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भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताएं

भारत का संविधान अनेक दृष्टियों से एक अनुपम संविधान है भारतीय संविधान में अनेक ऐसे विशिष्ट लक्षण है, जो इसे विश्व के अन्य संविधानों से पृथक पहचान प्रदान करते है

लिखित और विशाल संविधान

  • भारतीय संविधान का निर्माण एक विशेष संविधान सभा द्वारा किया गया है और इस संविधान की अधिकांश बातें लिखित रूप में है। इस दृष्टिकोण से भारतीय संविधान, अमेंरिकी संविधान के समुतुल्य है। जबकि ब्रिटेन और इजराइल का संविधान अलिखित है
  • भारतीय संविधान केवल एक संविधान नही है वरन् देश की संवैधानिक और प्रशासनिक पद्वति की महत्वपूर्ण पहलुओं से सम्बन्धित एक विस्तृत वैज्ञानिक संहिता भी है। इसके अतिरिक्त भारतीय संविधान विश्व का सर्वाधिक व्यापक संविधान है
  • भारत के मूल संविधान में कुल 395 अनुच्छेद थे जो 22 भागों में विभाजित थे और इसमें आठ अनुसूचियां थीं। (इसमें पश्चातवर्ती संशोधनों द्वारा वृद्धि की गई) बहुत से उपबन्धों का निरसन करने के पश्चात भी इसमें (2004 तक) 440 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियां है। जबकि अमेंरिका के संविधान में केवल 7, कनाडा के संविधान में 147, आस्ट्रेलिया के संविधान में 128 और दक्षिण अफ्रीका के संविधान में 253 अनुच्छेद ही है।
  • भारतीय संविधान की विशालता का एक और मुख्य कारण यह है कि इसमें विश्व के लगभग सभी प्रमुख संविधानों के महत्वपूर्ण उपबन्धों को समन्वित किया गया है।

संसदीय प्रभुता तथा न्यायिक सर्वोच्चता में समन्वय

  • ब्रिटिश संसदीय प्रणाली में संसद को सर्वोच्च तथा प्रभुसत्तासम्पन्न माना गया है। इसकी शक्तियों पर सिद्वान्त के रूप में कोई अवरोध नही है, क्योंकि वहाँ पर कोई लिखित संविधान नही है। किन्तु अमेंरिकी प्रणाली में, उच्चतम न्यायालय सर्वोच्च है क्योंकि उसे न्यायिक पुनरीक्षण तथा संविधान के निर्वाचन  की शक्ति प्रदान की गई है।
  • भारतीय संविधान की एक विशेषता यह है कि संविधान में ब्रिटेन की संसदीय प्रभुसत्ता, तथा सयुक्त राज्य अमेंरिका की न्यायिक सर्वोच्चता के मध्य का मार्ग अपनाया गया है।
  • ब्रिटेन में व्यवस्थापिका सर्वोच्च है और ब्रिटिश पार्लियामेंट द्वारा निर्मित कानून को किसी भी न्यायालय में चुनौती नही दी जा सकती। इसके विपरीत अमेंरिका के संविधान में न्यायपालिका की सर्वोच्चता के सिद्वान्त को अपनाया गया है, जिसका तात्पर्य है कि न्यायालय संविधान का रक्षक और अभिभावक है। किन्तु भारतीय संसद तथा उच्चतम न्यायालय, दोनो अपने अपने क्षेत्र में सर्वोच्च है
  • जहां उच्चतम न्यायालय संसद द्वारा पारित किसी कानून को संविधान का उलंघन करने वाला बताकर संसद के अधिकार से बाहर, अवैध और अमान्य घोषित कर सकता है, संसद कतिपय प्रतिबन्धों के आधीन रहते हुए संविधान के अधिकांश भागों में संशोधन कर सकती है।

संसदीय शासन प्रणाली

  • भारत का संविधान भारत के लिए संसदीय प्रणाली की सरकार की व्यवस्था करता है। हालाकि भारत एक गणराज्य है और उसका अध्यक्ष राष्ट्रपति होता है किन्तु यह मान्यता है कि अमेंरिकी राष्ट्रपति के विपरीत भारतीय राष्ट्रपति कार्यपालिका का केवल नाममात्र का या संवैधानिक अध्यक्ष होता है। वह यथार्थ राजनैतिक कार्यपालिका यानी मंत्रीपरिषद की सहायता तथा उसके परामर्श से ही कार्य करता है
  • भारत के लोगों को 1919 और 1935 के भारतीय शासन अधिनियमों के अंतर्गत संसदीय शासन का अनुभव था और फिर अध्यक्षीय शासन प्रणाली में इस बात का भी डर था की कही कार्यपालिका अपनी निश्चित पदावधि के कारण निरंकुश हो जाए। अतः संविधान सभा ने विचार विमर्श करके यह निर्णय लिया कि भारत के लिए अमेंरिका के समान अध्यक्षीय शासन प्रणाली के स्थान पर ब्रिटिश ब्रिटिश मॉडल की संसदीय शासन प्रणाली अपनाना उपयुक्त रहेगा। संसदीय प्रणाली में कार्यपालिका, विधायिका के प्रति उत्तरदायी रहती है तथा उसका विश्वास खो देने पर कायम नहीं रह सकती।

 

  • किन्तु यह कहना समीचीन नही होगा कि भारत में ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को पूर्णरूपेण अपना लिया गया है दोनो में अनेक मूलभूत भिन्नताएं है। उदाहरण के लिए-ब्रिटेन का संविधान एकात्मक है, जबकि भारतीय संविधान अधिकांशतः संघीय है वहॉं वंशानुगत राजा वाला राजतंत्र है, जबकि भारत निर्वाचित राष्ट्रपति वाला गणराज्य है। ब्रिटेन के विपरीत भारतीय संविधान एक लिखित संविधान है। इसके लिए भारत की संसद प्रभुत्व संपन्न नही है तथा उसके द्वारा पारित विधान का न्यायिक पुनरीक्षण हो सकता है 
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद-74 (1) यह निर्दिष्ट करता है कि कार्य संचालन में राष्ट्रपति की सहयता करने तथा उसे परामर्श देने के लिए प्रधानमंत्री के नेतृत्व में एक मंत्री परिषद होगी तथा राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री के परामर्श से ही कार्य करेगा।

नम्यता और अनम्यता का समन्वय

  • संशोधन की कठिन या सरल प्रक्रिया के आधार पर संविधानों को नम्य अथवा अनम्य कहा जा सकता है। संघीय संविधानों की संशोधन प्रक्रिया कठिन होती है, इसलिए इन्हे सामान्यतया अनम्य श्रेणी में रखा जाता है। अनुच्छेद 368 के अनुसार कुछ विषयों में संशोधन के लिए संसद के समस्त सदस्यों के बहुमत और उपस्थित सदस्यों के दो तिहाई बहुमत के अतिरिक्त कम से कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों का अनुसमर्थन भी आवश्यक है, जैसे- राष्ट्रपति के निर्वाचन की विधि, संघ और इकाईयों के बीच की शक्ति विभाजन, राज्यों की संसद में प्रतिनिधि आदि, संशोधन की उपर्यक्त प्रणाली निश्चित रूप से कठोर है
  • लेकिन कुछ विषयों में संसद के साधारण बहुमत से ही संशोधन हो जाता है उदाहरणस्वरूप-नवीन राज्यों का निर्माण, वर्तमान राज्यों के पुनर्गठन और भारतीय नागरिकता संबन्धी प्रावधानों में परिवर्तन आदि कार्य संसद साधारण बहुमत से कर सकती है
  • इस प्रकार भारतीय संविधान नम्यता और अनम्यता का अद्भुत समिश्रण है। भारतीय संविधान तो ब्रिटिश संविधान की भॉति नम्य है और ही अमेंरिकी संविधान की भांति अत्यधिक अनम्य पिछले 50 वर्षो के दौरान संविधान में 79 संशोधन किये जा चुके हैं जो कि संविधान की पर्याप्त लोचशीलता को स्पष्ट करते है।

विश्व के प्रमुख संविधानों का प्रभाव

  • संविधान निर्माताओं ने संविधान निर्माण से पूर्व विश्व के प्रमुख संविधानों का विश्लेषण किया और उनकी अच्छाइयों को संविधान में समाविष्ट किया।
  • भारतीय संविधान अधिकांशतः ब्रिटिश संविधान से प्रभावित है। प्रभावित होना स्वाभाविक भी है क्योंकि भारतीय जनता को लगभग दो सौ वर्षो तक ब्रिटिश प्रणाली के अनुभवों से गुजरना पड़ा। ब्रिटिश संविधान से संसदीय शासन प्रणाली, संसदीय प्रक्रिया संसदीय विशेषाधिकार, विधि निर्माण प्रणाली और एकल नागरिकता को संविधान में समाविष्ट किया गया है
  • भारतीय संविधान अमेंरिकी संविधान से कम प्रभावित नही है क्योंकि अमेंरिकी संविधान के कई मुख्य तत्वों को भारतीय संविधान में स्थान दिया गया है जैसे-न्यायिक पुनर्विलोकन, मौलिक अधिकार, राष्ट्राध्यक्ष का निर्वाचन, संघात्मक शासन व्यवस्था, सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया।
  • संविधान में नीति निदेशक तत्वों का विचार आयरलैंड के संविधान से लिया गया है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति द्वारा राज्य सभा सदस्यों का मनोनयन और राष्ट्रपति की निर्वाचन प्रणाली भी आयरिश संविधान से प्ररित है
  • संघीय शासन प्रणाली कनाडा के संविधान से ली गयी है
  • गणतांत्रिक व्यवस्था की आधारशिला फ्रांसीसी संविधान के आधार स्तंभ पर रखी गयी है, जबकि आपातकालीन उपबन्ध जर्मन संविधान से उद्धृत है।
  • मूल संविधान में केवल मौलिक अधिकारों की ही व्यवस्था की गयी थी, लेकिन 42वें संवैधानिक संशोधन 1976 द्वारा मूल संविधान में एक नया भाग (4 क) जोड़ दिया गया है और उसमें नागरिकों के मूल कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है, रूसी संविधान मूल कर्तव्यों का प्रेरणा स्त्रोत है।
  • संविधान में संशोधन की प्रक्रिया को दक्षिण अफ्रीका के संविधान से समावेशित किया गया है

संघीय शासन प्रणाली

  • संविधान के प्रथम अनुच्छेद में ही उल्लेख किया गया है कि भारत राज्यों का एक संघ होगा। संघवाद में विभिन्न राज्यों के संयोजन से एक ऐसे समन्वित राज्य की संरचना होती है, जिसमें केन्द्रीय सरकार की स्थिति पृथक और सुव्यक्त रहती है। भारतीय संविधान में शासन शक्ति को एक स्थान पर केंद्रित कर, केन्द्र और राज्य सरकारों में विभाजित किया गया है और दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्र है यदि केन्द्र और राज्य सरकारों में विवाद की स्थिति उत्पन्न होती है, तो उसे हल करने का अधिकार उच्चतम न्यायालय को प्रदान किया गया है । यद्यिपि सिद्वान्त रूप में भारतीय संविधान का स्वरूप संघात्मक है, तथापि व्यौहारिक रूप में उसकी आत्मा एकात्मक हैक्योंकि यहाँ केन्द्र सरकार को अत्यधिक शक्ति प्रदान की गई है।

 

  • संविधान को संघीय तथा एकात्मक श्रेणी में विभाजित किया जाता है। अमरीकी संविधान पहली श्रेणी का और ब्रिटेन का संविधान दूसरी श्रेणी का एक अत्युत्तम उदाहरण है एकात्मक संविधान में सभी शक्तियां केन्द्रीय सरकार में निहित होती है, जबकि संघीय व्यवस्था में सामान्यतया अनिवार्य है कि एक अनम्य, लिखित संविधान हो और संविधान सर्वोच्च हो भारतीय संविधान को स्पष्टतः संघात्मक संविधान कहा जा सकता है और नही इसे पूर्णरूपेण एकात्मक श्रेणी में रखा जा सकता है।

 

धर्मनिरपेक्ष राज्य

  • संविधान में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा यह है पंथ जाति या सम्प्रदाय के आधार पर किसी भी पंथानुयायी से कोई भेद-भाव नहीं किया जाएगा किसी भी धर्म को राजधर्म नही माना जाएगा, और ही उसे कोई संरक्षण और प्राथमिकता दी जायेगी। 1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान की प्रस्तावना में धर्म निरपेक्ष शब्द जोड़कर इस परिप्रेक्ष्य में स्थिति स्पष्ट कर दी गयी है।
  • धर्मनिरपेक्ष राज्य का तात्पर्य यह है कि राज्य की दृष्टि में सभी धर्म समान होंगे तथा राज्य द्वारा विभिन्न धर्मावलम्बियों में भेदभाव नही किया जायेग। धर्मनिरपेक्ष राज्य किसी भी धर्म का विरोधी नही होता और नही धर्म के प्रति उदासीन रहता है, बल्कि उसके द्वारा धार्मिक मामलों में तटस्थता की नीति को अपनाया जाता है

 

समाजवादी राज्य

  • भारतीय संविधान में प्रशासन के सामाजिक सिद्वांत अप्रत्यक्ष रूप से महत्व दिया गया है। राज्य के नीति निर्देशक सिद्वांत पूर्णरूप से प्रमाणित समाजवादी व्यवस्था की संस्थापन तो नही करते मगर संविधान में समाजवादी उदेश्य निश्चित रूप से अंकित है। हालाकि 1976 में पारित 42वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी शब्द जोड़ दिया गया है, जो संविधान के मूल स्वरूप में नही था।
  • जिस राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था के अन्तर्गत व्यक्ति की अपेक्षा सम्पूर्ण समाज को विकास का समान अवसर प्रदान किया जाता है, उसे समाजवाद कहा जाता है। इसका उद्देश्य सम्पूर्ण समाज में आर्थिक, राजनीतिक, आधिकारिक दृष्टि से समानता स्थापित करना होता है। हालाकि भारतीय संविधान पूर्णरूप से समाजवादी व्यवस्था पर जोर देता है और ही पूँजीवादी प्रबृत्तियों को प्रश्रय देता है यह दोनो के स्वरूपों के मध्य का मार्ग अपनाता है।

 

वस्यक मताधिकार

  • भारतीय संविधान द्वारा भारत में संसदीय शासन प्रणाली की व्यवस्था की गयी है संसदीय शासन प्रणाली के अन्तर्गत सरकार के गठन जनता के प्रत्यक्षतः निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है। प्रतिनिधियों का चुनाव वस्यक मताधिकार के आधार पर किया जाता है। संविधान में कही भी जाति, धर्म, लिंग शिक्षा, क्षेत्र, भाषा, व्यवसाय आदि के आधार पर मताधिकार देने में कोई भेदभाव नही किया गया है। वयस्कता की उम्र पहले तो 21 वर्ष थी, परन्तु 1989 में 61वें संविधान संशोधन द्वारा उम्र घटाकर 18 वर्ष कर दी गई है।

 

स्वतंत्र न्यायपालिका

  • भारत के संविधान में एक स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था की गयी है। उसे न्यायिक पुनरीक्षण की शक्तियां प्रदान की गई है। उच्च न्यायालय तथा उच्चतम न्यायालय एक ही एकीकृति न्यायिक संरचना के अंग है और उनका अधिकार क्षेत्र सभी विधियों यानि संघ, राज्य,सिविल,दाडिक या संवैधानिक विधियों पर होता है। अमेंरिका की तरह हमारे देश में पृथक संघीय तथा राज्य न्यायालय प्रणालियां नही है। संपूर्ण न्यायपालिका न्यायालयों का श्रेणीबद्ध संगठन है। उच्चतम न्यायालय का निर्णय देश की सर्वोपरि विधि होती है। इसके अतिरिक्त संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किये गये मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए भी न्यायपालिका की स्वतंत्रता नितांत आवश्यक हो जाती है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता हेतु संविधान में अनेक विशेष व्यवस्थाएं की गई हैं, यथा-सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होना, न्यायधीशों को पद की सुरक्षा प्राप्त होना, न्यायधीशों के कार्यकाल में उनके वेतन में कमी हो सकना और न्यायधीशों के आचरण पर व्यवस्थापिका द्वारा विचार करना आदि।
  • इस प्रकार न्यायपालिका स्वतंत्र है और पिछले 50 वर्षो की अवधि में न्यायपालिका अपनी स्वतंत्रता का अनेक बार परिचय दे चुकी है।

 

नागरिकता

  • भारतीय संविधान द्वैध शासन प्रणाली को स्वीकार करता है, पर वह द्वैध नागरिकता प्रदान नही करता। सविधान में समस्त देश के लिए समान रूप से एक ही नागरिकता की व्यवस्था की गई है। सयुक्त राज्य अमेंरिका और अन्य संघ राज्यों में दोहरी नागरिकता की व्यवस्था है, लेकिन भारतीय संविधान निर्माताओं का विचार था कि दोहरी नागरिकता भारत की एकता को बनाये रखने में बाधक सिद्व हो सकती है।
  • अतः संविधान-निर्माताओं द्वारा संघ राज्य की स्थापना करते हुए भी दोहरी नागरिकता को नही वरन् एकल नागरिकता के आदर्श को अपनाया गया। इस व्यवस्था से स्वतंत्र संचरण ही नही, बल्कि समस्त क्षेत्र में सम्पत्ति अर्जित करने तथा इच्छानुसार किसी भी स्थान पर निवास करने का अधिकार भी भारत के प्रत्येक नागरिक को मिल गया है। इस एकल नागरिकता का यह भी तात्पर्य है कि कोई भी भारतवासी किसी भी निर्वाचन क्षेत्र से संसद के लिए चुनाव लड़ सकता है।

 

राज्य के नीति निर्देशक तत्व

  • आयरलैंड के संविधान से प्ररित होकर तैयार किये गये राज्य के नीति निर्देशक तत्व हमारे संविधान की एक अनोखी विशेषता है भारत संविधान के चौथे अध्याय में शासन संचालन के लिए मूलभूत सिद्वांतो का वर्णन किया गया है । नीति-निर्देशक तत्व की प्रकृति के सम्बन्ध में संविधान के 37वें अनुच्छेद में कहा गया है कि "नीति निर्देशक तत्वों को किसी न्यायालय द्वारा बाध्यता नही दी जा सकेगी किंतु फिर भी ये तत्व देश के शासन में मूलभूत है।" इस प्रकार नीति निर्देशक तत्वों को वैधानिक शक्ति तो प्राप्त नही है, लेकिन इसे राजनीतिक शक्ति अवश्य प्राप्त है । श्री जी0एन0 जोशी के अनुसार, ये तत्व आधुनिक प्रजातंत्र के लिए व्यापक राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक कार्यक्रम प्रस्तुत करते है।

 

लोकप्रिय प्रभुसत्ता

  • भारतीय संविधान, लोकप्रिय प्रभुता पर आधारित संविधान है अर्थात यह भारतीय जनता द्वारा निर्मित संविधान है और इस संविधान द्वारा अंतिम शक्ति भारतीय जनता को प्रदान की गई है। संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि, "हम भारत के लोग.... दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवम्बर 1949 0 को एत्द द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित, और आत्मार्पित करते हैं।’’
  • भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के द्वारा यह घोषित किया गया कि 15 अगस्त 1947 से भारत ब्रिटिश शासन के आधीन नही रहा ब्रिटिश सरकार और संसद का भारत के प्रशासन के लिए उत्तरदायित्व समाप्त कर दिया और भारत एक प्रभुता सम्पन्न राष्ट्र बन गया, इस प्रकार भारत का संविधान ब्रिटिश संसद की देन नही है, वरन भारत के लोगों ने एक प्रभुता सम्पन्न संविधान सभा में समवेत अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से इसे स्वीकार किया है। भारतीय संविधान में अंतिम शक्ति जनता को प्रदान की गई है। अर्थात प्रभुसत्ता जनता में निहत है किसी व्यक्ति विशेष में नही प्रभुता सम्पन्न का तात्पर्य है कि सम्प्रभु राष्ट्र बाहरी अथवा आन्तरिक दबाव के कारण किसी अंतरर्राष्ट्रीय संधि या समझौते को स्वीकार करने या करने के लिए बाध्य नहीं होता।

 

लोकतंत्रात्मक गणराज्य

  • संविधान द्वारा भारत में एक लोकतंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना की गई है। 'लोकतंत्रात्मक' शब्द का अभिप्राय यह है कि सरकार की शक्ति का स्त्रोत जनता में निहित है, क्योंकि लोकतंत्रात्मक सरकार जनता की, जनता के लिए, जनता द्वारा स्थापित होती है। सरकार की स्थापना जनता के प्रतिनिधियों द्वारा होती है और प्रतिनिधियों का चुनाव जनता संविधान द्वारा प्रदत्त वयस्क मताधिकार द्वारा करती है। गणराज्य से तात्पर्य से राज्य से है, जहां शासनाध्यक्ष वंशानुगत होकर जनता द्वारा एक निश्चित अवधि के लिए चुना जाता है। ब्रिटेन जैसे विश्व के कुछ ऐसे लोकतंत्रात्मक राज्य है, जहां राज्य का प्रधान वंशानुगत होता है, लेकिन भारत एक लोकतंत्रात्मक राज्य हाने के साथ-साथ एक गणराज्य भी है।
  • भारत को राष्ट्रमण्डल की सदस्यता भी प्रदान की है। राष्ट्रमंडल की सदस्यता के कारण अनेक व्यक्तियों का मत है कि राष्ट्रमंडल के सदस्य राज्यों द्वारा ब्रिटिश सम्राट को अपने प्रधान के रूप में स्वीकार करने का प्रावधान है, अतः भारत के गणतंत्र होने पर संदेह किया जाता है। वास्तव में, भारत राज्य की प्रभुत्व-सम्पन्नता या उसका गणतंत्रात्मक स्वरूप राष्ट्रमंडल की सदस्यता से अप्रभावित है। श्री एम0 रामास्वामी के अनुसार, सम्राट मंत्रिमंण्डल का प्रधान अवश्य है, किन्तु यह प्रधान पद केवल औपचारिक है और इसका संवैधानिक महत्व प्रायः बिल्कुल नहीं है।’’ इस प्रकार राष्ट्रमंडल का सदस्य होते हुए भी भारत संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्नलोकतंत्रात्मक गणराज्यहै।

संविधान का दर्शन

  • प्रत्येक संविधान का अपना एक दर्शन होता है। संविधान के दर्शन का अभिप्राय उन आदर्शो से है, जिसे भारतीय संविधान अभिप्रेरित हुआ और उन नीतियों से है जिन पर हमारा संविधान और शासन प्रणाली आधारित है।
  • 22 जनवरी 1947 को संविधान सभा ने जिस उद्देश्य प्रस्ताव को अंगीकार किया था, उसे जवाहरलाल नेहरू ने 15 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा में अत्यंत प्रेरणात्मक और महत्वपूर्ण भाषण के रूप में प्रस्तुत किया था। सही उद्देश्य, संवैधानिक सिद्वांतों का शिलान्यास करते हुए संविधान की विचारधारा का निर्माण करते हैं।
  • भारतीय संविधान की अंतरात्मा न्याय, समता, अधिकार और बंधुत्व के आस से अभिसिंचित है । सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय हमारे वर्तमान संविधान की नियामक महत्वाकांक्षाओं में से एक है ।
  • जवाहरलाल नेहरू द्वारा जिन आदर्शो को प्रस्तुत किया गया, वे निम्नलिखित हैं-
    • संविधान सभा दृढ़तापूर्वक, सत्य निष्ठा से भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुसत्ता-सम्पन्न गणराज्य घोषित करती है और उसके भावी प्रशासन के लिए एक संविधान की संरचना करने का वचन देती है।
    • इसमें ब्रिटिश भारतीय क्षेत्र, भारतीय राज्यों के क्षेत्र और वह क्षेत्र जो ब्रिटिश भारत और भारतीय राज्यों की सीमा से बाहर है और जो स्वतंत्र, प्रभुसत्ता संपन्न भात के संवैधानिक भाग बनना चाहते हैं, सब को एकीकृत किया जाएगा।
    • ये सभी क्षेत्र अपनी वर्तमान सीमाओं अथवा संविधान द्वारा निर्धारित सीमाओं के साथ भारत के स्वायत्त एकक माने जाएंगे संग के लिए नियोजित अथवा अंतर्निहित शक्तियों के अतिरिक्त वह अपनी सरकार और प्रशासन के लिए सभी अवशिष्ट शक्तियों का प्रयोग करेंगे ।
    • स्वतंत्र भारत की संपूर्ण शक्ति और सत्ता, इसके संविधायी संघटक तथा प्रशासनिक उपकरण भारतीय जनता से व्युत्पन्न हैं।
    • भारत की जनता को सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक न्याय की गारंटी दी जाएगी कानून और सार्वजनिक नैतिकता के अंतर्गत सब को पदोन्नति के समान अवसर, विचार की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति, धर्म, आस्था, उपासना, व्यवसाय, साहचर्य तथा कार्यकारिता के अवसर प्रदान किए जाएंगे।
    • इसमें अल्पसंख्यकों, पिछड़े तथा आदिवासियों और दलितों एवं अन्य पिछड़े वर्गो को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान की जाएगी।
    • भारत के गणराज्य के क्षेत्रों और धरती, समुद्रों और वायु पर उसके अधिकारों को सभ्य राष्ट्र के नियमों के अनुसार सुरक्षित रखा जायेगा।
    • इस प्राचीन देश को विश्व में न्याय संगत और सम्मानित स्थान प्राप्त हुआ है, और यह विश्व शान्ति तथा मानव कल्याण के लिए जी जान से सहयोग देगा। 
    • संविधान की प्रस्तावना में इन सभी आदर्शो को  समाहित किया गया है। मूल रूप से संविधान की प्रस्तावना नेहरूजी द्वारा प्रस्तुत तथा सर्वसम्मति से संविधान सभा द्वारा अंगीकृत उद्देश्यों के प्रस्ताव पर आधारित है।
  • संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि "हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों कोः

          "सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्याय,

             विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म

          और उपासना की स्वतंत्रता,

          प्रतिष्ठा और अवसर की समता

प्राप्त कराने के लिए,

तथा उन सबों में

   व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता

     और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26-11-1949 0 हो एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।’’

महत्व

  •  उच्चतम न्यायालय के अनेक निर्णयों में प्रस्तावना का महत्व और उसकी उपयोगिता बताई गई है । प्रस्तावना को न्यायालय में प्रवर्तित नहीं किया जा सकता {गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950) उस.सी.आर. 88 (198), यूनियन ऑफ इंडिया बनाम मदन गोपाल (1954) एस.सी.आर. 541 (555)} लेकिन लिखित संविधान की प्रस्तावना में वे उद्देश्य लेखबद्ध किए जाते हैं जिनकी स्थापना और संप्रवर्तन के लिए संविधान की रचना होती है। बेयबाड़ी के मामले में उच्चतम न्यायालय ने इस बात से सहमति प्रकट की थी कि प्रस्तावना, संविधान निर्माताओं के मन की कुंजी हैं जहां शब्द अस्पष्ट पाए जाएं या उनका अर्थ स्पष्ट हो, वहां संविधान निर्माताओं के आशय को समझने के लिए प्रस्तावना की सहायता ली जा सकती है और पता लगाया जा सकता है कि उस शब्द विशेष का प्रयोग व्यापक संदर्भ में किया गया है या संकीर्ण संदर्भ में
  • सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य में मामले में न्यायमूर्ति मघोलकर ने कहा था कि प्रस्तावना पर "गहन विचिर-पिमर्श" की छाप है, उस पर सुस्पष्टता का ठप्पा है और उसे संविधान निर्माताओं ने विशेष महत्व दिया है।
  • इन आदर्शो का विश्लेषण इस प्रकार किया जा सकता है-

 स्वतंत्रता और प्रभुता सम्पन्न

  • भारत का संविधान ब्रिटिश संसद की देन नहीं है। इसे भारत के लोगों ने एक प्रभुत्वसंपन्न संविधान सभा में समवेत अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से अधिकथित किया था। "हम भारत के लोग ......इस संविधान को अंगीकृत , अधिनियमित और आत्मार्मित करते हैं" ये शब्द भारत के लोगों की सर्वोच्च प्रभुता की घोषणा करते है और इस बात की और संकेत करते हैं कि संविधान का आधार उन लोगों का प्राधिकार है । 26 जनवरी, 1950 को जब संविधान प्रवृत हुआ, इंग्लैड के सम्राट का भारत में कोई विधिक या सांविधानिक प्राधिकार नहीं रहा संपूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न या सार्वभौम शब्द का प्रयोग किया जाता इस बात का द्योतक है कि भारत के आंतरिक तथा वैदेशिक मामलों में भारत सरकार सार्वभौम तथा स्वतंत्र है।

लोकतांत्रिक गणराज्य

  • संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक लोकतांत्रिक राज्य घोषित किया गया है। प्रस्तावना में 'लोकतंत्रात्मक गणराज्यका जो चित्र है वह लोकतंत्र, राजनैतिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टिकोण से है। अर्थात केवल शासन में लोकतंत्र होगा बल्कि समाज भी लोकतंत्रांत्मक होगा जिसमें न्याय, स्वतंत्रता, 'समता और बंधुता'  की भावना होगी राजनीति पर किसी एक वर्ग विशेष का एकाधिकार नहीं होगा और शासन का संचालन बहुमत के सिद्वांत के आधार पर होगा। उन्ही कानूनों को लागू किया जाएगा जिन्हे जनता का समर्थन प्राप्त होगा प्रस्तावना में 'गणराज्य' शब्द का उपयोग इस विषय पर प्रकाश डालता है कि दो प्रकार की 'लोकतंत्रीय व्यवस्थाओं’ वंशानुगगत लोकतंत्र  तथा 'लोक तंत्रीय गणतंत्रको अपनाया गया है।

न्याय

  • न्याय की स्वतंत्रता और रक्षा के लिए भारतीय संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर विशेष बल दिया है। उद्देशिका  में सभी नागरिकों को न्याय का आश्वासन दिया गया है। न्याय का अर्थ है, व्यक्तियों के परस्पर हितों, समूहों के परस्पर हितों के बीच और एक ओर व्यक्तियों तथा समूहो के हितों तथा दूसरी ओर समुदाय के हितों के बीच सामंजस्य स्थापित हो । न्याय की संकल्पना वस्तुतया अति व्यापक है। यह केवल संकीर्ण कानूनी न्याय तक सीमित नहीं जो न्यायालयों द्वारा दिया जाता है। इसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सभी तरह के न्याय को महत्व दिया गया है।
  • सामाजिक न्याय से अभिप्राय यह है कि मानव-मानव के बीच में जाति, वर्ण के आधार पर भेद माना जाए और प्रत्येक नागरिक को उन्नति के समुचित अवसर सुलभ हों आर्थिक न्याय से अभिप्राय है कि उत्पादन एवं वितरण के साधनों का न्यायोचित वितरण हो और धन सम्पदा का केवल कुछ ही हाथों में केंद्रीकरण हो जाए राजनीतिक न्याय का अभिप्राय है कि राज्य के अंतर्गत समस्त नागरिकों को समान रूप से नागरिक और राजनीतिक अधिकार प्राप्त हों इस प्रकार प्रस्तावना में उपबंधित न्याय के विचार से लोककल्याणकरी राज्य का विचार दृष्टिगोचर होता है और नागरिकों को अन्य क्षेत्रों में न्याय का आश्वासन भी दिया गया है। 

स्वतंत्रता

संविधान की उद्देशिका में स्वतंत्रता का तात्पर्य केवल नियंत्रण या आधिपत्य का अभाव ही नहीं है। इसमें "विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता के अधिकार की सकारात्मक संकल्पना है। इस सकारात्मक अर्थबोध में स्वतंत्रता का अर्थ है, किसी व्यक्ति की अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता। मतदान में भाग लेना, प्रतिनिधियों को चुनना, निर्वाचन में खड़ा होना, सार्वजनिक पद पर नियुक्ति का अधिकार, सरकारी नीतियों की आलोचना करना आदि राजनीतिक स्वतंत्रताएं है।

समानता

राजनीतिक विज्ञान के सन्दर्भ में 'समानता' का अर्थ यह नही है कि सभी पुरूष तथा स्त्रियां सभी परिस्थितियों में समान है। उनके बीच शारीरिक, मानसिक और आर्थिक अंतर तो होंगे ही समानता से अभिप्राय है कि अपने व्यक्तित्व के समुचित विकास के लिए प्रत्येक मनुष्य को समान अवसर उपलब्ध होने चाहिए। समान योग्यता और समान श्रम के लिए वेतन भी समान होना चाहिए । इसके लिए अतरिक्त किसी एक व्यक्ति या एक वर्ग को अन्य व्यक्तियों या वर्गो के शोषण करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। संविधान की नजर में सभी नागरिक समान होंगे और उन्हे देश की विधियों का समान रूप से संरक्षण प्राप्त होगा। संविधान की प्रस्तावना में सभी नागरिकों को स्थान और अवसर की समता भी प्रदान की गई है। सार्वजनिक स्थानों में प्रवेश तथा लोक नियोजन के पिषय में धर्म, मूलवंश , जाति, स्त्री-पुरूष  या जन्म स्थान के आधार पर एक व्यक्ति और दूसरे व्यक्ति के बीच कोई विभेद नहीं होगा

बंधुत्व

  • सर्वसामान्य नागरिकता से संबंधित उपबंधों का उद्देश्य भारतीय बंधुत्व की भावना को मजबूत करना तथा एक सुदृढ़ लोकतंत्र का निर्माण करना है। यदि सभी लोगों के बीच बंधुता की भावना उत्पन्न नही होगी तो भारतीय लोकतंत्र कमजोर हो सकता है यह भावना होनी चाहिए कि हम सभी एक ही भूमि के एक ही मातृभूमि के पुत्र है। यह भारत जैसे देश के लिए और भी आवश्यक है क्योंकि यहां के लोग विभिन्न मूलवंश, धर्म, भाषा और संस्कृति वाले हैं।
  • बंधुता का एक अंतरराष्ट्रीय पक्ष भी है जो विश्व-बंधुत्व की संकल्पना 'वसुधैव कुटुंबकम' अर्थात संपूर्ण विश्व एक परिवार है- के प्राचीन भारतीय आदर्श की ओर ले जाता है । इसे संविधान के अनुच्छेद 51 में निर्देशक सिद्वांतों के अंतर्गत स्पष्ट किया गया है ।

 समाजवाद 

  • समाजवादी शब्द का आशय यह है कि "ऐसी संरचना जिससमें उत्पादन के मुख्य साधनों, पूंजी, जमीन, सम्पत्ति आदि पर सार्वजनिक स्वामित्व या नियंत्रण के साथ वितरण में  समतुल्य सामंजस्य हो।’’ इसका अर्थ यह नहीं है कि भारतीय संविधान जिन सम्पत्ति के उत्मूलन में विश्वास रखता है बल्कि यह उस पर कुछ निर्बधन लगाता है जिससे उसका उपयोग राष्ट्रीय हित में किया जा सके।
  • आर्थिक क्षेत्र में राज्य का बढ़ता हुआ हस्तक्षेप और भागीदारी वर्तमान सदी का एक बिशिष्ट उपलक्षण है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं जहां विभिन्न आर्थिक, औद्योगिक और व्यवसायिक क्षेत्र के प्रबन्ध में वहां की सरकार सक्रिय रूप से भाग लेती हो। आमतौर से इसको राज्य की प्रक्रिया पर समाजवाद का प्रभाव माना जाता है।
  • भारतीय समाज में किये गये अनेक संशोधनों से यह स्पष्ट होता है कि इसकी प्रगति की दिशा लोकतांत्रिक नही, सामाजिक आदर्शो की ओर उन्मुख है, और इसी तथ्य की प्राप्ति के लिए ये संशोधन किए जाते रहे हैं।

 पंथ निरपेक्ष राज्य

  • अनेक मतों के मानने वाले भारत के लोगों की एकता और उनमें बंधुता स्थापित करने के लिए संविधान में 'पंथ निरपेक्ष राज्यका आदर्श रखा गया है। इसका अर्थ है कि राज्य सभी मतों की समान रूप से रक्षा करेगा और स्वयं किसी भी मत को राज्य के धर्म के रूप में नहीं मानेगा।
  • राज्य के इस 'पंथ निरपेक्ष' उद्देश्य को 42वें संविधान संशोधन, 1976 के द्वारा उद्देशिका  में अंतःस्थापित करके सुनिश्चित किया गया है। इसे अनुच्छेद 25-29 में धर्म की स्वतंत्रता से संबंधित सभी नागरिकों के मूल अधिकार के रूप में समाविष्ट करके क्रियान्वित किया गया है । ये अधिकार, प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने, आचरण करने और प्रचार करने का अधिकार देते है। तथा राज्य की ओर से और इसके साथ ही राज्य की विभिन्न संस्थाओं की ओर से सभी धर्मो के प्रति पूर्ण निष्पक्षता सुनिश्चित करते हैं भारतीय संदर्भ में डोनाल्ड यूजीन स्मिथ की पंथनिरपेक्षता की संकल्पना इस प्रकार है- "पंथनिरपेक्ष राज्य वह राज्य है जो धर्म की व्यक्तिगत तथा समवेत स्वतंत्रता प्रदान करता है, जो संवैधानिक रूप से किसी धर्म विशेष से जुड़ा हुआ नही है और जो धर्म का तो प्रचार करता है तथा ही उसमें हस्तक्षेप करता है।’’ भारत एक धर्म प्रधान देश रहा है, फिर भी यहां धर्मनिरपेक्षता के सिद्वांत को अपनाया गया। पश्चिम के कतिपय  प्रगतिशील देशों ने अपने यहाँ के प्रचलित प्रधान धर्म को राजधर्म के रूप में ग्रहण कर रखा है। फिर भी भारत में नए संविधान और लोकतंत्र की स्थापना करते समय धर्मनिरपेक्षता का सिद्वांत अपनाया गया जबकि भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र ही धर्म रहा है, धर्म ही भारतीयों का प्राण रहा है, उनका सम्पूर्ण जीवन धर्म से ओत-प्रोत रहा है। पुरूषार्थत्तम धर्म, अर्थ और काम के  अंतर्गत धर्म को अत्यधिक महत्व दिया गया है।
  •  लेकिन धर्मनिरपेक्षता के सिद्वांत को अपनाये जाने के  कारणों के पक्ष में प्रसिद्व विधिवेत्ता डा. लक्ष्मीमल सिंघवी के अनुसार "यह राष्ट्रीय एकीकरण का एक साकार विचार है जिसमें राष्ट्रीय जीवन की विखरी हुई सम्पन्नता को पल्लवित करने की क्षमता है।’’
  • धर्म निरपेक्षता ही भारत की राष्ट्रीयता का आधार है धर्मनिरपेक्षता विविधता में एकता और हमारे देश की गौरवमयी विभिन्नताओं के प्रति हमारे आदर का प्रतीक हैं। धर्मनिरपेक्षता अन्य सभ्यताओं और संस्कृतियों के सर्वोत्तम तत्वों के साथ हमारे आत्मविश्वास भरे सम्पर्क की दीर्घ परम्परा का परिणाम हैं।
  • भारत में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ, धर्म का विरोध या अधार्मिकता नही है। इसका अर्थ है सर्वधर्म समभाव-सभी धर्मो को समान आदर देना, चाहे वह बहुसंख्यकों का  धर्म हो या अल्पसंख्यकों का धर्मनिरपेक्षता में प्रत्येक व्यक्ति को पूजा और प्रचार की पूरी स्वतंत्रता हाशिल है, लेकिन राज्य का कोई धर्म नहीं है और वह धर्म के आधार पर अपने किसी भी प्रकार के भेदभाव और पक्षपात का निषेध करता है। 
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