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जैन धर्म

  • जैन शब्द संस्कृत के जिन शब्द से बना है, जिसका अर्थ विजेता होता है अर्थात जिन्होंने अपने मन, वाणी एवं काया को जीत लिया हो।
  • जैन अनुश्रुतियों और परम्पराओं के अनुसर जैन धर्म में 24 तीर्थंकर हुए, परन्तु इनमें से पहले 22 तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता संदिग्ध है।
  • जैन धर्म की स्थापना का श्रेय जैनियों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव या आदिनाथ को जाता है, जिन्होंने छठी शताब्दी .पू. जैन आन्दोलन का प्रवर्तन किया। ऋषभदेव (प्रथम तीर्थंकर) अरिष्टनेमि (22वें तीर्थंकर) का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है
  • जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ थे, जो काशी के इक्ष्वाकु वंशीय राजा अश्वसेन के पुत्र थे। इनका काल महावीर से 250 .पू. माना जाता है। इनके अनुयायियों कोनिर्ग्रंथकहा जाता था।
  • पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित चार महाव्रत इस प्रकार हैं-सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह (धन संचय का त्याग) तथा अस्तेय (चोरी करना)
  • पार्श्वनाथ ने नारियों को भी अपने धर्म में प्रवेश दिया क्योंकि जैन ग्रंथ में स्त्री संघ की अध्यक्षापुष्पचूलाका उल्लेख मिलता है।
  • पार्श्वनाथ को झारखण्ड के गिरिडीह जिले में सम्मेद पर्वत पर निर्वाण प्राप्त हुआ।
  • जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक 24वें एवं अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी थे।
  • महावीर ने अपने जीवन काल में ही एक संघ की स्थापना की जिसमें 11 अनुयायी सम्मिलित थे। येगणधरकहलाए।
  • जैन धर्म पुनर्जन्म एवं कर्मवाद में विश्वास करता है, उनके अनुसार कर्मफल ही जन्म तथा मृत्यु का कारण है।
  • जैन धर्म में युद्ध और कृषि दोनों वर्जित हैं, क्योंकि दोनों में जीवों की हिंसा होती है।
  • आरंभ में जैन धर्म में मूर्ति पूजा का प्रचलन नहीं था, किन्तु बाद में महावीर सहित सभी पूर्व तीर्थंकरों की मूर्ति पूजा आरंभ हो गई।
  • जैन मत के अनुसार विश्व शाश्वत है, परन्तु सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर को नहीं स्वीकारता है।

महावीर स्वामी-जीवन परिचय

जन्म        -             599 0पू0 अथवा 540 0पू0 में कुंडग्राम वैशाली, बिहार

पिता        -             सिद्धार्थ (वज्जि संघ के ज्ञातृक कुल के प्रधान)

माता       -             त्रिशला (लिच्छवी शासक चेटक की बहन)

पत्नी        -             यशोदा (कुंडिंय गोत्र की कन्या)

पुत्री         -             प्रियदर्शना 

दामाद     -             जामालि

गृहत्याग  -             30 वर्ष की आयु में बड़े भाई नंदिवर्धन की आज्ञा से।

शिष्य      -             मक्खलिपुत्रगोशाल (आजीवक संप्रदाय के संस्थापक)

ज्ञान प्राप्ति (कैवल्य) -  12 वर्ष की तपस्या के पश्चात् 42 वर्ष की आयु में जृम्भिक ग्राम में ऋजुपालिका नदी के तट पर साल वृक्ष के नीचे।

निर्वाण मृत्यु  -  527 0पू0 अथवा 468 0पू0 पावापुरी (वर्तमान राजगीर के समीप)में मल्ल राजा सुस्तपाल के यहां।

 

जैन धर्म की प्रमुख शिक्षाएं पंच महाव्रत/अणुव्रत   

अहिंसा - जीव की हिंसा/हत्या करना

सत्य - सदा सत्य बोलना

अपरिग्रह - संपत्ति इकट्ठा करना

अस्तेय - चोरी करना

ब्रह्मचर्य - इंद्रियों को वश में करना

नोट -इन पांच व्रतों में ऊपर के चार पार्श्वनाथ ने दिये थे जबकि पांचवा व्रतब्रह्मचर्यमहावीर ने जोड़ा।

उपर्युक्त पांच महाव्रत/अणुव्रतों के अतिरिक्त तीन गुणव्रत भी बताए हैं-

1. दिग्व्रत -दिशाओं में भ्रमण की मर्यादा बांधता

2. अनर्थ दण्डवत् -प्रयोजन हीन वस्तुओं का परित्याग 

   करना

3. भोगोपभोग -परिमाण अर्थात भोग्य पदार्थों का परिमाण-निर्धारण।

 

जैन धम्र में सात शील व्रतों का उल्लेख है-

1. दिग्व्रत - अपनी क्रियाओं को विशेष परिस्थिति में नियंत्रित रखना,

2. देशव्रत - अपने कार्य कुछ विशिष्ट प्रदेशों तक सीमित रखना,

3. अनर्थदण्ड व्रत - बिना कारण अपराध करना,

4. सामयिक -चिंतन के लिए कुछ समय निश्चित करना,

5. प्रोषधोपवास -मानसिक एवं कायिक शुद्धि के लिए उपवास करना,

6. उपभोग-प्रतिभोद परिणाम -जीवन में प्रतिदिन काम अपने वाली वस्तुओं पदार्थो को नियंत्रित करना  

7. अतिथि संविभाग -अतिथि को भोजन कराने के उपरांत भोजन करना।

 

जैन धर्म में धर्म के दस लक्षण बताए गए हैं, ये इस प्रकार हैं-

1. उत्तम क्षमा -क्रोधहीनता

2. उत्तम मार्दव - अहंकार का अभाव

3. उत्तम मार्जव - सरलता एवं कुटिलता का अभाव

4. उत्तम सोच - सांसारिक बंधनों से आत्मा को परे रखने की सोच

5. उत्तम सत्य - सत्य से गंभीर अनुरक्ति

6. उत्तम संयम - सदा संयमित जीवन-यापन

7. उत्तम तप - जीव को आजीव से मुक्त करने के लिए कठोर तपस्या

8. उत्तम अकिंचन - आत्मा के स्वाभाविक गुणों में आस्था

9. उत्तम ब्रह्मचर्यब्रह्मचर्य व्रत का कड़ाई से अनुपालन

10. उत्तम त्याग - त्याग की भावना को सर्वोपरि रखना

 

त्रिरत्न

कर्मफल से मुक्ति के लिए त्रिरत्न का अनुशीलन आवश्यक है-

1. सम्यक् दर्शन - वास्तविक ज्ञान,

2. सम्यक् ज्ञान - सत्य में विश्वास 

3. सम्यक् आचरण - सांसारिक विषयों से उत्पन्न सुख-दुःख के प्रति समभाव।

 

दर्शन

अनेकांतवाद - बहुरूपता का सिद्धांत

सप्तभंगीनय/स्यादवाद - सापेक्षता का सिद्धांत

नववाद - आंशिक दृष्टिकोण के सिद्धांत

स्यादवाद 

यह जैन का ज्ञान संबंधी सिद्धांत है। इसके अनुसार, दृष्टिकोण की भिन्नता के कारण हर ज्ञान विभिन्न स्वरूपों में व्यक्त किया जा सकता है। इस सप्तभंगी ज्ञान को स्यादवाद कहते हैं। जैनियों के अनेकांतवाद सिद्धांत की तार्किक परिणति उनके सिद्धांत स्यादवाद में होती है।

अनंत चतुष्टय

जब जीव से कर्म का अवशेष बिल्कुल समाप्त हो जाता है ब वह मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। मोक्ष के पश्चात् जीवन के आवागमन के चक्र से मुक्ति मिल जाती है तथा वह अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीर्य तथा अनंत सुख की प्राप्ति कर लेता है। इसे ही जैन शास्त्रों में अनंत चतुष्टयकी संज्ञा दी गई है।

 

 

जैन धर्मानुसार ज्ञान के तीन स्रोत हैं-

1. प्रत्यक्ष, 2. अनुमान  3. तीर्थंकरों के वचन

कैवल्य

  • जब जीव से कर्म का अवशेष बिल्कुल समाप्त हो जाता है ब वह मोक्ष की प्राप्ति (कैवल्य) कर लेता है।
  • जैन धर्म में सिर्फ संघ के सदस्यों के लिए कैवल्य का नियम है, सामान्य जन के लिए नहीं। सामान्य जन या गृहस्थों को भिक्षु जीवन में प्रवेश करने से पूर्व 11 कोटियों से होकर गुजरना पड़ता है।
  • महावीर स्वामी को कैवल्य की प्राप्ति हो जाने के बाद ही केवलिन, जिन विजेता, अर्ह योग्य, निर्ग्रंथ बंधन रहित जैसी उपाधियां मिलीं।
  • जैन धर्म पुनर्जन्म कर्मवाद में विश्वास करता है। यह वेद की अपौरूषेयता तथा ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार करता है।

 

सल्लेखना/संलेखना

जैन दर्शन में सल्लेखनासत्लेखनाशब्द से मिलकर बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ अच्छाई का लेखा-जोखा होता है। इस दर्शन में अहिंसा एवं काया-क्लेश पर अत्यधिक बल दिया गया है। अतः सल्लेखना शब्द उपवास द्वारा प्राण त्याग के संदर्भ में आया है।

 

संथारा प्रथा

  • संथारा प्रथा के अन्तर्गत जब किसी व्यक्ति को लगता है कि वह मृत्यु के निकट है तो वह एकांतवास ग्रहण कर लेता है और अन्न-जल त्याग देता है और मौन व्रत धारण कर लेता है। इसके बाद वह किसी भी दिन देह त्याग देता है
  • विदित है कि राजस्थान हाईकोर्ट ने अगस्त 2015 में संथारा प्रथापर रोक लगा दी थी। हाईकोर्ट ने इस प्रथा को आत्महत्या की श्रेणी में रखते हुए भारतीय दण्ड संहिता 306 तथा 309 के तहत दण्डनीय बताया था। परन्तु सुप्रीम कोर्ट ने जैन समुदाय से जुड़े संगठनों की याचिकाओं परसंथाराको गैर-कानूनी घोषित करने वाले राजस्थान हाईकोर्ट के फैसले पर अंतरिम रोक लगा दी।

 

जैन साहित्य

  • अब तक उपलब्ध जैन साहित्य प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में मिलते हैं। प्रारंभिक जैन साहित्य अर्द्ध-मागधी भाषा में लिखा गया बाद में जैन धर्म ने प्राकृत भाषा को अपनाया। कालांतर में जैनियों ने शौरसेनी, संस्कृत और कन्नड़ भाषा में भी साहित्य लिखा।
  • जैन साहित्य कोआगमकहा जाता है, जिसमें 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण,6 छेदसूत्र, 4 मूलसूत्र, 1 नंदी सूत्र एवं 1 अनुयोगद्वार हैं।
  • इन आगम ग्रंथों की रचना संभवतः श्वेताम्बर संप्रदाय के आचार्यों द्वारा महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद की गई।
  • जैन ग्रंथ के आचारांगसूत्रमें जैन भिक्षुओं के आचार-नियम विधि-विषेधों का विवरण, भगवती सूत्र में महावीर के जीवन, न्यायधम्मकहासुत्त में महावीर की शिक्षाओं का संग्रह तथा उवासगदसाओं में हूण शासक तोरमाण तथा भद्रबाहुचरित से चंद्रगुप्त मौर्य के राज्यकाल की घटनाओं पर प्रकाश पड़ता है।
  • भद्रबाहु ने कल्पसूत्रको संस्कृत में लिखा है, जिसमें तीर्थंकरों का जीवन चरित्र है।
  • भगवती सूत्र, महावीर के जीवन पर प्रकाश डालता है तथा इसमें 16 महाजनपदों का उल्लेख मिलता है।

 

जैनधर्म के तीर्थंकर एवं उनके प्रतीक

तीर्थंकर                              प्रतीक     

ऋषभदेव (आदिनाथ)          वृषभ

विमलनाथ                           वराह

अजितनाथ                           गज

अनंतनाथ                           श्येन

संभवनाथ                          अश्व

धर्मनाथ                              वज्र

अभिनंदन नाथ                  कपि

शांतिनाथ                           मृग

सुमतिनाथ                         क्रौंच

कुंथनाथ                            अज

पद्मप्रभु                              पद्म

अरनाथ                            मीन

सुपार्श्वनाथ                        स्वास्तिक

मल्लिनाथ                         कलश

चंद्रप्रभु                              चंद्र

मुनिसुव्रत                          कूर्म

सुविधिनाथ                        मकर

नेमिनाथ                           नीलोत्पल

शीतलनाथ                        श्रीवत्स

अरिष्टिनेमि                        शंख

श्रेयांसनाथ                         गैंडा

पार्श्वनाथ                           सर्पफण

वसुपूज्य                            महिष

महावीर                             सिंह

 

जैन धर्म के सिद्धांत

  • दार्शनिक सिद्धांत              
    • कर्मवाद           
    • आत्मवाद                         
    • निर्वाण               
    • पुनर्जन्म  
  • व्यावहारिक सिद्धांत
    • पंच महाव्रत 
    • अणुव्रत
  • सामाजिक सिद्धांत
    • नारी स्वातंत्र्य 
    • आचार नग्नता 
    • पाप 

नोट : उल्लेखनीय है कि जैन धर्म में 18 पापों की कल्पना की गई है।

 

जैन संगीतियां

  • महावीर स्वामी के समय जैन धर्म का सर्वाधिक प्रसार हुआ। महावीर के समकालीन  शासक बिम्बिसार, चंडप्रद्योत, अजातशत्रु, उदायिन, दधिवाहन एवं चेटक थे। ये सभी जैन धर्म के अनुयायी थे।
  • मौर्य वंश का शासक चंद्रगुप्त मौर्य भी जैन धर्म का अनुयायी था। संप्रति ने जैन आचार्य सुहास्ति से शिक्षा ली थी। चंद्रगुप्त मौर्य के समय में पाटलिपुत्र में प्रथम जैन संगीति का आयोजन हुआ।
  • कलिंग नरेश खारवेल भी जैन धर्म का अनुयायी था। उदयगिरि पहाड़ी में इसने जैन भिक्षुओं के लिए एक गुफा का निर्माण करवाया।
  • पूर्व मध्यकाल में राष्ट्रकूट, गंग, गुजरात के चालुक्य एवं चंदेल शासकों ने भी जैन धर्म को प्रश्रय दिय। राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष जैन धर्म का अनुयायी था, इसने रत्नमालिकानामक ग्रंथ की रचना की।
  • गंग वंश के राजा राजमल चतुर्थ के मंत्री एवं सेनापति चामुंड राय ने 974 0 में एक बाहुबली जिन की मूर्ति (गोमतेश्वर) का निर्माण श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) में करवाया। यहां पर प्रत्येक 12 वर्ष में महामस्तकाभिषेक किया जाता है।
  • महावीर की शिक्षाओं को साहित्यों में संकलित करने के लिए दो जैन सभाओं का भी आयोजन किया गया।

जैन संगीतियां

सम्मेलन

सम्मेलन वर्ष

स्थान

अध्यक्ष

परिणाम

प्रथम

322 .पू.

पाटलिपुर (बिहार)

स्थूलभद्र 

बिखरे एवं लुप्त ग्रंथों का संचयन, 12 अंगों का संकलन, जैन धर्म का दो संप्रदायों में विभाजन –श्वेतांबर व दिगंबर।

द्वितीय

513 या 526 .

वल्लभी( गुजरात ) 

देवर्धि क्षमाश्रमण 

कुल 11 अंगों को लिपिबद्ध किया गया।

 

प्रसिद्ध जैन मंदिर

  • प्रारंभ में जैनों ने स्तूपों का निर्माण किया, बाद में मूर्तिकला एवं मंदिरों का विकास हुआ। कुषाण काल में मथुरा जैन कला का एक महत्वपूर्ण केन्द्र था। गुप्त काल में जैन कला की मथुरा शैली उन्नत अवस्था में थी। प्रमुख जैन मंदिर हैं-         
  • ऋषभनाथ मंदिर, जलमंदिर, दिलवाड़ा का जैन मंदिर, पारसनाथ का जैन मंदिर, मेगुती जैन मंदिर, कुमारग्राम प्राचीन मंदिर, दिगंबर जैन मंदिर-पार्श्वनाथ का मंदिर रणकपुर जैन मंदिर, शोभनाथ मंदिर, श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ, जैन श्वेतांबर-त्रिलोकपुर तीर्थ आदि।    

 

मतभेद तथा विभाजन

  • महावीर के पूर्व तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने अपने अनुयायियों को निचले और ऊपरी अंगों को ढकने की अनुमति दी थी, किन्तु महावीर ने वस्त्र का सर्वथा त्याग करने का आदेश दिया। इसका आशय यह था कि वे अपने अनुयायियों के जीवन में और भी अधिक संयम लाना चाहते थे। इस कारण कालांतर में जैन धर्म दो संप्रदायों में विभक्त हो गया-
    •  श्वेतांबर अर्थात सफेद वस्त्र धारण करने वाले  
    •  दिगंबर अर्थात नग्न रहने वाले।

एक अन्य परम्परा के अनुसार, महावीर के निर्वाण के 200 वर्षों बाद मगध में 12 वर्षों तक अकाल पड़ा। अतः बहुत से जैनभद्रबाहुके नेतृत्व में प्राण बचाने हेतु दक्षिण की ओर चले गए एवं शेष जैन लोगस्थूलबाहुके नेतृत्व में मगध में ही रह गए। अकाल समाप्त होने के बाद जब वे मगध लौटे तो उनमें वैचारिक मतभेद उत्पन्न हो गए। तब से दक्षिणी जैनदिगंबरतथा मगध के जैनश्वेतांबरकहलाए।

 

श्वेतांबर एवं दिगंबर में अन्तर

  • श्वेतांबर (तेरापंथी) 
    • मोक्ष प्राप्ति के लिए वस्त्र त्यागना आवश्यक नहीं।
    • स्त्रियां निर्वाण की अधिकारी।
    • कैवल्य प्राप्ति के बाद भी लोगों को भोजन की आवश्यकता।

नोटइस संप्रदाय के अनुयायी उदारवृत्ति वाले थे तथा धार्मिक नियमों में परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन के पक्षधर थे। स्थानकवासी भारत के श्वेतांबर जैनों का एक आधुनिक उपसंप्रदाय है। स्थानकवासी मूल समूह से इस अर्थ में भिन्न हैं कि वे मूर्तिपूजा एवं मंदिर के आचार को अस्वीकार करते हैं।  

  • दिगंबर (समैया)
    • मोक्ष प्राप्ति के लिए वस्त्र त्यागना आवश्यक,
    • कैवल्य प्राप्ति के बाद भोजन की आवश्यकता नहीं  
    • स्त्रियों का निर्वाण संभव नहीं।

  नोट : यह कट्टरपंथी जैनियों का संप्रदाय था। इस संप्रदाय के अनुयायी जैन धर्म के नियमों का पालन बड़ी कठोरता से करते थे।

 

जैन धर्म का समाज पर प्रभाव

  • सर्वप्रथम जैन धर्म द्वारा ही वर्णव्यस्था की जटिलता और कर्मकांडों की बुराइयों को रोकने के लिए सकारात्मक प्रयास प्रारंभ किये गए।
  • जैनों ने ब्राह्मणीय भाषासंस्कृतके स्थान पर आम जनमानस की भाषा प्राकृत में उपदेश दिया जैन साहित्य अर्द्ध-मागधी में लिखे गए।
  • जैन धर्म में अहिंसा पर अत्यधिक बल देने के कारण इसके अनुयायी कृषि तथा युद्ध में संलग्न होकर व्यापार एवं वाणिज्य को महत्व देते थे, जिससे व्यापार-वाणिज्य की उन्नति हुई तथा नगरों की संपन्नता बढ़ी।
  • जनता को जैन धर्म के सीधे एवं सरल उपदेशों ने आकर्षित किया तथा उत्तर वैदिककालीन कर्मकांडीय जटिल विचारधारा के सम्मुख जैनधर्म के रूप में जीवन-यापन का सीधा-साधा मार्ग प्रस्तुत किया।

 

जैन धर्म के पतन के कारण

जैन धर्म के पतन के निम्नलिखित कारण थे-

  • आत्मपीड़न, कठोर व्रत एवं तपस्या पर बल जाति व्यवस्था के दर्शन को बनाए रखना।
  • अहिंसा पर अत्यधिक बल (कृषि करने युद्ध में संलग्न होने से मना किया) के कारण सामान्य जन के लिए नियम धारण कर पाना काफी असहज साबित हुआ।
  • जैन दर्शन में अत्यधिक क्लिष्टता होने के कारण इसके स्यादवाद, अनेकांतवाद, द्वैतवादी तत्वज्ञान आदि को समझना साधारण जनता के वश की बात थी। परिणामस्वरूप जैन धर्म तपस्वियों तक ही सीमित रहा।
  • प्रारंभ में जैन धर्म एक सशक्त आंदोलन था, किन्तु बाद में जैन मतावलम्बियों में आंतरिक मतभेद प्रारंभ हो गए। परिणामस्वरूप जैन धर्म का यह सांप्रदायिक विभाजन जैन धर्म के लिए अत्यधिक घात सिद्ध हुआ और जैन धर्म पतन की ओर अग्रसर हो गया।
  • चूंकि प्रारंभ में जैन साहित्य का लेखन प्राकृत भाषा में किया गया। अतः जनसाधारण ने इसे आसानी से समझा, क्योंकि उस समय जनसाधारण की भाषा ही प्राकृत थी, किन्तु बाद में जब से जैन साहित्य संस्कृत में लिखा जाने लगा तब से जनसाधारण के लिए जैन साहित्य को समझना दुष्कर हो गया। परिणामतः जनसाधारण का जैन धर्म के प्रति दृष्टिकोण उदासीन होता चला गया।
  • बौद्ध धर्म का विस्तार एवं ब्राह्मण धर्म का पुनरूत्थान।
  • जैन धर्म के उत्कर्ष में तत्कालीन नरेशों का महत्वपूर्ण योगदान था किन्तु बाद में जैन धर्म को राजकीय आश्रय प्राप्त हो सका। फलतः राजाश्रय के अभाव से जैन धर्म के अनुयायियों की संख्या धीरे-धीरे घटने लगी।
  • किसी धर्म के प्रसार में उसके प्रचारकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। कालांतर में जैन धर्म में अच्छे धर्मप्रचारकों का अभाव हो गया। फलतः जैन धर्म के प्रसार का मार्ग अवरूद्ध हो गया।

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