर-जनरल कुछ पार्षदों की सहायता से करता था, जो संघीय व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी नहीं थे। हस्तान्तरित विषयों का प्रकाशन गवर्नर-जनरल व मंत्रियों को सौंपा गया। मंत्री विधान मण्डल के सदस्यों में से चुने जाते थे तथा उसके प्रति उत्तरदायी होते थे।
  • इस अधिनियम में एक 'अखिल भारतीय संघ' की व्यवस्था की गयी। इस संघ का निर्माण ब्रिटिश भारत के प्रान्तों, चीफ़ कमिश्नर प्रान्तों व देशी रियासतों से मिलाकर होने था, किन्तु यह व्यवस्था लागू न हो सकी, क्योंकि प्रस्तावित संघ में भारतीय प्रान्तों का सम्मिलित होना अनिवार्य था, परन्तु भारतीय रियासतों का सम्मिलित होना वैकल्पिक था।
  • प्रान्तों में द्वैध शासन समाप्त कर प्रान्तीय स्वायत्ता की व्यवस्था की गयी।
  • प्रान्तीय विधान मण्डलों का विस्तार किया गया, प्रान्तों में 11 में से 6 विधान मण्डलों में दो सदनों की व्यवस्था की गयी। केन्द्रीय विधान मण्डल के सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गयी।
  • प्रान्तों में मताधिकार का विस्तार किया गया। साम्प्रदायिक निर्वाचन को और बढ़ाकर इसे हरिजनों तक विस्तृत किया गया।
  • विवादों के निपटारे के लिए संघीय न्यायालय अंतिम न्यायालय नहीं था। अन्तिम न्यायालय 'प्रिवी कौंसिल' थी।
  • बर्मा (वर्तमान म्यांमार) को भारत से अलग कर दिया गया।
  • गृह सरकार में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए, जिन विषयों पर गवर्नर अपने मंत्रियों के सहयोग से कार्य करता था, उस पर उन्होंने भारतमंत्री के अधिकार को समाप्त कर दिया और साथ ही 'इण्डियन कौंसिल' को समाप्त कर दिया गया।
  • अधिनियम के तहत एक संघीय न्यायालय एवं 'रिजर्व बैंक ऑफ़ इण्डिया' की स्थापना की गयी।
  • पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इसे 'अनेक ब्रेकों वाली परन्तु इन्जन रहित मशीन' की संज्ञा दी। मदन मोहन मालवीय ने इसे 'बाह्य रूप से जनतंत्रवादी एवं अन्दर से खोखला' कहा। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने इसे 'द्वैध शासन पद्धति से भी बुरा एवं बिल्कुल अस्वीकृत' बताया। नेहरू जी ने इसे 'दासता का नया चार्टर' कहा।

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