राज्यपाल
संविधान के अनुसार, राज्यपाल राज्य स्तर पर संवैधानिक प्रमुख होता है। कार्यपालिका प्रमुख होने के नाते वह दोहरी भूमिका निभाता है-
- राज्य के प्रमुख के रूप में तथा
- केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में, जो केंद्र तथा राज्य के बीच में कड़ी का काम करता है।
नियुक्ति
राज्यपाल की चयन नीति को लेकर संविधान सभा में व्यापक विचार-विमर्श किया गया था और इस संबंध में अनेक वैकल्पिक प्रस्ताव पेश किये गये थे। मुख्य रूप से चार विकल्पों पर विचार किया गया था-
वयस्क मताधिकार के जरिए चुनाव-
- राज्य की जनता द्वारा सीधे राज्यपाल का चुनाव कराने का प्रस्ताव इस आधार पर अस्वीकार कर दिया गया था राज्य में सीधे जनता द्वारा चुने हुए दो शासनाध्यक्षों- राज्यपाल और मुख्यमंत्री होने से अनेक जटिलताएं पैदा हो सकती है।
- ऐसी आशंका व्यक्त की गयी कि जनता द्वारा चुना हुआ राज्यपाल किसी मुद्दे पर जनता द्वारा चुने हुए मुख्यमंत्री से इस आधार पर प्रतिस्पर्धा कर सकता है कि उसे भी जनता का विश्वास प्राप्त है ।
निचले सदन के सदस्यों द्वारा चुनाव अथवा जन-प्रतिनिधित्व प्रणाली के जरिए विधायिका के दोनों सदनो द्वारा चुनाव-
- राज्य विधायिका द्वारा राज्यपाल का चुनाव करने का प्रस्ताव इस आधार पर अस्वीकार कर दिया गया कि यदि विधायिका ने राज्यपाल का चुनाव किया तो वह बहुमत वाले दल अथवा बहुमत प्राप्त विभिन्न दलों के गठबन्धन का खिलौना मात्र बनकर रह जायेगा।
राज्य के विधायिका के निचले सदन द्वारा सुझाए गये एक पैनल के आधार पर राष्ट्रपति द्वारा चुनाव-
इस विकल्प को भी सदस्यों ने इस आधार पर अस्वीकार कर दिया कि यदि राष्ट्रपति को एक पैनल मे से ही चुनाव करना पड़ा तो उसके चुनाव का क्षेत्र सीमित हो जायेगा।
राष्ट्रपति द्वारा नियुक्ति-
- अंत में यह निर्णय लिया गया कि राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा पांच वर्ष के लिए की जाय इसके अनुसार, संविधान में अनुच्छेद 155 को जोड़ा गया, जिसमें कहा गया की राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा उसके हस्ताक्षर तथा मुहर लगे हस्ताक्षर द्वारा की जाती है। जिस प्रकार कनाडा में राज्यपालों की नियुक्ति गवर्नर-जनरल द्वारा होती है, उसी प्रकार भारत में राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
- दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 153 में यह प्रावधान है कि भारत के प्रत्येक राज्य में एक राज्यपाल होगा किंतु 1956 में किए गए संशोधन के अनुसार एक ही व्यक्ति को दो या अधिक राज्यों का राज्यपाल नियुक्त किया जा सकता है। इस उपबंध के अनुसार असम के राज्यपाल को मेघालय का राज्यपाल भी नियुक्त किया गया है।
कार्यकाल
- संविधान के अनुच्छेद 156 में राज्यपाल के कार्यकाल के संदर्भ में जानकारी दी गई है। आमतौर पर राज्यपाल का कार्यकाल पांच वर्ष का होता है। अनुच्छेद 156 (1) में यह भी व्यवस्था है कि राज्यपाल तब तक अपने पद पर बना रह सकता है, जब तक कि राष्ट्रपति की इच्छा हो। इस तरह राष्ट्रपति, राज्यपाल को एक राज्य से दूसरे राज्य में स्थानांतरित कर सकता है अथवा उसी राज्य में फिर से नियुक्त कर सकता है, अथवा राष्ट्रपति किसी भी समय उसे पद से हटा सकता है।
- अनुच्छेद 156 (2 ) के अनुसार राज्यपाल राष्ट्रपति के पास अपना त्यागपत्र भेजकर पदमुक्त हो सकता है। अनुच्छेद 156 (3) के अनुसार उपर्युक्त परिस्थितियों के अतिरिक्त, राज्यपाल अपनी नियुक्ति की तिथि से पांच वर्ष तक अपने पद पर बना रह सकता है ।
योग्यताएं
अनुच्छेद 157 और 158 के अनुसार कोई भी व्यक्ति राज्यपाल होने के योग्य नही है यदि वह-
- भारत का नागरिक न हो।
- उसने 35 वर्ष की आयु पूरी न की हो।
- संसद अथवा किसी भी राज्य की विधानमंडल के किसी भी सदन का सदस्य हो, तथा
- किसी भी लाभ के पद पर हो।
राज्यपाल की योग्यताओं सम्बन्धी सरकारिया आयोग की सिफारिशे-
केंन्द्र तथा राज्य के परस्पर सम्बन्धों के ढांचे को विचारने के लिए जून 1983 में एक आयोग नियुक्त किया गया था, जिसकी अध्यक्षता न्यायमूर्ति आर0एस0 सरकारिया ने की थी जिसको आम तौर पर सरकारिया आयोग कहा जाता है। इस आयोग ने अक्टूबर 1987 में अपनी रिपोर्ट में राज्यपाल के योग्यता संबन्धी निम्नलिखित सिफारिशे की थी-
- राज्यपाल की नियुक्ति से पूर्व संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री से परामर्श अवश्य लेना चाहिए।
- राज्यपाल के पद पर नियुक्त किया जाने वाला व्यक्ति जीवन के किसी क्षेत्र में प्रसिद्ध होना चाहिए।
- ऐसा व्यक्ति किसी दूसरे राज्य से सम्बद्ध होना चाहिए|
- ऐसा व्यक्ति उस राज्य की स्थानीय राजनीति से अधिक संबंधित नहीं होना चाहिए।
- उस व्यक्ति ने राजनीति, विशेषकर उस राज्य की राजनीति में भाग न लिया हो।
- जिस राज्य में विपक्षी दल की सरकार हो वहां केंद्र में शासक दल के किसी व्यक्ति को राज्यपाल नहीं नियुक्त किया जाना चाहिए।
कुल मिलाकर इतने वर्षों में दो प्रथाएं प्रचलित हुई । पहली राज्यपाल नियुक्त किया जाने वाला व्यक्ति उसी राज्य से संबंधित न हो, जिसमें उसे राज्यपाल नियुक्त किया जाना है। दूसरी राज्यपाल पद के लिए व्यक्ति की नियुक्ति के संबंध में निर्णय लेते समय राज्य के मुख्यमंत्री को विश्वास में लेना चाहिए। आमतौर पर, किसी भी व्यक्ति की राज्यपाल पद पर नियुक्ति के बारे में अंतिम निर्णय लेने से पूर्व कंद्रीय गृहमंत्री संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री से विचार विमर्श करता है। लेकिन अनेक उदाहरण हैं जब ऐसा नहीं किया गया। इस प्रथा का पालन विशेषतौर पर उन राज्यों के मामले में नहीं किया गया, जिन राज्यों में केंद्र से पृथक किसी अन्य दल की सरकार है।
वेतन और भत्ते
- राज्यपाल को मासिक 3.5 लाख रूपये वेतन प्रदान किया जाता है।
- उसे निःशुल्क सरकारी आवास उपलब्ध कराया जाता है। वह वे सभी भत्ते और सुविधांएं पाने का अधिकारी है जो संविधान के शुरूआती वर्षों में प्रांतीय गवर्नर को दिये जाते थे।
- संसद को राज्यपाल के वेतन, भत्ते तथा अन्य सुविधाओं से संबंधित कानून बनाने का अधिकार है लेकिन उसके पद पर बने रहने के दौरान उसके वेतन और भत्ते घटाए नहीं जा सकते अनुच्छेद 158 (3)(4) । राज्यपाल के वेतन व भत्ते राज्य के संचित कोषों में से दिये जाते है, जिन पर राज्य के विधानमंडल को मतदान का अधिकार नहीं होता है ।
न्यायिक सुविधाएं
राज्यपाल को कुछ न्यायिक सुविधाएं प्रदान की गई है, जो इस प्रकार हैं -
- वह अपने पद की शक्तियों के प्रयोग और कर्तव्यों के पालन के संबंधों में किसी न्यायालय के प्रति उत्तरदायी नही है।
- उसके कार्यकाल में उसके विरूद्ध फौजदारी अभियोग नहीं चलाया जा सकता।
- उसके कार्यकाल में उसे बंदी बनाने के लिए न्यायालय द्वारा आदेश जारी नहीं किया जा सकता।
- व्यक्ति के रूप में राज्यपाल के विरूद्ध दीवानी अभियोग चलाया जा सकता है परंतु इस उद्देश्य के लिए उसे दो मास की अग्रिम सूचना देना अनिवार्य है।
शक्तियां और कार्य
राज्यपाल राज्य में लगभग वे समस्त कार्य करता है जो केंद्र में राष्ट्रपति द्वारा किये जाते है किंतु राज्यपाल की कोई राजनयिक या सैन्य संबंधी शक्तियां नही है जैसा कि राष्ट्रपति को प्राप्त है। राज्यपाल के अधिकार और कर्तव्यों को चार भागों में बांटा जा सकता है- कार्यपालिका, विधायिका, वित्त तथा न्यायपालिका, संबंधित शक्तियां।
कार्यपालिका संबन्धी शक्तियां-
- राज्यपाल, राज्य सरकार का कार्यकारी प्रमुख होता है। राज्य के सभी कार्यकारी अधिकार उसके पास होते है । जिनका उपयोग वह प्रत्यक्षतः अथवा अपने अधीनस्थ अधिकारियों द्वारा कर सकता है। राज्य के कार्यपालिका संबंधी सभी कार्य राज्यपाल के नाम पर किये जाते है। वह राज्य सरकार का कामकाज सामान्य ढंग से चलाने तथा मंत्रियों में कार्य वितरण के लिए नियम बनाता है।
- राज्यपाल मुख्यमंत्री की नियुक्त करता है तथा, मुख्यमंत्री के परामर्श के अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करता है। राज्यपाल के पास मंत्रियों की नियुक्ति के अधिकार के साथ ही बर्खास्तगी का भी अधिकार होता है।
- वह मुख्यमंत्री सहित सभी मंत्रियों को बर्खास्त कर सकता है। राज्यपाल महाधिवक्ता और राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों जैसे वरिष्ठ पदाधिकारियों की नियुक्ति करता है । किंतु वह राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों को हटा नहीं सकता । आयोग के सदस्य उच्चतम न्यायालय के प्रतिवेदन पर कुछ निरहर्ताओं के होने पर ही राष्ट्रपति द्वारा हटाये जा सकते है (अनुच्छेद 317)।
- राज्य के उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में राष्ट्रपति, राज्यपाल से परामर्श लेता है (अनुच्छेद 317) राष्ट्रपति के समान ही राज्यपाल अपने राज्य की विधानसभा में आंग्ल-भारतीय समुदाय के सदस्यों का नाम निर्दिष्ट करता है। यदि उसे यह समाधान हो जाता है कि उसका सत्ता में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है। राष्ट्रपति लोकसभा में इस शक्ति का प्रयोग से अधिक से अधिक दो सदस्य नियुक्त कर सकता है किंतु राज्यपाल द्वारा संविधान (23वें संशोधन) अधिनियम 1969 के पश्चात एक से अधिक सदस्य नियुक्त नहीं किए जा सकते (अनुच्छेद 333)।
- जिन राज्यों के विधामंडल द्विसदनीय, अर्थात जहां विधानसभा और विधानपरिषद दोनों है, वहां विधानपरिषद के बारे में राज्यपाल को सदस्यों के नाम निर्दिष्ट करने की शक्ति उसी प्रकार है जिस प्रकार की राज्यसभा की दशा में राष्ट्रपति को है। इस शक्ति का प्रयोग ऐसे व्यक्तियों के सम्बन्ध में किया जाएगा जिन्हें साहित्य विज्ञान, कला, सहकारी आन्दोलन और सामाजिक सेवा के संबंध में विशेष ज्ञान या व्यवहारिक अनुभव है। (अनुच्छेद 171 (5)) उल्लेखनीय है कि राज्यसभा से सम्बंधित तत्समान सूची में सहकारी आंदोलन’’ शामिल नही है।
विधायिका संबंधी शक्तियां
- राज्यपाल ठीक उसी तरह राज्य विधायिका का एक अभिन्न अंग है जैसे की भारत का राष्ट्रपति संसद का अभिन्न अंग है।
- अनुच्छेद 174 के अनुसार, राज्यपाल को राज्य विधायिका का सत्र बुलाने, सत्रावसान करने तथा विधानसभा भंग करने का अधिकार है तथा उसे विधानमंडल का सत्र इस तरह बुलाना होता है कि दो सत्रों के बीच छह माह से अधिक अंतर न हो।
- अनुच्छेद 175 का प्रावधान है कि राज्यपाल विधायिका के किसी भी एक अथवा दोनों सदनों को सम्बोधित कर सकता है और दोनों सदनों को किसी लंबित विचाराधीन विधेयक अथवा अन्य विषय पर पुनर्विचार के लिए कह सकता है। चुनाव के बाद नव गठित विधानमंडल का पहला अधिवेशन और प्रत्येक नए वर्ष का पहला सत्र राज्यपाल द्वारा सम्बोधित किया जाता है।
- राज्यपाल को अध्यादेश जारी करने का अधिकार प्राप्त है। लेकिन यह शक्ति उसे तभी प्राप्त होगी जब विधानमंडल या उसके दोनों सदन सत्र में नहीं है। यह विवेकाधीन शक्ति नहीं है इसका प्रयोग मंत्रियों की सलाह और सहायता से ही किया जाना चाहिए। विधानमंडलों द्वारा पारित अधिनियमों की तरह ही राज्यपाल द्वारा जारी अध्यादेश विधान मण्डल के सत्र शुरू होने के 6 सप्ताह तक क्रियाशील रहते है। यदि विधान मण्डल द्वारा 5 सप्ताह के पूर्व ही राज्यपाल द्वारा जारी अध्यादेश अस्वीकृत कर दिया जाय, तो वह अध्यादेश तत्काल ही समाप्त हो जायेगा।
- राज्यपाल की अध्यादेश बनाने की शक्ति की परिधि का विस्तार, राज्य विधान मंडल की विधायी शक्ति के बराबर है और यह 7वी अनुसूची की सूची-2 और 3 के विषयों तक ही सीमित है। यदि समवर्ती विषय से संबंधित संघ की किसी विधि से राज्यपाल के अध्यादेश का विरोध है तो इस विरोध के होते हुए भी वह अभिभावी होगा, यदि अध्यादेश राज्यपाल के निर्देशों के अनुसरण में बनाया गया है ।
- राज्यपाल की अध्यादेश बनाने की शक्ति की विशेषता है कि वह राष्ट्रपति के अनुदेश के विना अध्यादेश नहीं बना सकता यदि,
- उन्ही उपबंधों को अन्तर्विष्ट करने वाले विधेयक के बिना विधान मंडल के पुरःस्थापन के लिए संविधान के अधीन राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति का विधान है,
- यदि उन्ही उपबंधों को अंतर्विष्ट करने वाले विधेयक कोे राज्यपाल राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित करना आवश्यक समझता है ,
- उन्ही उपबंधों को अंतर्विष्ट करने वाला राज्य विधानमंडल का अधिनियम संविधान के आधीन अविधिमान्य होगा यदि राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित किये जाने के पश्चात उसे राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त नहीं होती (अनुच्छेद 213) ।
राज्यपाल की राज्य विधान पर वीटो करने की शक्तियों पर पृथक रूप से विचार किया गया है।
वित्त संबन्धी शक्तियां
- राज्यपाल को सुनिश्चित करना पड़ता है कि राज्य का वार्षिक वित्तीय विवरण विधानमंडल में पेश किया जाये (अनुच्छेद 202) तथा धन विधेयक तथा अनुदान की मांगों को सिफारिश करने की शक्ति भी राज्यपाल को है (अनुच्छेद 207)। विधानमंडल में उसकी पूर्व अनुमति के बिना कोई वित्त विधेयक पेश नहीं किया जा सकता है। अनुदान मांग अथवा कर संबंधी प्रस्ताव राज्यपाल के नाम पर मंत्रियों के अलावा और कोई पेश नहीं कर सकता।
- राज्य का आकस्मिक निधि कोष राज्यपाल के अधिकार में होता है और वह इससे अग्रिम निधि निकाल सकता है, विशेषकर अचानक आने वाले खर्चे के लिए जो राज्य विधानमंडल के अधिकार में होते है। न्यायपालिका सम्बन्धी शक्तियां राज्यपाल जिला न्यायाधीशों और अन्य न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति, पदोन्नति आदि के मामले में निर्णय लेता है।
- अनुच्छेद 161 का प्रावधान है कि राज्यपाल न्यायालय द्वारा दंड दिये गये किसी व्यक्ति को क्षमादान दे सकता है, उसकी सजा कम कर सकता है अथवा सजा को बदल सकता है। ऐसा विशेषतः ऐसे अपराधों के क्षेत्र में होता है, जहां राज्य के कार्यकारी अधिकारों का सम्बंध हो।
विवेकाधिकार संबन्धी शक्तियां
संविधान में राज्यपाल के कुछ विशेष अधिकारों का वर्णन है जिनका उपयोग वह विशेष परिस्थितियों में करता है। राज्यपाल के विवेकाधिकार दो तरीके के होते हैः प्रथम संविधान में प्रत्यक्ष तौर पर लिखे हुए संवैधानिक विवेकाधिकार। दूसरे अप्रत्यक्ष विवेकाधिकार, जो कि तत्कालीक राजनैतिक परिस्थितियों से उत्पन्न होते है। उन्हें परिस्थितकीय विवेकाधिकार कहा जाता है। पहले मामले में संविधान में राज्यपाल को अपने विवेक का उपयोग करने की छूट दी गयी है, जबकि दूसरे मामले में वह इनका उपयोग राज्य की राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए करता है।
संवैधानिक विवेकाधिकार-
- भारत के राष्ट्रपति के विपरीत राज्यपाल के पास कुछ विशेष विवेकाधिकार होते है। ऐसे विशिष्ट मामले में उसे मंत्रिमंडल के निर्णय के आधार पर काम नहीं करना पड़ता बल्कि उसे अपने व्यक्तिगत निर्णय के आधार पर काम करना पड़ता है।
- राष्ट्रपति को राज्य की स्थिति के बारे में, विशेषकर संवैधानिक संकट के बारे में रिपोर्ट भेजते समय राज्यपाल अपने विवेक के आधार पर कार्य करता है (अनुच्छेद 356)।
- राज्य विधायिका द्वारा पारित किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ रखने का निर्णय भी राज्यपाल स्वयं की लेता है (अनुच्छेद 200)।
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- केन्द्र और राज्य सरकार के बीच किसी मामले पर विरोध पैदा होने पर भी राज्यपाल अपने विवेक से काम करता है।
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- कोई अध्यादेश जारी करते समय भी राज्यपाल को राष्ट्रपति की सलाह लेनी पड़ती है। ऐसे समय में भी वह अपने विवेक से काम लेता है।
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- असम और नागालैण्ड के राज्यपाल आदिवासी क्षेत्र का प्रशासन चलाने और नागा विद्रोहियों की हिंसक गतिविधियों पर नियंत्रण सम्बंधी मामलों पर अपने विवेक का इस्तेमाल करते हैं।
पारिस्थितिकीय विवेकाधिकार-
राज्यपाल किसी विशेष परिस्थिति में अपने विवेक का इस्तेमाल कर सकता है। सामान्य परिस्थितियों में राज्यपाल अपने मंत्रिमंडल की सलाह और सहायता से काम करता है। लेकिन असमान्य परिस्थितियों में वह राष्ट्रपति के एजेण्ट के रूप में कार्य करता है और राष्ट्रपति को राज्य की परिस्थिति के सम्बंध में जानकारी देता है। निम्नलिखित परिस्थितियों में राज्यपाल अपने विवेक का इस्तेमाल कर सकता है-
मुख्यमंत्री की नियुक्ति।
मंत्रिमंडल की बर्खास्तगी तथा
विधानसभा भंग करना।
अतः राज्यपाल सामान्य स्थिति में सवैधानिक मुखिया तथा कुछ विशेष परिस्थितियों में विवेक शक्तियों का प्रयोग करने वाला राज्य का महत्वपूर्ण अधिकारी है।
विशेष उत्तरदायित्व-
व्यवहार में इसका अर्थ वही है जो "विवेकानुसार" का है। यद्यपि विशेष उत्तरदायित्व के मामलों में उसे मंत्रिपरिषद से परामर्श करना होता है किंतु अंतिम विनिश्चय उसका व्यक्तिगत निर्णय होता है। इसे किसी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जा सकता।
ये कृत्य है-
- अनुच्छेद 371 (2) के अधीन राष्ट्रपति यह निर्देश दे सकता है कि महाराष्ट्र या गुजरात का राज्यपाल का राज्य में कुछ क्षेत्रों के विकास के लिए विशेष कदम उठाने का विशेष उत्तरदायित्व होगा, जैसे विदर्भ या सौराष्ट्र।
- नागालैंड के राज्यपाल का, 1962 में अतः स्थापित अनुच्छेद 371ग (1) ख के अधीन, उस राज्य में विधि या व्यवस्था की बाबत इसी प्रकार का उत्तरदायित्व तब तक है जब तक की उस राज्य में विद्रोही नागाओं के कारण आंतरिक अशान्ति बनी रहती है ।
- इसी प्रकार 1971 में अंतः स्थापित अनुच्छेद 371 ग (1) द्वारा राष्ट्रपति को यह शक्ति दी गयी है कि वह यह निर्देश दे की मणिपुर राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों के निर्वाचित सदस्यों से मिलकर बनने वाली राज्य की विधानसभा की समिति का उचित कार्यकरण सुनिश्चित करना वहां के राज्यपाल का विशेष उत्तरदायित्व होगा।
- संविधान (36 वाँ संशोधन) अधिनियम 1975 द्वारा अंतः स्थापित अनुच्छेद 371 (छ) के अनुसार इसी प्रकार सिक्किम के राज्यपाल का विशेष उत्तरदायित्व है कि वह ’’शान्ति के लिए और सिक्किम के जनता के विभिन्न विभागों की सामाजिक और आर्थिक उन्नति सुनिश्चित करने के लिए’’ कार्य करे।
राज्यपाल की स्थिति
भारत में संसदीय प्रणाली की सरकार है जहां वास्तविक अधिकार मंत्रिमंडल के पास होते है। संविधान में राज्यपाल को अनेक अधिकार दिये गये है लेकिन वह इन सभी अधिकारों का उपयोग केवल मुख्यमंत्री की सलाह पर ही कर सकता है। इसका अपवाद केवल वे क्षेत्र होते हैं, जहां राज्यपाल अपने विवेक का इस्तेमाल कर सकता है। सिद्वांत अधिकारों की दृष्टि से राज्यपाल का पद बहुत ही महत्वपूर्ण है । लेकिन यथार्थतः इन सबका उपयोग मंत्रियों द्वारा किया जाता है। राज्यपाल को वास्तव में बहुत अधिकार प्राप्त नहीं होते है। लेकिन यह गरिमा तथा सम्मान का पद है। सामान्य परिस्थितियों में यही वस्तुस्थिति होती है, परंतु असामान्य परिस्थितियों में यह स्थिति बदल जाती है।
संवैधानिक स्थिति-
राज्यपाल की स्थिति के संबंध में यदि संविधान के विभिन्न उपबंधों का अवलोकन करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि संविधान निर्माताओं ने राज्य प्रशासन सम्बंधी महत्वपूर्ण शक्तियां राज्यपाल को ही सौपी है। राज्य का शासन राज्यपाल के नाम पर ही चलाया जाता है और राज्य के महत्वपूर्ण अधिकारियों की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा ही की जाती है। वह राज्य विधान मंडल का अधिवेशन बुलाता है और राज्य की विधान सभा को निश्चित अवधि से पूर्व भंग भी कर सकता है। राज्य विधान मंडल द्वारा पारित किया कोई भी विधेयक राज्यपाल की स्वीकृति के बिना कानून का रूप धारण नहीं कर सकता। जब राज्य विधान मंडल का अधिवेशन न हो रहा हो तो राज्यपाल अध्यादेश भी जारी कर सकता है। वित्त-विधेयक राज्यपाल की पूर्व स्वीकृति के बिना राज्य विधान सभा में पेश नहीं किया जा सकता है। संविधान के अनुच्छेद 163 में मंत्रिपरिषद की व्यवस्था की गई है, वह मंत्रिपरिषद भी संविधान के इस अनुच्छेद द्वारा एक परामर्शदात्री संस्था सी प्रतीत होती है। कुल मिलाकर, संविधान के उपबंधों के अनुसार राज्यपाल को राज्य के प्रशासन सम्बंधी कार्यकारी, संवैधानिक, न्यायिक और वित्तीय क्षेत्रों में बहुत ही महत्वपूर्ण शक्तियां प्राप्त हैं।
वास्तविक स्थिति-
- राज्य के प्रशासन में राज्यपाल की वही स्थिति है जो केंद्र में राष्ट्रपति की है। संविधान के अनुसार राज्यपाल को अनन्त शक्तियां प्रदान की गई है, और उसके परामर्श के लिए एक मंत्रिपरिषद की व्यवस्था की गई है संविधान में राज्यपाल के लिए मंत्रिपरिषद को परामर्श मानने सम्बंधी कोई विशेष धारा अंकित नहीं की गई है परंतु केंद्र की भांति संसदीय शासन प्रणाली होने के कारण उन सभी परम्पराओं को कार्यवित करना आवश्यक है जो परम्पराएं इंग्लैंण्ड में प्रचलित हैं, क्यांकि संसदीय शासन प्रणाली का आदर्श इंग्लैण्ड की शासन प्रणाली के ढांचें से लिया गया है।
- राज्यपाल, सभी शक्तियों का प्रयोग मंत्रिमंडल के परामर्श के अनुसार करता है क्योंकि राज्यपाल राज्य का वास्तविक शासक नहीं, बल्कि वह एक संवैधानिक प्रधान है। संविधान निर्माताओं ने संविधान सभा में राज्यपाल की नियुक्ति जनता के चुनाव द्वारा या विधानसभा द्वारा नियुक्त पैनल द्वारा कराने के सुझाओं को रद्द कर कनाडा की प्रथा को इसलिए ग्रहण किया था ताकि राज्यपाल संवैधानिक मुखिया के रूप में कार्य कर सके। डॉ . भीमराव अम्बेडकर ने राज्यपाल की स्थिति का वर्णन करते हुए संवैधानिक सभा में कहा था कि ’’राज्यपाल की शक्तियां बहुत सीमित है और नाममात्र की है तथा उसकी स्थिति बहुत दिखावे वाली होगी। वह कोई भी कार्य अपनी इच्छा व व्यक्तिगत निर्णयानुसार नहीं कर सकेगा। ’’
- राज्यपाल के संवैधानिक मुखिया होने का अर्थ यह नही है कि उसका पद सर्वथा महत्वहीन है । राज्यपाल को कुछ विशेष परिस्थितियों में अपनी शक्तियों का प्रयोग मंत्रिमंडल के परामर्श के बिना स्वेच्छा से करने का अधिकार भी दिया गया है। ऐसी शक्तियों को विवेकाधिकार कहते है। ये शक्तियां राज्यपाल की वास्तविक स्थिति को बहुत अधिक शक्तिशाली बनाती है।
- लेकिन हाल के वर्षों में राज्यपाल का पद काफी विवादास्पद हो गया है। संविधान निर्माताओं द्वारा मूलरूप से की गई इस पद की कल्पना और पिछले 50 वर्षों में इसके कार्यान्वयन में भारी अंतर आया है । 1967 के आम चुनावों के बाद जब विभिन्न राज्यों में केंद्र से पृथक पार्टी की सरकार बनी तब से यह पद चर्चा का विषय बना । उसी समय एक जैसी राजनीतिक परिस्थितियों में राज्यपालों द्वारा भिन्न भिन्न निर्णय लिए जाने के कारण केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव शुरू हुआ । राज्य सरकारों ने यह भी आरोप लगाया कि केंद्र सरकार ने अपने राजनीतिक उद्देश्य के लिए राज्यपाल पद का दुर्पयोग किया। 1980 के दशक में यह पद इतना विवादित रहा कि कुछ राजनीतिक दलों ने इस पद को पूरी तरह से समाप्त करने की मांग कर डाली । इन घटनाओं ने इस पद की गरिमा और सम्मान को ठेस पहुंचायी।
- इसी विवाद को कम करने और केंद्र-राज्य संबंधों को मधुर बनाने के लिए राज्यपाल के कामकाज में परिवर्तन के कई सुझाव दिये गये। उदाहरण के लिए, राजा मन्नार समिति (1970 में तमिलनाडु में द्रमुक मंत्रिमंडल द्वारा गठित) ने सुझाव दिया कि-
- राज्यपाल की नियुक्ति, संबंधित राज्य सरकार से विचार-विमर्श के बाद ही की जाय, और
- राष्ट्रपति राज्यपालों को यह दिशा-निर्देश दें कि वे एक जैसी राजनीतिक परिस्थितियों में एक जैसा ही निर्णय लें ताकि उनके विवेकाधिकारों का उपयोग कम हो सके।
- इसी तरह केंद्र राज्य संबंधों पर प्रशासनिक सुधार आयोग (1969) ने सुझाव दिया कि राष्ट्रपति, राज्यपालों को सही दिशा निर्देश जारी करें। 1983 में श्रीनगर में हुए बिपक्षी दलों के सम्मेलन ने यह सुझाव दिया गया कि संबंधित राज्य सरकार से विचार-विमर्श के बाद ही राज्यपाल की नियुक्ति के बारे में निर्णय लिया जाए और इस उदेश्य के लिए राज्य सरकार, राष्ट्रपति को विभिन्न व्यक्तियों के नामों की एक सूची दे।
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- अंततः केन्द्र राज्य संबंधों की गहन समीक्षा के उद्देश्य से केंद्र सरकार ने 1983 में सरकारिया आयोग का गठन किया ताकि आयोग इन संबंधों को अधिक सार्थक एवं रचनात्मक बनाने के लिए सुझाव दे। सरकारिया आयोग ने राज्यपाल पद के लिए सुझाव दिया कि-
- राज्यपाल की नियुक्ति, संबंधित मुख्यमंत्री के विचार-विमर्श के बाद ही की जाए,
- केवल ऐसे व्यक्ति राज्यपाल बनाये जाएं जो अपनी निष्ठा के लिए, पहचाने जाते हों और जो स्थानीय राजनीति में बहुत सक्रिय न हो, तथा
- यदि किसी मंत्रिमंडल के बहुमत में न होने का संदेह हो तो इसे स्पष्ट करने के लिए सही स्थान विधानसभा है। लेकिन राज्य का मुख्यमंत्री जान-बूझकर यदि इसे टाल रहा हो, तो राज्यपाल स्वयं पहल कर इस मामले को हल कर सकता है।
यदि सरकारिया आयोग द्वारा दिये गये सुझाओं को कार्यान्वित कर लिया जाता है तो राज्यपाल के पद को लेकर पैदा हुआ विवाद काफी हद तक कम किया जा सकता है। संविधान में परिवर्तन के बजाय विशेष परम्पराएं कायम करने से स्थिति ज्यादा बेहतर हो सकेगी। केंद्र और राज्य दानों को ही राज्यपाल को किसी तरह के दबाव के बिना काम करने का अवसर देना चाहिए । वर्ष 1999 में बिहार तथा पश्चिम बंगाल जैसे राजनीतिक रूप से अतिसंवेदनशील राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति की गई है, जबकि दोनों राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें है फिर भी किसी तरह का असंतोष नहीं दिखाई पड़ा है। कारण संबंधित राज्यों से नियुक्ति के पूर्व ही सहमति ले ली गई थी। अंतः संविधान को बिना बदले उसके मर्म को समझ कर कार्य किया जाय तो पूरे राजनीतिक महौल में सुधार होगा।