राज्य विधानमंडल
प्रत्येक राज्य का विधानमंडल राज्यपाल और राज्य के विधानमंडल से मिलकर बनता है। संविधान के अनुच्छेद 168 द्वारा राज्य विधानमंडल की व्यवस्था है। इसी अनुच्छेद के अनुसार राज्य विधानमंडल में राज्यपाल के अतिरिक्त विधानमंडल के एक या दोनों सदन शामिल है । इसी अनुच्छेद के अनुसार, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश और जम्मू कश्मीर में द्विसदनीय विधानमंडल है और शेष राज्यों में एक सदनीय विधानमंडल की व्यवस्था है । जिन राज्यों में दो सदन है- एक को विधानसभा तथा दूसरे को विधान परिषद कहते है। जिन राज्यों में एक सदन है उसका नाम विधानसभा है।
विधानसभा
- संविधान के अनुच्छेद 170 के अनुसार, किसी राज्य की विधानसभा के अधिक से अधिक 500 और कम से कम 60 सदस्य हो सकते है । उत्तर प्रदेश में विधान सभा सदस्यों की संख्या 425 है । जबकि सिक्किम में सदस्यों की संख्या केवल 32 है। राज्य की विधान सभा की सदस्य संख्या राज्य की जनसंख्या के आधार पर निश्चित की जाती है । निर्वाचन क्षेत्र के विभाजन के समय इसका पूरा ध्यान रखा जाता है कि विधान सभा का प्रत्येक सदस्य कम से कम 75000 जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करे। अलग-अलग राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों की संख्या निश्चित करते समय जनसंख्या के वे आंकड़े लिए जाते है जो पिछली जनगणना में प्रकाशित किये गये थे । भारत में जनगणना प्रत्येक 10 वर्ष के पश्चात् होती है। प्रत्येक जनगणना के पश्चात परिसीमन आयोग नियुक्त किया जाता है । यह आयोग जनसंख्या के नये आंकड़ों के अनुसार चुनाव क्षेत्रों का नये रूप से विभाजन करता है (अनुच्छेद 170 (सी))।
- भारतीय संविधान के 42वें संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि वर्ष 2000 के पश्चात् होने वाली प्रथम जनगणना तक प्रत्येक राज्य के चुनाव क्षेत्रों के विभाजन के लिए वही आंकड़े प्रमाणिक होंगे जो 1971 की जनगणना के अनुसार निश्चित और प्रमाणिक होंगे। इसी प्रकार विधानसभाओं में जनसंख्या के आधार पर अनुसूचित जातियों और पिछड़े जातियों के लिए स्थान आरक्षित करने के लिए भी 2000 के पश्चात होने वाली पहली जनगणना तक वही आंकड़े लिए जाएंगे जो 1971 की जनगणना के अनुसार निश्चित और प्रकाशित हो चुके है। हाल ही में संसद के पूर्ण बहुमत से पारित एक प्रस्ताव के अनुसार सन् 2026 तक निर्वाचन क्षेत्रों की सीमा, उनकी जनसंख्या तथा उनके आरक्षण से संबंधित उपबंध 1971 की जनगणना के अनुसार ही लागू होंगे ।
- यदि किसी राज्य के चुनाव में एंग्लो इंडियन जाति को प्रतिनिधित्व नहीं मिला है तो राज्यपाल स्वेच्छा से उस जाति को प्रतिनिधित्व देने के लिए उस जाति के एक सदस्य को विधानसभा में मोनोनीत कर सकता है । लोकसभा में भी एंग्लो इंडियन जाति के सदस्य मोनोनीत करने का अधिकार राष्ट्रपति को दिया गया है । लोकसभा में अधिक-से-अधिक एंग्लो-इंडियन के दो सदस्य मोनोनीत किये जा सकते है , परंतु राज्य के राज्यपाल को केवल एक ही सदस्य मोनोनीत करने का अधिकार है।
विधान परिषद का गठन
संविधान के अनुच्छेद 171 के अनुसार, किसी राज्य की विधान परिषद के सदस्यों की संख्या उस राज्य की विधान सभा के सदस्यों की संख्या के एक-तिहाई से अधिक नहीं हो सकती और किसी भी स्थिति में 40 से कम नहीं हो सकती । भारतीय संसद कानून द्वारा विधान परिषद की रचना के संबंध में संशोधन कर सकती है ।
राज्य विधान परिषद के कुल सदस्यों में से-
- 1/3 सदस्य स्थानीय संस्थाओं के सदस्यों द्वारा निर्वाचित किये जाते है । इन स्थानीय संस्थाओं में, नगरपालिका, जिला बोर्ड और राज्य की अन्य संस्थाएं सम्मिलित हैं जो संसद कानून द्वारा निश्चित करती है।
- 1/12 सदस्य राज्य के हायर सेकेण्डरी या इससे उच्च शिक्षा संस्थाओं में काम कर रहे ऐसे अध्यापकों द्वारा निर्वाचित किये जाते है, जो गत तीन वर्षों से वहां पढ़ा रहें हो ।
- 1/12 सदस्य ऐसे राज्य के ऐसे स्नातक मतदाताओं द्वारा निर्वाचित किये जाते है जिनको भारत के किसी विश्वविद्यालय से कम-से-कम तीन वर्ष पहले डिग्री मिल चुकी हो।
- 1/3 सदस्य सम्बंधित राज्य विधान सभा के सदस्यों द्वारा उन व्यक्तियों में निर्वाचित किये जाते है जो राज्य विधानसभा के सदस्य नहीं हैं।
- शेष 1/6 सदस्य राज्यपाल द्वारा मनोनीत किये जाते हैं। राज्यपाल केवल उन व्यक्तियों को मनोनीत करता है जिनको विज्ञान, कला, साहित्य, सहकारिता आंदोलन या समाज सेवा के क्षेत्र में विशेष ज्ञान या अनुभव हो।
कार्यकाल
- संविधान के अनुच्छेद 172 के अनुसार, राज्य विधानसभा का कार्यकाल पांच वर्ष निश्चित किया गया है। इस निश्चित समय से पहले भी राज्यपाल विधानसभा को भंग कर सकता है। आपातकालीन स्थिति में, संघीय संसद कानून बनाकर किसी राज्य विधानसभा की अवधि अधिक-से-अधिक एक समय में एक वर्ष बढ़ा सकता है। आपात स्थिति की समाप्ति के पश्चात यह बढ़ायी हुई अवधि केवल 6 मास तक लागू रह सकती है ।
- विधान परिषद एक स्थायी सदन होता है, और राज्यपाल इसको भंग नहीं कर सकता है। संविधान के अनुच्छेद 172 के अनुसार, विधान परिषद का चुनाव एक ही समय नहीं होता, बल्कि हर दो वर्ष पश्चात इसके एक तिहाई सदस्य अवकाश ग्रहण करते है । और उनके स्थान पर नये सदस्य चुन लिये जाते है । अतः विधान परिषद का हर सदस्य छः साल तक अपने पद पर आसीन रहता है।
सदस्यों की योग्यताएं
संविधान के अनुच्छेद 173 के अनुसार विधानमंडल के सदस्यों की निम्नलिखित योग्यताएं निश्चित की गई है-
- प्रत्याशी भारत का नागरिक हो।
- विधानसभा के लिए उसकी आयु 25 वर्ष या उससे अधिक हो । तथा विधान परिषद के लिए उसकी आयु 30 वर्ष या उससे अधिक हो।
- वह संसद द्वारा निश्चित सभी योग्यताएं रखता हो।
- वह भारत सरकार व राज्य सरकार के अधीन किसी लाभ केे पद पर आसीन न हो।
- वह किसी न्यायालय द्वारा पागल घोषित न किया गया हो।
- वह दिवालिया न हो तथा
- वह संसद द्वारा बनाये गये किसी कानून के अनुसार विधान सभा के लिए अयोग्य न हो ।
इन योग्यताओं के अतिरिक्त कोई भी व्यक्ति विधानमंडल के दोनों सदनों का सदस्य एक साथ नहीं रह सकता और नही एक से अधिक राज्यों की विधान मंडलों का सदस्य बन सकता है। चुनाव के पश्चात कोई भी सदस्य की अनुमति के विना लगातार 60 दिन सदन के अधिवेशन से अनुपस्थित नहीं रह सकता।
साथ ही विधानसभा का सदस्य निर्वाचित होने के लिए आवश्यक है कि सम्बद्ध व्यक्ति ’जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951’ की शर्तो को पूरा करता हो । 1988 में इस अधिनियम में संशोधन किया गया और ऐसी व्यवस्था की गयी कि आतंकवादी गतिविधियों, तस्करी, जमाखोरी, मुनाफाखोरी खाद्य-पदार्थो, तथा दवाओं में मिलावट करने वाले और महिलाओं के खिलाफ अत्याचार करने वाले व्यक्तियों को इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार चुनाव में भाग लेने से वर्जित कर दिया जाता है।
संविधान के अनुच्छेद 191 में अधिकथित विधानमंडल की सदस्यता के लिए निरर्हताएं उसी प्रकार की है, जैसे संसद के किसी सदन की सदस्यता के संबंध में अनुच्छेद 102 में दी गयी है ।
अनुच्छेद 192 में यह अधिकथित है कि यदि प्रश्न उपस्थित होता है किसी राज्य के विधानमंडल के किसी सदन में कोई सदस्य अनुच्छेद 191 के खंड में वर्णित किसी निरर्हता से ग्रस्त हो गया है तो यह प्रश्न राज्यपाल के विनिश्चय के लिए निर्देशित किया जायेगा। राज्यपाल निर्वाचन आयोग की राय के अनुसार कार्य करेगा। उसका विनिश्चय अंतिम होगा और किसी न्यायालय में प्रश्नगत नही किया जा सकेगा।
विधान सभा के अधिकारी
संविधान के अनुच्छेद 178 के अनुसार, विधान सभा के सदस्य अपने में से किसी एक सदस्य को अध्यक्ष तथा अन्य को उपाध्यक्ष के पद के लिए चुन लेते है । इन दोनों पदों में जब कोई पद रिक्त हो जाता है तो विधान सभा के किसी अन्य सदस्य को उस पद के लिए चुन लेते है, विधानसभा अध्यक्ष वही कार्य करता है, जो लोकसभा अध्यक्ष करता है।
कार्यकाल
अध्यक्ष को विधानसभा के कार्यकाल तक अर्थात 5 वर्षों के लिए निर्वाचित किया जाता है विधान सभा भंग होने पर उसे अपना पद त्यागना नहीं पड़ता, बल्कि वह नव-निर्वाचित विधानसभा के प्रथम अधिवेशन होने तक अपने पद पर बना रहता है (अनुच्छेद 179) । परंतु इस अवधि के समाप्त होने से पूर्व भी उसे निम्नलिखित कारणों के आधार पर अपदस्थ किया जा सकता है-
- यदि अध्यक्ष, विधान सभा का सदस्य न रहे तो उसे अपना पद त्यागना पड़ेगा।
- वह स्वेच्छापूर्वक अपने पद से त्याग-पत्र दे सकता है, तथा
- विधान सभा के तत्कालीन सदस्यों के बहुमत के प्रस्तावों द्वारा भी अध्यक्ष को अपदस्थ किया जा सकता है, परंतु ऐसे प्रस्ताव प्रस्तुत करने से पूर्व अध्यक्ष को 14 दिन पूर्व सूचना देना अनिवार्य है। जब अध्यक्ष के विरूद्ध प्रस्ताव प्रस्तुत हो तो अध्यक्ष उस बैठक की अध्यक्षता नहीं करता है। परंतु अध्यक्ष को उस प्रस्ताव के सम्बन्ध में बहस में भाग लेने तथा मत देने का पूर्ण अधिकार होता है।
- सामान्यतः अध्यक्ष, विधानसभा के अधिवेशनों की अध्यक्षता करता है परंतु जब किसी कारण के अध्यक्ष उपस्थिति न हो तो उसके स्थान पर उपाध्यक्ष अधिवेशनों की अध्यक्षता करता है। जब उपाध्यक्ष अध्यक्ष के पद पर होता है, उस समय उसे अध्यक्ष की सभी शक्तियां प्राप्त होती है, अनुच्छेद 182 से 185 विधान परिषद के सभापति और उप-सभापति से संबंधित है ।
वेतन और भत्ते
विधान सभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष को तथा विधान परिषद के सभापति और उपसभापति को, ऐसे वेतन और भत्तों का जो राज्य का, विधान मंडल विधि द्वारा नियत करे और जब तक इस निमित्त इस प्रकार का उपबंध नहीं किया जाता है तब तक उसे वेतन और भत्तों का जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट है, संदाय किया जायेेगा (अनुच्छेद 186)।
कार्य संचालन
- राज्य की विधानसभा या विधान परिषद का प्रत्येक सदस्य अपना स्थान ग्रहण करने से पहले, राज्यपाल या उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्त व्यक्ति के समक्ष तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्रारूप के अनुसार शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा (अनुच्छेद 188)।
- राज्य के विधानमंडल के किसी सदन की बैठक में सभी प्रश्नों का अवधारण अध्यक्ष या सभापति को अथवा उस रूप में कार्य करने वाले व्यक्ति को छोड़कर, उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के बहुमत से किया जायेगा, अध्यक्ष या सभापति, अथवा उस रूप में कार्य करने वाला व्यक्ति प्रथमतः मत नहीं देगा, किंतु मत बराबर होने की दशा में उसका निर्णायक मत होगा और वह उसका प्रयोग करेगा।
- जब तक राज्य का विधान मंडल विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के विधान मंडल के किसी सदन का अधिवेशन गठित करने के लिए गणपूर्ति 10 सदस्य या सदन की कुल संख्या का 10वां भाग, इसमें से जो भी अधिक हो, होगी।
- यदि राज्य की विधानसभा या विधान परिषद के अधिवेशन में किसी समय गण पूर्ति नहीं है तो अध्यक्ष या सभापति अथवा उस रूप में कार्य करने वाले व्यक्ति का यह कर्तव्य होगा कि वह सदन को स्थगित कर दे या अधिवेशन को तब तक के लिए निलंबित कर दे जब तक गण पूर्ति नहीं हो जाती है ।
विधायी प्रक्रिया
द्विसदनीय विधान मंडल वाले राज्यों की विधायी प्रक्रिया मुख्य रूप से संसद के समान है। कुछ बातों में अंतर है-
धन विधेयक
इसके बारे में स्थिति वही है विधान परिषद को केवल यह शक्ति है कि वह विधान सभा को संशोधनों की सिफारिश करे यो विधेयक के प्राप्त होने की तारीख से 14 दिन की अवधि के लिए विधेयक को अपने पास रोक रखे। प्रत्येक दशा में विधान सभा की इच्छा अभिभावी होगी । विधान सभा, विधान परिषद की सिफारिशों को स्वीकार करने के लिए आबद्ध नहीं है । इसका अर्थ हुआ कि धन विधेयकों के बारे में दोनों सदनों में कोई गतिरोध नहीं हो सकता।
साधारण विधेयक
धन विधेयक के भिन्न विधेयकों के बारे में परिषद को एक मात्र यह शक्ति है कि वह कुछ अवधि तक विधेयक के पारित होने को विलंम्बित कर दे (तीन मास)। यह अवधि धन विधेयकों के सम्बन्ध में अवधि से लम्बी है। इस प्रकार राज्य की विधान परिषद पुनरीक्षण करने वाला सदन नही बल्कि सलाह देने वाला या विलम्ब करने वाला सदन है। यदि वह किसी विधेयक से असहमत है तो विधेयक विधान परिषद से विधान सभा की यात्रा पुनः करेगा, किंतु अंत में विधान सभा का मत ही अभिभावी होगा। और दूसरी यात्रा में विधान परिषद को एक मास से अधिक समय के लिए विधेयक को रोके रखने की शक्ति नहीं होगा।
कार्य एवं शक्तियां
कार्यपालिका शक्तियां
केंद्र की तरह राज्य में संसदीय प्रणाली होने के कारण राज्यपाल को परामर्श और सहायता देने के लिए मंत्रिपरिषद की व्यवस्था की गयी है जो सामूहिक रूप से विधानसभा के प्रति उत्तरदायी है । मंत्रिपरिषद का विधान सभा के प्रति उत्तरदायी होना विधान सभा के कार्यपालिका पर नियंत्रण का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
विधानसभा निम्नलिखित साधनों द्वारा कार्यपालिका पर नियंत्रण रख सकती है-
प्रश्न
विधान सभा के अधिवेशन के समय प्रतिदिन एक घंटा प्रश्नों के लिए निर्धारित किया जा सकता है। प्रत्येक सदस्य का अधिकार है कि पूर्व सूचना देकर किसी मंत्री से नियमानुसार उसके विभाग संबंधी प्रश्न पूछे।
वाद विवाद
विधान सभा के सदस्य कुशल वाद-विवाद द्वारा कार्यपालिका की नीतियों और कार्यो की प्रशंसा तथा आलोचना करते है । यह विवाद समाचार पत्रों द्वारा जनता तक पहुंचता है, और जनता सरकार के प्रति विरोध या प्रशंसा की धारणा बनाती है ।
स्थगन प्रस्ताव
विधान सभा के सत्र के कोई भी सदस्य सार्वजनिक महत्व के किसी भी प्रश्न पर वाद-विवाद के लिए प्रस्ताव पेश कर सकता है। यदि विधान सभा अध्यक्ष इस प्रस्ताव को स्वीकार कर ले तो सदन के सदस्य उस प्रस्ताव पर विचार करते है ।
ध्यानाकर्षण प्रस्ताव
यदि विधान सभा के सत्र के समय कोई सदस्य सदन का ध्यानाकर्षण प्रस्ताव पेश कर सकता है। ऐसे प्रस्ताव मंत्रियों का ध्यान आकर्षित करने के लिए पेश किये जाते है।
उपर्युक्त साधनों द्वारा राज्य विधान सभा मंत्रियों के कार्य कलाप की प्रशंसा अथवा आलोचना करती है सरकार की नीतियों पर इसका बहुत ही महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। निम्नलिखित साधनों द्वारा विधान सभा मंत्रिपरिषद को त्यागपत्र देने पर विवश करक सकती है-
अविश्वास प्रस्ताव
राज्य विधान सभा सम्पूर्ण मंत्रिपरिषद के विरूद्ध अविश्वास पास करके उसे पद से हटा सकती है ।
निन्दा प्रस्ताव
यदि विधान सभा किसी विशेष कार्य के लिए किसी मंत्री के विरूद्ध निन्दा का प्रस्ताव पारित कर दे तो सम्पूर्ण मंत्रिपरिषद को त्यागपत्र देना पड़ता है।
विधान सभा वित्तीय विधेयक को रद्द करके या मंत्रिपरिषद द्वारा प्रस्तावित महत्वपूर्ण विधेयक को अस्वीकार करके या मंत्रियों के वेतन व भत्तों में कटौती का प्रस्ताव पास करके मंत्रिपरिषद को त्यागपत्र देने के लिए विवश कर सकती है।
चुनाव कार्य
राज्य विधान सभा के सदस्य निम्नलिखित अधिकारियों के चुनाव में भाग ले सकते है-
- राज्य विधान सभा के निर्वाचित सदस्य राष्ट्रपति के चुनाव में भाग ले सकते हैः
- राज्य विधान सभा के सदस्य अपने में से एक सदस्य को अध्यक्ष तथा अन्य सदस्य को उपाध्यक्ष चुनते है।
- राज्य विधान परिषद के कुल सदस्यों के एक तिहाई सदस्यों को विधान सभा के सदस्य निर्वाचित करते है ।
- राज्य सभा में भेजे जाने वाले सदस्य संबंधित राज्य विधान सभा सदस्यों द्वारा चुने जाते है।
न्यायिक शक्तियां
विधान सभा को कुछ न्यायिक शक्तियां भी प्राप्त है। विधान सभा के एक संस्था के रूप में कुछ विशेष अधिकार है । इन विशेष अधिकारों की अवहेलना करने वाले अथवा सदन का अपमान करने वाले व्यक्ति को विधान सभा दण्ड दे सकती है।
अन्य शक्तियां
- राज्य विधान सभा अपने कुल सदस्यों के बहुमत और उपस्थित तथा मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई मत से प्रस्ताव पारित करके विधान परिषद की स्थापना या उसे समाप्त करने के लिए भारतीय संसद से प्रार्थना कर सकती है।
- राज्य विधान सभा कानून बनाकर राज्य लोकसेवा आयोग की शक्तियों में बृद्धि कर सकती है।
- राज्य विधान सभा राज्य का आकस्मिक कोष स्थापित कर सकती है । राज्य के आकस्मिक कोष पर राज्यपाल का अधिकार होता है, और वह आकस्मिक आवश्यकता को पूरा करने के लिए राज्य सरकार को इस कोष में से धन दे सकता है । ऐसे व्यय की स्वीकृति विधान मंडल से लेनी अनिवार्य है ।
अतः राज्य प्रशासन में विधान सभा का अति महत्वपूर्ण स्थान है
गतिरोध दूर करने के लिए उपबंध
- संसद के दोनों सदनों के बीच असहमति का निपटारा संयुक्त बैठक से होता है। किंतु राज्य की विधान मंडल के दोनों सदनों के बीच मतभेद को निपटाने के लिए ऐसा कोई उपबंध नहीं है।
- राज्य विधान मंडल के दोनों सदनों के मध्य असहमति की दशा में विधान सभा की इच्छा ही अंत में अभिभावी होती है। परिषद को केवल इतनी ही शक्ति है कि वह जिस विधेयक से असहमत है, उसे पारित करने में कुछ विलंब कर दे।
राज्यपाल की वीटो शक्ति
जब कोई विधेयक राज्यपाल को विधान मंडल के दोनों सदनों द्वारा पारित किये जाने के पश्चात प्रस्तुत किया जाता है , तब राज्यपाल निम्नलिखित में से कोई कदम उठा सकता है-
- वह विधेयक को अनुमति देने की घोषणा कर सकता है, जिसके परिणामस्वरूप वह तुरंत विधि बन जायेगा ।
- वह यह घोषित कर सकता है कि वह विधेयक को अनुमति देना विधारित करता है। ऐसी दशा में वह विधि नहीं बनेगा।
- धन विधेयक से भिन्न किसी विधेयक की दशा में वह संदेश के साथ विधेयक को लौटा सकता है ।
- राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रख सकता है । एक दशा में आरक्षण अनिवार्य है अर्थात जहां प्रश्नगत विधि, संविधान के आधीन उच्च न्यायालय की शक्ति के अल्पीकरण में होगी।
- इस प्रकार आरक्षित धन विधेयक की दशा में राष्ट्रपति अपनी अनुमति देने या विधारित करने की घोषणा कर सकेगा। किंतु धन विधेयक के भिन्न विधेयक की दशा में राष्ट्रपति उस पर अनुमति देने या अस्वीकार करने की घोषणा करने के स्थान पर राज्यपाल को यह निर्देश दे सकता है कि वह विधेयक को पुनर्विचार के लिए विधान मंडल को वापस कर दे । ऐसे लौटाये जाने पर विधानमंडल छः माह के भीतर उस विधेयक पर पुनर्विचार करेगा और यदि वह पुनः पारित किया जाता है तो विधेयक राष्ट्रपति को पुनः प्रस्तुत किया जायेगा किंतु इस पर भी, राष्ट्रपति के लिए उसे अनुमति देना अनिवार्य नहीं है (अनुच्छेद 201)।
- यह स्पष्ट है कि कोई विधेयक जो राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित किया जाता है तभी प्रभावी होगा जब राष्ट्रपति उसे अनुमति प्रदान कर दे । किंतु संविधान ने राष्ट्रपति द्वारा अनुमति दिए जाने या विधारित किए जाने की कोई समय सीमा अधिरोपित नहीं की है । परिणामस्वरूप राष्ट्रपति चाहे तो राज्य विधान मंडल के विधेयक को विना अपना मत व्यक्त किये अनिश्चित काल तक लम्बित रख सकता है । उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति के पास एक तीसरा अनुकल्प भी है, जिसका केवल शिक्षा विधेयक के बारे में, प्रयोग किया गया था। अर्थात जब आरक्षित विधेयक राष्ट्रपति को प्रस्तुत किया जाता है और राष्ट्रपति के मस्तिष्क में कोई विधेयक की सांविधानिकता के बारे में कोई संदेह उत्पन्न होता है तो वह यह विनिश्चय करने के लिए कि उस विधेयक को अनुमति दे, या उसे लौटा दे उच्चतम न्यायालय कोे अनुच्छेद 143 के अधीन उसकी राय जानने के लिए भेज सकता है ।