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 द्वितीय चरण या  उग्र राष्ट्रवाद /अतिवादी राजनीति (1905-18)

उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों विशेषतः 1890 के पश्चात भारत में उग्र राष्ट्रवाद का उदय प्रारंभ हुआ तथा 1905 तक आते-आते इसने पूर्ण स्वरूप धारण कर लिया।

 

उग्र राष्ट्रवाद के उदय के कारण

कांग्रेस की अनुनय-विनय की नीति से ब्रिटिश सरकार पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा तथा वे शासन में मनमानी करते रहे। इसके प्रतिक्रियास्वरूप इस भावना का जन्म हुआ कि स्वराज्य मांगने से नहीं अपितु संघर्ष से प्राप्त होगा। संवैधानिक आंदोलन से भारतीयों का विश्वास उठ गया। अतः संघर्ष द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करने की जिस भावना का जन्म हुआ उसे ही उग्र राष्ट्रवाद की भावना कहते हैं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का एक दल इसी भावना का कट्टर समर्थक था। इस दल का मत था कि कांग्रेस का ध्येय स्वराज्य होना चाहिए, जिसे वे आत्मविश्वास या आत्म-निर्भरता से प्राप्त करें। यह दल उग्रवादी कहलाया।

 

जिन तत्वों के कारण उग्र राष्ट्र-वाद का जन्म हुआ, उनमें प्रमुख निम्नानुसार हैं-

अंग्रेजी राज्य के सही स्वरूप की पहचान

अंग्रेजों द्वारा कांग्रेस के प्रार्थना-पत्रों एवं मांगों पर ध्यान न दिये जाने के कारण राजनीतिक रूप से जाग्रत कांग्रेस का एक वर्ग असंतुष्ट हो गया तथा वह राजनीतिक आन्दोलन का कोई दूसरा रास्ता अपनाने पर विचार करने लगा। इसका विश्वास था कि स्वशासन ही भारत के विकास एवं आत्म-निर्भरता का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। ब्रिटिश सरकार की आर्थिक शोषण की नीति ने देश को विपन्नता के कगार पर पहुंचा दिया था।

1896 से 1900 के मध्य पड़ने वाले भयंकर दुर्भिक्षों से 90 लाख से भी अधिक लोग मारे गये किंतु अंग्रेज शासकों की उपेक्षा विद्यमान रही। दक्षिण-भारत में आये भयंकर प्लेग से हजारों लोग काल के ग्रास बन गये। इसके अतिरिक्त दक्षिण भारत ही में हुये साम्प्रदायिक झगड़ों ने जन-धन को अपार क्षति पहुंचायी। इन परिस्थतियों में सरकार की निरंतर उपेक्षा से देशवासियों का प्रशासन से मोह भंग हो गया। राष्ट्रवादियों ने महसूस किया कि ब्रिटिश सरकार भारतीयों को अधिक अधिकार देने की अपेक्षा वर्तमान अधिकारों को भी वापस लेने का कुत्सित प्रयास कर रही है। फलतः इन राष्ट्रवादियों ने तत्कालीन विभिन्न नियमों एवं अधिकारों की आलोचना की। इस अवधि की निम्न घटनाओं ने भी इस दिशा में उत्प्रेरक का कार्य किया-

  • 1892- के भारतीय परिषद अधिनियम की राष्ट्रवादियों ने यह कहकर आलोचना की कि यह अपने उद्देश्यों की पूर्ति में असफल रहा है।
  • 1897- में पुणे के नाटु बंधुओं को बिना मुकदमा चलाये देश से निर्वासित कर दिया गया एवं तिलक तथा अन्य नेताओं को राजद्रोह फैलाने के आरोप में गिरफ्तार कर लम्बे कारावास का दण्ड दिया गया।
  • 1898- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124-ए का दमनकारी कानून नये प्रावधानों के साथ पुनः स्थापित और विस्तृत किया गया तथा एक नई धारा 156-ए जोड़ दी गयी।
  • 1899- कलकत्ता कार्पोरेशन एक्ट द्वारा कलकत्ता निगम के सदस्यों की संख्या में कमी कर दी गयी।
  • 1904-कार्यालय गोपनीयता कानून द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता का दमन।
  • 1904- भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम द्वारा विश्वविद्यालयों पर सरकारी पारित प्रस्तावों पर निषेधाधिकार (Veto) दिया गया।
  • ब्रिटिश शासन के सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रभाव भी विनाशकारी रहे। इसने शिक्षा के प्रसार में उपेक्षा की नीति अपनायी विशेषकर लोकशिक्षा, स्त्रीशिक्षा एवं तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में।

 

आत्मविश्वास तथा आत्म-सम्मान में वृद्धि

राष्ट्रवादियों के प्रयास से भारतीयों के आत्म-विश्वास एवं आत्म-सम्मान में वृद्धि हुयी। तिलक, अरविन्द घोष तथा विपिन चंद्र पाल ने अन्य राष्ट्रवादी नेताओं से अपील की कि वे भारतीयों की विशेषताओं एवं शक्ति को पहचानें। धीरे-धीरे यह धारणा बलवली होने लगी कि जन साधारण के सहयोग के बिना स्वतंत्रता प्राप्ति के लक्ष्यों तक नहीं पहुंचा जा सकता।

 

शिक्षा का विकास

शिक्षा के व्यापक प्रसार से जहां एक ओर भारतीय तेजी से शिक्षित होने लगे तथा उनमें जागृति आयी, वहीं दूसरी ओर उनमें बेरोजगारी एवं अर्द्ध-बेरोजगारी भी बढ़ी क्योंकि शिक्षित होने वाले व्यक्तियों की तुलना में सरकार रोजगार के अवसरों का सृजन नहीं कर सकी। इनमें से अधिकांश ने अपनी बेकारी और दयनीय आर्थिक दशा के लिये उपनिवेशी-शासन को उत्तरदायी ठहराया तथा धीरे-धीरे वे विदेशी शासन को समूल नष्ट करने के लिये उग्र राष्ट्रवाद की ओर झुकने लगे। चूंकि भारतीयों का यह नव-शिक्षित वर्ग पश्चिमी शिक्षा के कारण वहां के राष्ट्रवाद, जनतंत्र एवं आमूल परिवर्तन के विचारों से अवगत हो चुका था फलतः उसने साधारण भारतीयों में भी आमूल परिवर्तन लाने वाली राष्ट्रवादी राजनीति का प्रसार प्रारंभ कर दिया।

 

अंतरराष्ट्रीय घटनाओं का प्रभाव

इस काल की कई अंतरराष्ट्रीय घटनाओं ने भी उग्र राष्ट्रवाद के उदय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1868 के पश्चात जापान का विशाल औद्योगिक शक्ति के रूप में उभरना एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना थी। इससे भारतीय इस सच्चाई से अवगत हुये कि एशिया के देश बिना किसी बाह्य सहयोग के भी आर्थिक विकास कर सकते हैं। इस घटना ने उदारवादियों की इस अवधारणा को पूर्णतः गलत साबित कर दिया कि भारत के आर्थिक विकास के लिये ब्रिटेन का संरक्षण आवश्यक है। 1896 में इथियोपिया द्वारा इटली की सेनाओं की अपमानजनक पराजय, ब्रिटिश सेनाओं को गंभीर क्षति पहुंचाने वाले बोअर युद्ध (1899-1902) एवं 1905 में जापान द्वारा रूस की पराजय जैसी घटनाओं ने यूरोपीय अजेयता के मिथक को तोड़ दिया। इसी प्रकार आयरलैंड, रूस, मिस्र, पर्शिया एवं चीन के क्रांतिकारी आंदोलनों ने भी राष्ट्रवादियों को विश्वास दिलाया कि वे राष्ट्रव्यापी उग्र आंदोलन द्वारा एकजुट होकर विदेशी दासता से मुक्ति पा सकते हैं।

 

बढ़ते हुये पश्चिमीकरण के विरुद्ध प्रतिक्रिया

नवीन राष्ट्रवादी नेताओं ने बढ़ते हुये पश्चिमीकरण पर गहरी चिंता व्यक्त की क्योंकि भारतीय राजनीतिक चिंतन एवं समाज में पश्चिमी प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा था। भारत का सांस्कृतिक पहलू भी इससे अछूता न रहा। इससे भारतीय संस्कृति के पाश्चात्य संस्कृति में विलीन होने का खतरा पैदा हो गया। ऐसे समय में स्वामी विवेकानंद, बंकिमचंद्र चटर्जी एवं स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे विद्वानों ने भारतीय तथा वैदिक संस्कृति के प्रति लोगों में नया विश्वास पैदा किया तथा भारत की प्राचीन समृद्ध विरासत का गुणगान कर पश्चिमी संस्कृति की पोल खोल दी। इन्होंने भारत की प्राचीन सांस्कृतिक समृद्धि का बखान कर पाश्चात्य सर्वश्रेष्ठता के भ्रम को तोड़ दिया। इनके प्रयासों से भारतीयों की यह हीन भावना दूर हो गयी कि वे पश्चिम से पिछड़े हुये हैं। दयानंद ने घोषित किया 'भारत भारतीयों के लिये है।'

 

उदारवादियों की उपलब्धियों से असंतोष

तरुण राष्ट्रवादी कांग्रेस के पहले 15-20 वर्षों की उपलब्धियों से संतुष्ट न थे। वे कांग्रेस की क्षमा, याचना एवं शांतिपूर्ण प्रतिवाद की नीति के तीव्र आलोचक थे। उनका मानना था कि अंग्रेजी साम्राज्यवाद को इस तरह की नीतियों से कभी भी समाप्त नहीं किया जा सकता।

उदारवादियों की इस नीति को उन्होंने ‘राजनीतिक भिक्षावृति’ की संज्ञा दी। वे स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु उग्र आंदोलन चलाये जाने के पक्षधर थे।

 

लार्ड कर्जन की प्रतिक्रियावादी नीतियां

लार्ड कर्जन का भारत में 7 वर्ष का शासन शिष्टमंडल, भूलों तथा आयोगों के लिए प्रसिद्द है। जनमानस पर कड़ी प्रतिक्रिया हुयी। कर्जन ने भारत को एक राष्ट्र मानने से इंकार कर दिया तथा कांग्रेस को ‘मन के उद्गार निकालने वाली संस्था’ की संज्ञा दी। उसने भारत विरोधी बयान दिये। उसके शासन के विभिन्न प्रतिक्रियावादी कानूनों यथा-कार्यालय गोपनीयता अधिनियम, भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम तथा कलकत्ता कार्पोरेशन अधिनियम इत्यादि से भारतीय खिन्न हो गये। 1905 में बंगाल के विभाजन तथा कटुभाषा के प्रयोग से भारतीयों का असंतोष चरम सीमा पर पहुंच गया। बंगाल विभाजन के विरोध में पूरे देश में तीव्र आंदोलन हुये तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया। कर्जन के इन कार्यों से ब्रिटिश शासकों की प्रतिक्रियावादी मंशा स्पष्ट उजागर हो गयी।

 

जुझारू राष्ट्रवादी विचारधारा

बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में जुझारू या उग्र विचारधारा वाले राष्ट्रवादियों का एक ऐसा वर्ग तैयार हुआ, जिसने राजनितिक कार्यों एवं आंदोलनों के लिये उग्र तरीके अपनाने पर जोर दिया। इन जुझारू राष्ट्रवादियों में बंगाल के राज नारायण बोस, अश्विनी कुमार दत्त, अरविंद घोष तथा तथा विपिन चन्द्र पाल, महाराष्ट्र के विष्णु शास्त्री चिपलंकर, बाल गंगाधर तिलक एवं पंजाब के लाला लाजपत राय प्रमुख थे। इस उग्र विचाराधारा के उत्थान में सबसे अधिक सहयोग तिलक ने दिया। उन्होंने अंग्रेजी भाषा में मराठा एवं मराठी में केसरी के माध्यम से भारतीयों को जुझारू राष्ट्रवाद की शिक्षा दी और कहा कि आजादी बलिदान मांगती है इस विचारधारा के समर्थकों के प्रमुख सिद्धांत इस प्रकार थे-

विदेशी शासन से घृणा करो, इससे किसी प्रकार की उम्मीद करना व्यर्थ है, अपने उद्धार के लिये भारतीयों को स्वयं प्रयत्न करना चाहिए।

  • स्वतंत्रता आंदोलन का मुख्य लक्ष्य स्वराज्य है।
  • राजनीतिक क्रियाकलापों में भारतीयों की प्रत्यक्ष भागेदारी।
  • निडरता, आत्म-त्याग एवं आत्म विश्वास की भावना प्रत्येक भारतीय में अवश्य होना चाहिए।
  • स्वतंत्रता पाने एवं हीन दशा को दूर करने हेतु भारतीयों को संघर्ष करना चाहिए।

 

एक प्रशिक्षित नेतृत्व का उद्भव

राजनीतिक कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षित समूह के अभाव में राजनीतिक आंदोलन को उच्चता या पराकाष्ठा पर ले जाना असंभव है। सौभाग्यवश भारत में लंबे एवं व्यवस्थित राजनीतिक आन्दोलन के फलस्वरूप देश में प्रशिक्षित नेतृत्व का अभ्युदय हो चुका था। इस प्रशिक्षित नेतृत्व ने स्वतंत्रता संघर्ष को नयी दिशा दी एवं भारतीयों की ऊर्जा एवं शक्ति को स्वतंत्रता प्राप्ति के अभियान से जोड़ दिया। बंगाल विभाजन के विरोध एवं स्वदेशी आंदोलन जैसे अभियानों के फलस्वरूप भारतीयों को अपनी सामर्थ्य का आभास हो चुका था। योग्य नेतृत्व ने स्वराज प्राप्ति की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया।

 

क्रांतिकारी आतंकवाद का प्रथम चरण ( 1905 - 1915 )

  • कांग्रेस के उदारवादियों की संवैधानिक कार्य पद्धति से निराश तथा उगता आदर्शवाद से प्रेरित अनेक भारतीय युवकों ने क्रांति के मार्ग को चुना । क्रांतिकारी आतंकवाद के प्रथम चरण में क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश हुकूमत के दिलों में दहशत फैला कर उन्हें भारत से भगाने की योजना के तहत आयरिश आतंकवादियों तथा रुसी निहलिस्टों के सिद्धान्त पर चलने का निश्चय किया । इस समय क्रांतिकारी आतंकवाद के प्रमुख केन्द्र बंगाल , पंजाब और महाराष्ट्र में सक्रिय क्रांतिकारियों ने तिलक द्वारा दिये गये नारे 'अनुनय - विनय नहीं बल्कि युयुत्सा' के नारे को अपना आदर्श वाक्य बनाया ।
  • क्रांतिकारी आतंकवाद के प्रथम चरण में क्रांतिकारियों में दो भिन्न विचारधारा के लोग सक्रिय थे, एक वर्ग का मानना था कि ब्रिटिश सरकार से सशस्त्र संघर्ष करने के लिए भारतीय सेना और यदि संभव हो अंग्रेज विरोधी विदेशी ताकतों से भी मदद ली जाये । दूसरी विचारधारा के लोग हिंसात्मक गतिविधियों द्वारा क्रांतिकारी नेताओं के विरुद्ध अंग्रेज अफसरों और पुलिस वालों को सूचना देने वालों की हत्या तक सीमित रहना चाहते थे । क्रांतिकारियों आयरलैण्ड , फ्रांसीसी क्रांति , इटली के पुनर्जागरण आंदोलन , अमरीका के स्वतंत्रता संग्राम तथा सोवियत संघ के समाजवादी क्रांति से प्रेरणा मिली थी । भारत में क्रांतिकारी गतिविधियों की शुरुआत 1897 में महाराष्ट्र से माना जाता है ।
  • महाराष्ट्र 1918 में पेश की गई विद्रोही समिति की रिपोर्ट में महाराष्ट्र के पुणे जिले के चितपावन ब्राह्मणों को आतंकवाद ( भारत में ) शुरु करने का श्रेय दिया गया ।
  • दामोदर तथा बालकृष्ण चापेकर ने 22 जून , 1897 को पुणे के प्लेग कमिश्नर रेण्ड तथा एमहर्ट की हत्या कर भारत में क्रांतिकारी आतंकवादी गतिविधियों की नींव डाली । कालांतर में चापेकर बंधु को फांसी दे दी गई ।
  • चापेकर बंधु क्रांतिकारी संस्था हिन्दू धर्म संघ से जुड़े थे । महाराष्ट्र में आर्य बान्धव समिति नामक क्रांतिकारी संस्था तिलक की प्रेरणा से स्थापित की गई थी । 1897 में तिलक ने केसरी में लिखा कि श्रीकृष्ण का गीता में यह उपदेश है कि 'अपने गुरुजनों तथा बंधुओं की भी हत्या कर दो यदि कोई व्यक्ति कर्म - फल की इच्छा के बिना अथवा कर्म में लिप्त न होकर , कर्म करता है तो उसे कोई दोष नहीं लगता । ' '
  • महाराष्ट्र के क्रांतिकारी संघों में से प्रथम स्थान विनायक दामोदर सावरकर द्वारा स्थापित ' अभिनव भारत समाज ' का था ( 1904 ) | विनायक दामोदर सावरकर द्वारा 1899 ई० में स्थापित मित्रमेला नामक संस्था ही कालांतर में 'अभिनव भारत समाज' के रूप में प्रसिद्ध हुई ।  'अभिनव भारत ' की शाखायें महाराष्ट्र और मध्य प्रांत के कई इलाकों में सक्रिय थी , इस संस्था के मुख्य सदस्य अनन्त लक्ष्मण करकरे ने नासिक के जिला मजिस्ट्रेट जैक्सन की हत्या कर दी , इस हत्याकाण्ड से जुड़े लोगों पर ‘नासिक षड्यंत्र केस' के तहत मुकदमा चलाया गया जिसमें सावरकर के भाई गणेश भी शामिल थे जिन्हें आजीवन कारावास की सजा मिली ।

 

बंगाल 

  • बंगाल में क्रांतिकारी घटनाओं का आरम्भ बंगाल विभाजन ( 1905 ) के बाद माना जाता है , लेकिन इस घटना के पूर्व ही वहां कुछ क्रांतिकारी संगठन अस्तित्व में आ चुके थे ।1902 में बंगाल में पहले क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन समिति की स्थापना मिदनापुर में ज्ञानेन्द्र नाथ वसु द्वारा तथा कलकत्ता में जतीन्द्र नाथ बनर्जी और बारीन्द्र नाथ घोष द्वारा की गई । अनुशीलन समिति के अलावा बंगाल में सुहद समिति ( मायमेन सिंह ) , साधना समिति , स्वदेश बांधव समिति ( बारीसाल ) , ब्रती समिति ( फरीदपुर) भी आतंकवादी गतिविधियों का संचालन करती थी ।
  • बंगाल विभाजन के उपरान्त अनेक क्रांतिकारी समाचार पत्रों का बंगाल से प्रकाशन शुरू हुआ, जिनमें प्रमुख हैं - ब्रह्मबान्धव उपाध्याय द्वारा प्रकाशित संध्या , अरबिन्द घोष द्वारा सम्पादित बन्देमातरम् , भूपेन्द्र नाथ दत्त द्वारा सम्पादित युगान्तर आदि । बारीसाल में पुलिस द्वारा की गई लाठी चार्ज पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए युगान्तर ने कहा कि "अंग्रेजी सरकार के दमन को रोकने के लिए भारत की तीस करोड़ जनता अपने 60 करोड़ हाथ उठाये , ताकत का मुकाबला ताकत से किया जाये । "
  • युगान्तर अखबार के नाम पर युगांतर नामक क्रांतिकारी संगठन का भी बंगाल में अस्तित्व था । बारीन्द्र घोष के नेतृत्व में युगांतर समूह ने "सर्वत्र क्रांति का बिगुल बजाया तथा बताया कि क्रांति किस प्रकार प्रभावकारी होगी ।"
  • बंगाल के क्रांतिकारियों की पहली पीढ़ी में हेमचंद्र कानूनगो का नाम आता है इन्होंने पेरिस में एक रूसी से सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त कर 1908 में भारत आये और कलकत्ता स्थित मणिकतल्ला में बम बनाने हेतु कारखाना खोला । प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस ने 30 अप्रैल , 1908 को बंगाल प्रेसीडेंसी के मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड की हत्या का प्रयास किया । प्रफुल्ल चाकी ने पुलिस से बचने के लिए आत्महत्या कर ली तथा खुदीराम बोस को गिरफ्तार कर फांसी दे दी गई । इस घटना के बाद पुलिस ने मणिकतल्ला पर छापा मारा वहां से 34 लोगों को गिरफ्तार किया जिसमें बारीन्द्र और अरबिन्द्र घोष भी शामिल थे । इन सब पर अलीपुर षड्यंत्र केस के तहत मुकदमा चलाया गया। बारीन्द्र को आजीवन कारावास तथा अरबिन्द को उचित साक्ष्य के अभाव में छोड़ दिया गया । 
  • बंगाल के एक और क्रांतिकारी जतीन्द्र नाथ मुखर्जी को बाघा जतिन के नाम से जाना जाता था, 9 सितम्बर, 1915 को बालासोर में पुलिस द्वारा मुडभेड़ में मारे गये ।
  • बंगाल के एक अन्य महान क्रांतिकारी रास बिहारी बोस थे कलकत्ता से दिल्ली राजधानी परिवर्तन के समय लार्ड हार्डिंग पर फेंके गये बम की योजना रास बिहारी ने बनाई थी (22 दिसम्बर 1912 ) । गिरफ्तारी से बचने के लिए बोस जापान चले गये । गिरफ्तार किये गये लोगों पर         ( अवध बिहारी , अमीर चंद्र , लाला मुकुंद बसंत कुमार ) ' दिल्ली षड्यंत्र केस ' के तहत मुकदमा चलाया गया ।
  • ढाका में अनुशीलन समिति की सर्वाधिक शाखायें थी । बंगाल में बढ़ रही क्रांतिकारियों की गतिविधियों के दमन हेतु सरकार ' 1900 में विस्फोटक पदार्थ अधिनियम , 1908 ' में समाचार पत्र अधिनियम का सहारा लेकर आतंकवाद को कुचलने का प्रयास किया ।
  • सरकार के दमन चक्र से बचने के लिए कुछ क्रांतिकारी भूमिगत होकर कार्य करने लगे तो कुछ विदेशी धरती से ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध क्रांतिकारी गतिविधियों के संचालन का निर्णय लिया । अरबिन्द घोष कालांतर में आतंकवादी क्रिया - कलापों से अलग होकर संन्यासी हो गये तथा पांडिचेरी में अपना आश्रम स्थापित कर लिया । ब्रह्म बांधोपाध्याय जिन्होंने सर्वप्रथम रवीन्द्रनाथ टैगोर को ‘गुरुदेव' कहकर सम्बोधित किया था , रामकृष्ण मठ में स्वामी जी बन गये।

 

पंजाब 

  • पंजाब में क्रांतिकारी आतंकवाद का उदय बार - बार पड़ने वाले अकाल और भू - राजस्व तथा सिंचाई करों में वृद्धि के परिणामस्वरूप हुआ ।
  • पंजाब में अजीत सिंह , सूफी अंबा प्रसाद , लाला लाजपत राय जैसे नेताओं ने आतंकवाद को जन्म दिया । अमरीका में गदर पार्टी की स्थापना के बाद पंजाब गदर पार्टी की गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र बन गया । सूफी अंबा प्रसाद , अजीत सिंह देश छोड़कर अफगानिस्तान चले गये ।
  • अजीत सिंह ने लाहौर में 'अंजुमन-ए- मोहिब्बाने वतन' नामक एक संस्था की स्थापना की थी तथा ' भारत माता ' नाम से अखबार निकाला था ।

 

भारत से बाहर क्रांतिकारी गतिविधियां

  • देश में आतंकवाद निरोधी अधिनियमों द्वारा क्रांतिकारी गतिविधियों पर प्रतिबंध लगने के बाद यहां से अधिकांश क्रांतिकारी विदेशों को पलायन कर गया । भारत से बाहर गये क्रांतिकारी ब्रिटेन , अमरीका , फ्रांस , अफगानिस्तान तथा जर्मनी में सक्रिय हुए । भारत से बाहर विदेशी धरती पर स्थापित सबसे पुरानी क्रांतिकारी संस्था इंडिया होमरुल सोसाइटी थी जिसकी स्थापना 1905 में लंदन में श्याम जी कृष्ण वर्मा ने की थी ।
  • इंडिया होमरुल सोसाइटी के प्रमुख सदस्यों में वी० डी० सावरकर , हरदयाल तथा मदन लाल धींगरा थे । सोसाइटी का प्रमुख उद्देश्य भारत के लिए  ' स्वशासन ' प्राप्त करना था ।
  • इंडियन होमरुल सोसाइटी ने 'इण्डियन सोसिऑलाजिस्ट' नामक पत्रिका का प्रकाशन किया तथा इण्डिया हाऊस की स्थापना की । इण्डिया हाऊस के सदस्य मदनलाल धींगरा ने 1 जुलाई , 1909 को भारत सचिव के राजनीतिक सलाहकार विलियम हट कर्जन वाइली की गोली मार कर हत्या कर दी । शीघ्र ही धींगरा को फांसी पर लटका दिया गया ।
  • इस हत्याकाण्ड के बाद सावरकर को गिरफ्तार कर नासिक षड्यंत्र केस के अन्तर्गत मुकदमा चलाने के लिए भारत भेजा गया । श्यामजी कृष्ण वर्मा की एक अन्य सहयोगी मैडम भीखाजी रुस्तम के० आर० कामा जिन्हें Mother of Indian Revolution भी कहा जाता था ,ने 1902 में भारत के स्वतंत्रता का संदेश यूरोप के विभिन्न देशों तथा अमरीका आदि में प्रचार के लिए भारत को छोड़ दिया ।
  • 1907 में स्टुटगार्ट ( जर्मनी ) में होने वाले द्वितीय अन्तर्राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस के सम्मेलन में मैडम कामा ने भारतीय प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया । सम्मेलन में कामा ने ब्रिटिश शासन के दुष्परिणामों के बारे में विचारोत्तेजक भाषण दिया , स्टुटगार्ट सम्मेलन में ही मैडम कामा ने पहली बार हरा , पीला और लाल रंग के राष्ट्रीय झण्डे को फहराया मैडम कामा ने पेरिस में रहते हुए क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़ी रही ।

 

गदर पार्टी ( 1913 )

  • क्रांतिकारी आतंकवादी आंदोलन के प्रथम चरण में अनेक भारतीय संयुक्त राज्य अमरीका और कनाडा में बस गये थे । इन लोगों ने वहां से समाचार पत्रों का प्रकाशन किया ।
  • 1907 रामनाथपुरी ‘रकुलर - ए - आजादी ' तथा बैंकुअर से तारकनाथदास ने 'फ्री हिन्दुस्तान ' का प्रकाशन किया ये अखबार राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत थे ।  ये अमरीका में रह रहे भारतीय द्वारकानाथ दास ने 1907 में कैलिफोर्निया में 'भारतीय स्वतंत्रता लीग' का गठन किया । नवम्बर , 1913 में सोहन सिंह भाकना ने 'हिन्द एसोएिसशन ऑफ अमरीका ' की स्थापना की , इस संस्था ने कालांतर में अंग्रेजी , उर्दू , मराठी और पंजाबी में एक साथ "गदर या हिन्दुस्तान गदर" ( 1857 के विद्रोह की स्मृति में ) का प्रकाशन किया ।
  • गदर पत्रिका के नाम पर ही ‘ हिन्द एसोसिएशन ऑफ अमरीका ' का नाम 'गदर आंदोलन' पड़ गया ।
  • लाला हरदयाल जो 1911 से कैलिफोर्निया के स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य कर रहे थे , 1913 में गदर संस्था से जुड़ गये , ये इस संस्था के मनीषी पथ - प्रदर्शक थे ।
  • गदर आंदोलन ने सैन फ्रांसिस्कों में युगांतर आश्रम की स्थापना की और यहीं से अपनी गतिविधियों का संचालन किया ।
  • उर्दू और गुरुमुखी भाषा के गदर के अंकों में शस्त्र धारण कैसे करें , बगावत करने तथा अंग्रेज अधिकारियों की हत्या के लिए प्रोत्साहित करने वाली कविताओं का प्रकाशन होता था ।
  •  लाला हरदयाल , भाई परमानंद और रामचंद्र गदर पार्टी के प्रमुख नेताओं में से थे ।
  • राजा महेन्द्र प्रताप ने जर्मनी के सहयोग से अफगानिस्तान के काबुल नगर में दिसम्बर , 1915 को अंतरिम भारत सरकार की स्थापना की । राजामहेन्द्र प्रताप के मंत्रिमण्डल के अन्य सदस्य थे बरकतुल्ला (प्रधानमंत्री) , मौलाना अब्दुल्ला , मौलाना बशीर , सी० पिल्लै , शमशेर सिंह , डा० मथुरा सिंह , खुदाबख्श और मुहम्मद अली । इसी दौरान राजा महेन्द्र प्रताप अपनी सरकार के समर्थन हेतु लेनिन से मिले थे ।
  • भारत में चले 'हिजरत आंदोलन ' से जुड़े कई नेता कालांतर में अफगानिस्तान और तुर्किस्तान चले गये जहाँ उन्होंने खुदाई सेना की स्थापना की ।
  • रेशमी रुमाल षड्यंत्र- खुदाई सेना के मौलवी उबेदुल्ला सिंधि से रेशमी रुमाल षड्यंत्र जुड़ा है । उबेदुल्लाह सिंधी जो पहली पंक्ति के स्वतंत्रता सेनानी थे, का जन्म 10 मार्च,1872 को सियालकोट (पाकिस्तान) में हुआ। इन्होंने हिंदुस्तान की आजादी के लिए विभिन्न मुस्लिम देशों का समर्थन प्राप्त करने हेतु एक अभियान चलाया जिसे ‘रेशमी रुमाल षडयंत्र’ का नाम दिया गया। वो जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली के आजीवन सदस्य रहे जिन्होंने बड़ी ही मामूली पगार पर नौकरी की। इनके द्वारा किए गए कार्यों के लिए यहां स्थित लड़कों के एक हॉस्टल का नाम भी इनके ऊपर रखा गया।
  • 15 फरवरी , 1915 को पंजाबी मुसलमानों की पांचवी लाइट इनफैन्ट्री के 36वीं सिख बटालियन के जवानों ने सिंगापुर में विद्रोह कर दिया ।
  • जमादार चिश्ती खां , जमादार अब्दुलगनी तथा सूबेदार दाउद खां के नेतृत्व में हुआ यह विद्रोह सिंगापुर विद्रोह के नाम से प्रसिद्ध हुआ । मद्रास प्रांत में नीलकण्ठ ब्रह्मचारी तथा वंची अय्यर ने गुप्त रूप से भारत माता समिति की स्थापना की ।अय्यर ने 1911 में तिरुनेवेली के मजिस्ट्रेट आशे की हत्या कर आत्महत्या कर ली ।
  • भारतीय राष्ट्रीय अदोलन के द्वितीय चरण की सबसे महत्वपूर्ण घटना बंगाल विभाजन (1905) की थी ।

 

बंगाल विभाजन

  • लार्ड कर्जन का गवर्नर जनरल काल भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का उच्चतम बिन्दु था । इनके विभिन्न प्रशासकीय कार्यों में जिस कार्य का सर्वाधिक विरोध हुआ और जो उसका सबसे विवादास्पद कार्य था वह था बंगाल का विभाजन । कर्जन द्वारा बंगाल विभाजन का निर्णय (1905) भारतीय राष्ट्रवाद पर किया गया एक प्रच्छन्न प्रहार था ।
  •  बंगाल प्रेसीडेंसी तत्कालीन सभी प्रेसीडेंसियों में सबसे बड़ी थी , इसमें पश्चिमी और पूर्वी बंगाल सहित बिहार और उड़ीसा भी शामिल थे । असम बंगाल से 1874 ई० में ही अलग हो चुका था ।
  • अंग्रेजी सरकार ने बंगाल को विभाजित करने का कारण यह बताया कि इतने बड़े प्रांत को विभाजित किये बिना इसका शासन सुव्यवस्थित रूप से नहीं क़िया जा सकता ।
  •  विभाजन का वास्तविक कारण था , चूंकि बंगाल उस समय राष्ट्रीय चेतना का केन्द्र बिंदु था और इसी चेतना को नष्ट करने हेतु बंगाल विभाजन का निर्णय लिया गया ।
  • बंगाल को केवल बंगालियों के प्रभाव से मुक्त करने के लिए नहीं बांटा गया बल्कि बंगाल में बंगाली आबादी को कम करना भी सरकार का उद्देश्य था ।
  • बंगाल विभाजन में एक और विभाजन 'धार्मिक आधार पर विभाजन' अन्तर्निहित था 20 जुलाई, 1905 बंगाल विभाजन के निर्णय की घोषणा हुई ।
  • 7 अगस्त , 1905 को कलकत्ता के टाऊन हाल में सम्पन्न एक बैठक में स्वदेशी आंदोलन की घोषणा हुई तथा बहिष्कार प्रस्ताव पारित हुआ ।
  • 16 अगस्त , 1905 को बंगाल विभाजन की योजना प्रभावी हो गई । विभाजन के बाद पूर्वी बंगाल और असम को मिलाकर एक नया प्रांत बनाया गया जिसमें राजशाही , चटगांव , ढाका आदि सम्मिलित थे , जहां की कुल जनसंख्या 3 करोड़ दस लाख थी , जिसमें एक करोड़ अस्सी लाख मुसलमान तथा एक करोड़ बीस लाख हिन्दू थे । ढाका यहां की राजधानी थी ।
  • विभाजित बंगाल के दूसरे भाग में प० बंगाल , बिहार और उड़ीसा शामिल थे , जिसकी कुल जनसंख्या 5 करोड़ 40 लाख थी जिसमें 4 करोड़ 20 लाख हिन्दू और 90 लाख मुसलमान थे। 16 अक्टूबर , 1905 का दिन समूचे बंगाल में 'शोक दिवस' के रूप में मनाया गया, लोगों ने उपवास रखा , वंदेमातरम् का गीत गाया और एक दूसरे  को राखी बांधी ।
  • विभाजन पर गोखले ने कहा था कि यह एक निर्मम भूल है। सुरेन्द्रनाथ बनजी ने विभाजन पर कहा कि विभाजन हमारे ऊपर एक वज्र की तरह गिरा है ।
  • 'कांग्रेस के बनारस अधिवेशन में ‘ स्वदेशी ' और बहिष्कार आंदोलन का अनुमोदन किया गया । स्वदेशी और बहिष्कार का प्रचार समूचे देश में करने का कार्य तिलक , लाला लाजपत राय और अरबिन्द घोष ने किया ।
  • इस समय चलाये गये बहिष्कार आंदोलन के अन्तर्गत न केवल विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया गया बल्कि स्कूलों , अदालतों , उपाधियों , सरकारी नौकरियों आदि का भी बहिष्कार हुआ ।
  • स्वदेशी आंदोलन के समय लोगों का आंदोलन के प्रति समर्थन एकत्र करने में ' स्वदेश बांधव समिति ' जिसकी स्थापना बारीसाल के अध्यापक अश्विनी कुमार दत्त ने की थी , की भूमिका महत्वपूर्ण थी । स्वदेशी आंदोलन की उपलब्धि थी , ' आत्मनिर्भरता ' और ' आत्म शक्ति '
  • स्वदेशी आंदोलन का प्रभाव शीघ्र ही देखने को मिला , 15 अगस्त , 1906 को एक राष्ट्रीय शिक्षा परिषद की स्थापना की गई । आचार्य पी० सी० राय बंगाल केमिकल्स एवं फार्मास्युटिकल्स की स्थापना की ।
  • स्वदेशी आंदोलन का प्रभाव बंगाल के सांस्कृतिक क्षेत्र में देखने को मिला । बंगला साहित्य के लिए यह समय स्वर्णकाल जैसा था । टैगोर ने इसी समय ' आमार सोनार बांग्ला ' नामक गीत लिखा , जो 1971 में बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान बना । रवीन्द्रनाथ टैगोर को उनके गीतों के संकलन गीताजंलि के लिए साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला ।
  • कला के क्षेत्र में अवनीन्द्रनाथ टैगोर ने पाश्चात्य प्रभाव से बिल्कुल अलग पूर्णत : स्वदेशी पारम्परिक कला से प्रेरणा लेकर चित्रकारी शुरु की । बहुउद्देशीय कार्यक्रम वाले स्वदेशी आंदोलन ने देश के एक बड़े हिस्से को । अपने प्रभाव में ले लिया जिसमें जमींदार , शहरी निम्न मध्यमवर्ग , छात्र तथा औरतें शामिल थी । । स्वदेशी आंदोलन के समय पहली बार महिलाओं ने परदे से बाहर आकर धरनों और प्रदर्शनों में हिस्सा लिया । किसान एवं बहुसंख्यक मुस्लिम समुदाय स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन से अलग रहा ।
  • 1908 तक बंगाल में स्वदेशी आंदोलन की गति धीमी पड़ गई क्योंकि इस आंदोलन से जुड़े नेता तिलक , अश्विनी कुमार दत्त तथा कृष्ण कुमार को गिरफ्तार कर निर्वासित कर दिया गया । स्वदेशी आंदोलन ने समाज के उस बड़े तबके में राष्ट्रीय भावना को जगाया जातीय राष्ट्रीयता से पूर्णत : अनभिज्ञ था , ' स्वदेशी ' ने सर्वाधिक भारत की सांस्कृतिक विचारधारा को प्रभावित किया ।
  • निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि 'स्वदेशी आंदोलन' साम्राज्यवाद के विरुद्ध पहला सशक्त राष्ट्रीय आंदोलन था जो भावी संघर्ष का बीज बोकर समाप्त हुआ । बंगाल विभाजन पर पूर्वी बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर बैमफायल्डे फुल्लर ने मुसलमानों को अपनी चहेती पत्नी के रूप में उल्लिखित किया । महात्मा गांधी ने लिखा कि ‘भारत का वास्तविक जागरण बंगाल विभाजन के उपरान्त शुरु हुआ |’

 

स्वदेशी तथा बहिष्कार आंदोलन

बंगाल विभाजन, (जो कि 1903 में सार्वजनिक हुआ तथा 1905 में लागू किया गया) के विरोध में प्रारम्भ हुआ। बंगाल विभाजन के पीछे सरकार की वास्तविक मंशा बंगाल को दुर्बल करना था क्योंकि उस समय बंगाल भारतीय राष्ट्रवाद का प्रमुख केंद्र था। बंगाल विभाजन के लिये सरकार ने तर्क दिया कि बंगाल की विशाल आबादी के कारण प्रशासन का सुचारु रुप से संचालन कठिन हो गया है। यद्यपि कुछ सीमा तक सरकार का यह तर्क सही था किन्तु उसकी वास्तविक मंशा कुछ और ही थी। विभाजन के फलस्वरूप सरकार ने बंगाल को दो भागों में विभक्त कर दिया। पहले भाग में पूर्वी बंगाल तथा असम और दूसरे भाग में शेष बंगाल को रखा गया।

 

उदारवादियों का बंगाल विभाजन विरोधी अभियान (1903-1905)

उदारवादी, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, के.के. मिश्रा एवं पृथ्वीशचन्द्र राय प्रमुख थे। उदारवादियों ने विरोध स्वरूप जो तरीके अपनाये वे थे-जनसभाओं का आयोजन, याचिकायें, संशोधन प्रस्ताव तथा पम्फलेट्स एवं समाचार पत्रों के माध्यम से विरोध।

 

बंगाल विभाजन के संबंध में उग्रराष्ट्रवादियों की गतिविधियां

बंगाल विभाजन के विरोध में सक्रिय भूमिका निभाने वाले प्रमुख उग्रवादी नेता थे- बाल गंगाधर तिलक, विपिन चन्द्रपाल, लाला लाजपत राय एवं अरविन्द घोष।

 

आंदोलन की मुख्य उपलब्धियां

‘व्यापक सामाजिक प्रभाव’ क्योंकि समाज के अब तक के निष्क्रिय वर्ग ने बड़ी सक्रियता के साथ आंदोलन में भाग लिया, आगे के आंदोलनों को इस आंदोलन ने प्रभावी दिशा एवं उत्साह दिया, सांस्कृतिक समृद्धि में बढ़ोत्तरी, विज्ञान एवं साहित्य को बढ़ावा, भारतीय साहसिक राजनीतिक भागीदारी एवं राजनैतिक एकता की महत्ता से परिचित हुये। भारतीयों के समक्ष उपनिवेशवादी विचारों और संस्थाओं की वास्तविक मंशा उजागर हो गयी।

 

मुस्लिम लीग की स्थापना, 1906

  • अंग्रेजों ने 'फूट डालो और राज करो' की नीति के तहत उच्चवर्गीय मुसलमानों को कॉन्ग्रेस से पृथक एक संगठन स्थापित करने के लिये प्रोत्साहित किया ।
  • अक्तूबर 1906 में शिमला में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड मिंटो से मुसलमानों का एक प्रतिनिधिमंडल आगा खाँ के नेतृत्व में मिला । प्रतिनिधि मंडल ने सरकार के प्रति वफ़ादारी प्रस्तुत करते हुए मुसलमानों के लिये विशिष्ट स्थिति प्रदान करने का आग्रह किया ।
  • वायसराय मिंटो से आश्वासन प्राप्त करने के पश्चात् पूर्वी बंगाल में मुसलमानों द्वारा बंगाल विभाजन के समर्थन में सभाओं का आयोजन किया गया।
  •  इसी क्रम में 30 दिसंबर , 1906 को आगा खाँ , ढाका के नवाब सलीमुल्लाह तथा मोहसिन - उल - मुल्क के नेतृत्व में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई । सलीमुल्लाह को इसका संस्थापक माना जाता है जबकि आगा खाँ मुस्लिम लीग के प्रथम अध्यक्ष चुने गए ।

इस संगठन की स्थापना मुख्यतः तीन उद्देश्यों की पूर्ति हेतु की गई –

1 . मुसलमानों में ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठा बढ़ाना ।

2 . मुसलमानों के राजनीतिक अधिकारों की रक्षा करते हुए इसका विस्तार करना ।

3 . मुसलमानों में अन्य संप्रदायों के प्रति उत्पन्न होने वाली असहिष्णुता  व कटुता की भावना के प्रसार को रोकना ।

    1908 के अमृतसर अधिवेशन में मुस्लिम लीग ने पृथक् निर्वाचक मंडल की मांग की , जिसे 1909 के ' मॉले - मिंटो सुधार ' में मान लिया गया ।

 

कॉन्ग्रेस का कलकत्ता अधिवेशन(1906 )

  • 1906 में कलकत्ता में आयोजित कॉन्ग्रेस के अधिवेशन में अध्यक्ष पद को लेकर उदारवादियों ( नरमपंथी ) एवं उग्रवादियों ( गरमपंथी ) के मध्य विवाद उत्पन्न हो गया ।
  •  अंत में दादाभाई नौरोजी को अध्यक्ष चुनकर विवाद को समाप्त किया गया ।
  • कलकत्ता के कॉन्ग्रेस अधिवेशन में उग्रवादियों ने स्वदेशी आंदोलन ', ‘ बहिष्कार आंदोलन ', ' राष्ट्रीय शिक्षा ' और ' स्वशासन ' से संबंधित चार प्रस्ताव पारित करवाए ।
  • राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के इस अधिवेशन में ही दादाभाई नौरोजी ने ' स्वराज ' की मांग प्रस्तुत की ।

 

सरत में कांग्रेस का विघटन ( 1907 )

  • 1907 में सूरत में आयोजित कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में उदारवादियों अध्यक्ष के पद को लेकर (विवाद 1905 में वाराणसी के कांग्रेस अधिवेशन से शुरू हुआ था ) कांग्रेस का विभाजन हो गया ।
  •  उग्रपंथी या उग्रवादी जहाँ लाला लाजपत राय को कांग्रेस के सूरत अधिवेशन का अध्यक्ष बनाना चाहते थे, वहीं उदारवादी रास बिहारी घोष को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाना चाहते थे अन्ततः रास बिहारी घोष अध्यक्ष बनने में सफल हुए ।
  •  सूरत का कांग्रेस अधिवेशन 26 दिसम्बर , 1907 को ताप्ती नदी के किनारे हुआ ।
  • सम्मेलन में उग्रवादियों द्वारा 1906 में पास करवाये गये - 4 प्रस्ताव स्वदेशी , बहिष्कार , राष्ट्रीय शिक्षा और श्वसासन के प्रयोग को लेकर विवाद और गहरा हो गया और अन्ततः दोनों पक्षों में खुले संघर्ष के बाद कांग्रेस में पहला विभाजन हो गया ।
  • अप्रैल 1908 में इलाहाबाद में आयोजित कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में कांग्रेस का एक नया संविधान और बैठकों को आयोजित करने के लिए एक नियमावली तैयार की गई । नवीन संविधान के प्रावधानों के बाद उग्रवादियों का अगले सात वर्ष तक कांग्रेस में प्रवेश प्रतिबंधित हो गया ।

 

दिल्ली दरबार (1911)

  • दिसम्बर 1911 में ब्रिटिश सम्राट जार्ज पंचम और महारानी मेरी के भारत आगमन पर उनके स्वागत हेतु दिल्ली में एक दरबार का आयोजन किया गया ।
  • दिल्ली दरबार में ही 12 दिसम्बर 1911 को सम्राट ने बंगाल विभाजन को रद्द घोषित किया , साथ ही कलकत्ता की जगह दिल्ली को भारत की नई राजधानी बनाने की अनुमति प्रदान की । 1 अप्रैल , 1912 को दिल्ली को कलकत्ता की जगह भारत की नई राजधानी बनाया गया ।
  • बंगाल विभाजन के रद्द होने के बाद उड़ीसा और बिहार को बंगाल से अलग कर दिया गया । असम को पुनः 1874 की स्थिति में लाया गया , अब असम में सिलहट भी शामिल था ।
   

हार्डिग बम काण्ड ( 1912 )

  • 23 दिसम्बर , 1912 को कलकत्ता से दिल्ली के लिए राजधानी हस्तांतरण का दिन तय किया गया, जिस समय वायसराय हार्डिग अपने परिवार तथा ब्रिटेन के शाही राजवंश के साथ एक लम्बे जुलूस के साथ दिल्ली में प्रवेश कर रहे थे, उसी समय उन पर बम फेंका गया, जिसमें हार्डिंग घायल हो गये ।

 

गदर आंदोलन / गदर पार्टी ( 1913 )

  • 1 नवंबर , 1913 को अमेरिका के सैन फ्राँसिस्को नगर में लाला हरदयाल द्वारा गंदर पार्टी की स्थापना की गई ।
  • इस पार्टी के अन्य प्रमुख नेता रामचंद्र , बरकतुल्ला , रामदास पुरी , सोहन सिंह भाखना , करतार सिंह सराबा , भाई परमानंद , भगवान सिंह आदि थे|
  • ' गदर ' ( साप्ताहिक पत्रिका ) इस पार्टी की मुख्य पत्रिका थी ।
  •  1 नवंबर 1913 को इस पत्रिका का पहला अंक उर्दू में प्रकाशित हुआ तथा आगे चलकर इसे अन्य भाषाओं में भी प्रकाशित किया गया ।
  • इसके कार्यकर्ताओं में मुख्यतया पंजाब के किसान एवं भूतपूर्व सैनिक थे , जो रोजगार की तलाश में कनाडा एवं अमेरिका के विभिन्न भागों में बसे हुए थे ।
  • गदर पार्टी अन्य संस्थाओं से भिन्न थी क्योंकि इसने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये गुरिल्ला युद्ध तकनीकी का प्रयोग किया ।

 

प्रथम विश्व युद्ध 1914

  • प्रथम विश्वयुद्ध के विस्फोट से यूरोप में महाशक्तियों के दो गुट बन गये । प्रथम विश्व युद्ध 20वीं सदी के द्वितीय दशक की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना थी ।
  • 4 अगस्त , 1914 को शुरू हुए प्रथम विश्वयुद्ध में एक तरफ जर्मनी , आस्ट्रिया , इटली और टर्की थे तथा दूसरी ओर फ्रांस , रूस और इंग्लैण्ड थे।
  • प्रथम विश्वयुद्ध का समर्थन तत्कालीन भारत की राजनीतिक पार्टियां जैसे- कांग्रेस मुस्लिम लीग , मॉडरेट , नेशनलिस्ट राजे - रजवाड़े आदि ने किया ।
  • उदारवादी भारतीय नेताओं ने इस आशा में ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठावान और ब्रिटिश युद्ध प्रयासों का समर्थन किया कि उनके सहयोग के बदले में  उनकी स्वराज या स्वशासन की मांग को पूरा कर दिया जायेगा ।
  • राष्ट्रवादी नेता तिलक और गांधी जी ने युद्ध के दिनों में सरकार की सहायता हेतु धन और सेना के लिए सिपाही की व्यवस्था हेतु गांवों का दौरा किया ।
  • लार्ड हार्डिंग ( वायसराय) की बुद्धिमत्ता एवं सहानुभूतिपूर्ण रवैये के कारण प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन को भारत का पूर्ण समर्थन मिला ।
  • प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश सरकार द्वारा टर्की ( मुस्लिम ) के विरूद्ध युद्ध की  घोषण से मुस्लिम लीग का सरकार के प्रति मोह भंग हो गया , अब लीग  कांग्रेसी नेताओं के अधिक नजदीक आने का प्रयास करने लगी । हकीम अजमल खां , मोहम्मदअली , हसन इमाम जैसे एहरार आंदोलन से जुड़े नेताओं ने मुसलमानों को अब सरकार की चाटुकारिता बंद करने को कहा और आह्वान किया कि वे राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सा लें ।

 

कामागाटामारू प्रकरण ( 1914 )

  • कामागाटामारू प्रकरण कनाडा में भारतीयों के प्रवेश से सम्बन्धित विवाद था । कनाडा सरकार ने ऐसे भारतीयों का अपने यहां प्रवेश वर्जित कर दिया जो सीधे भारत से नहीं आते थे, कनाडा सरकार का यह कानून इसलिए भी अधिक कठोर माना गया क्योंकि उन दिनों कोई ऐसा रास्ता नहीं था जिससे भारतीय सीधे कनाडा पहुँच सके ।
  • नवम्बर, 1913 में कनाडा की सर्वोच्च अदालत ने ऐसे 35 भारतीयों को कनाडा में प्रवेश की अनुमति प्रदान कर दी जो सीधे भारत से कनाडा नहीं आये थे । 35 भारतीयों के कनाडा में प्रवेश मिलने से उत्साहित सिंगापुर के एक भारतीय  मूल के व्यापारी गुरदीत सिंह ने कामागाटामारू नामक एक जहाज को किराये पर लेकर दक्षिण पूर्वी एशिया के करीब 376 यात्रियों को बैठाकर बैंकुवर की ओर प्रस्थान किया ।
  • कामागाटामारू जहाज के बैंकुवर पहुँचने से पूर्व ही कनाडा सरकार ने पुनः प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया, बैंकुवर तट पर पहुँचे यात्री पुलिस की घेराबंदी के कारण जहाज से नीचे नहीं उतर सकें ।
  • यात्रियों के अधिकार की लड़ाई लड़ने हेतु हुसैन रहीम , बलवंत सिंह , सोहनलाल पाठक की अगुआई में शोर कमेटी का गठन हुआ , जिन्होंने चंदा एकत्र कर यात्रियों के लिए कानूनी लड़ाई लड़ने की योजना बनाई । अमरीका में रह रहे भारतीय भगवान सिंह , बरकतुल्ला , रायचंद और सोहन सिंह ने भी यात्रियों के समर्थन में आंदोलन चलाया । कनाडा सरकार के सख्त रवैये के कारण कामागाटामारू जहाज को बैंकुवर की जल सीमा को छोड़ना पड़ा , जिस समय युद्ध छिड़ गया , अंग्रेजों ने जहाज को सीधे कलकत्ता आने का आदेश दिया ।
  • कामागाटामारू जहाज के बजबज (कलकत्ता) पहुँचने पर क्रुद्ध यात्रियों और पुलिस में संघर्ष हुआ जिसमें करीब 18 यात्री मारे गये तथा 202 यात्रियों को जेल में डाल दिया गया ।

 

होमरूल लीग आंदोलन ( 1916 )

  • आयरलैंड की तर्ज पर बाल गंगाधर तिलक एवं एनी बेसेंट ने भारत में होमरूल लीग की स्थापना की ।
  • तिलक व एनी बेसेंट द्वारा अपने कार्यक्षेत्र को बाँटकर आंदोलन प्रारंभ किया गया ।
  • इस आंदोलन के दौरान तिलक ने नारा दिया - “ स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है , और इसे मैं लेकर रहूंगा ।
  • अप्रैल 1916 में तिलक ने बेलगाँव में हुए प्रांतीय सम्मेलन में होमरूल के गठन की घोषणा की तथा पूना में तिलक द्वारा होमरूल आंदोलन प्रारंभ किया गया । उनका कार्यक्षेत्र कर्नाटक , महाराष्ट्र ( बंबई को छोड़कर ) मध्य प्रांत व बरार था ।
  • एनी बेसेंट द्वारा सितंबर 1916 में , अड्यार ( मद्रास ) में होमरूल आंदोलन प्रारंभ किया गया । तिलक के कार्यक्षेत्र के अलावा शेष भारत में श्रीमती एनी बेसेंट कार्यरत रही । इस आंदोलन में उनके मुख्य सहयोगी जॉर्ज अरुंडेल , सी . पी . रामास्वामी अय्यर थे ।
  • एनी बेसेंट के आंदोलन का कार्यक्षेत्र काफी विस्तृत था । उत्तर प्रदेश के कुछ भाग , गुजरात के ग्रामीण क्षेत्र में यह आंदोलन सक्रिय व लोकप्रिय भी रहा , जिसका मुख्य कारण यहाँ के विभिन्न लोकप्रिय नेताओं , जैसे - मोतीलाल नेहरू , भूला भाई देसाई , चित्तरंजन दास तेजबहादुर संघू , मदन मोहन मालवीय , लाला लाजपत राय , मुहम्मद अली जिन्ना , जवाहरलाल नेहरू , बी . चक्रवर्ती , जे . बनर्जी द्वारा एनी बेसेंट के लीग की सदस्यता का ग्रहण किया जाना रहा ।
  • लीग के प्रभाव से बेसेंट को 1917 में  कांग्रेस के अधिवेशन की प्रथम महिला अध्यक्ष बनाया गया ।
  • एनी बेसेंट ने अपने दैनिक पत्र 'न्यू इंडिया' तथा साप्ताहिक पत्र 'कॉमनवील' के माध्यम से स्वशासन की मांग की जिसमें ब्रिटिश शासन के अंतर्गत स्वशासन को ध्यान में रखकर धार्मिक स्वतंत्रता, राष्ट्रीय शिक्षा, सामाजिक व राजनीतिक सुधारों को अपनी रणनीति बनाया गया । ध्यातव्य है कि इस आंदोलन में बेसेंट की मुख्य पत्रिका 'न्यू इंडिया' व 'कॉमनवील' तथा तिलक की 'मराठा' (अंग्रेजी भाषा में) व 'केसरी'(मराठी भाषा में) थी, जिसने जनसामान्य में स्वशासन व राष्ट्रीयता के विचारों का प्रचार किया ।

 

आदोलन की उपलब्धियाँ 

  • आंदोलन ने शिक्षित वर्ग के साथ-साथ जनसामान्य की महत्ता को भी प्रतिपादित किया तथा सुधारवादियों द्वारा तय किये गए स्वतंत्रता आंदोलन की मानचित्रावली को स्थायी तौर पर परिवर्तित कर दिया ।
  • आंदोलन ने जुझारू राष्ट्रवादियों की एक नई पीढ़ी को जन्म दिया ।
  • अगस्त 1917 में मॉण्टेग्यू घोषणा पत्र जिसमें उत्तरदायी सरकार ' का वादा किया गया तथा 1919 में 'मॉण्टेग्यू - चेम्सफोर्ड सुधार' काफी हद तक होमरूल लीग आंदोलन का परिणाम थे ।
  • तिलक एवं एनी बेसेंट के प्रयासों से कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन (1916) में नरम दल एवं गरम दल के राष्ट्रवादियों के मध्य समझौता होने में सहायता मिली।
  • लीग के नेताओं का यह योगदान राष्ट्रीय आंदोलन की प्रक्रिया में मील का पत्थर साबित हुआ । संगठनात्मक दृष्टिकोण से देखें तो इस आंदोलन ने पहली बार अखिल भारतीय आंदोलन के लिये स्थानीय कमेटियों की महत्ता को प्रतिस्थापित किया। इसके पूर्व स्वदेशी आंदोलन के दिनों में सिर्फ बंगाल में ही स्थानीय कमेटियाँ स्थापित की गई थी । होमरूल लीग आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई दिशा व नया आयाम प्रदान किया ।
  • होमरूल आंदोलन के बढ़ते प्रभाव व कॉन्ग्रेस में आई सक्रियता से ब्रिटिश सरकार ने चिंतित होकर जून 1917 में होमरूल लीग के मुख्य नेताओं -एनी बेसेंट, जॉर्ज अरंडेल , वी.पी.वाडिया को गिरफ्तार कर लिया। इसके विरोध में सुब्रह्मण्यम अय्यर ने ‘सर की उपाधि ' वापस कर दी। ऑल इंडिया होमरूल लीग ने 1920 में अपना नाम परिवर्तित कर 'स्वराज्य सभा' रख लिया था ।

लखनऊ पैक्ट ( 1916 )

  • 1916 में लखनऊ में हुआ कांग्रेस का सम्मेलन जिसकी अध्यक्षता श्री अम्बिकाचरण मजूमदार ने की थी , दो घटनाओं की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण रहा ।
  • लखनऊ अधिवेशन (1916) की दो महत्वपूर्ण घटनायें थी, उग्रवादियों को जिन्हें पिछले नौ वर्ष से कांग्रेस से निष्कासित कर दिया गया था, का एक बार फिर कांग्रेस में पुनर्प्रवेश तथा कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच ऐतिहासिक लखनऊ समझौता ।
  • 1913 में मुस्लिम लीग के लखनऊ अधिवेशन में पहली बार जिन्ना ने हिस्सा लिया तथा उसी वर्ष कांग्रेस के करांची अधिवेशन में भी जिन्ना उपस्थित थे ।
  • लीग के लखनऊ अधिवेशन (1913) में पहली बार लीग के नेताओं ने स्वशासन को राष्ट्रीय लक्ष्य स्वीकार किया और कांग्रेस के साथ सहयोग की आवश्यकता पर बल दिया ।
  • 1914 में कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में भी स्वशासन की मांग पर जोर दिया गया । इस तरह प्रथम विश्वयुद्ध से पूर्व ही कांग्रेस और लीग दोनों ने ही अपना समान लक्ष्य 'ब्रिटिश साम्राज्य  के अन्दर स्वशासन' निर्धारित किया ।
  • 1915 में जिन्ना के व्यक्तिगत प्रयास से बम्बई में कांग्रेस और लीग के अधिवेशन साथ साथ हुए दोनों संगठनों ने आपसी सहयोग के द्वारा देश में संवैधानिक सुधार की योजना बनाने और उसे लागू करवाने हेतु सरकार पर दबाव डालने पर सहमत हो गये ।
  • लीग और कांग्रेस द्वारा नियुक्त समितियों ने मिलकर एक संयुक्त योजना बनाई जो 1916 के कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में उत्साह के साथ स्वीकारी गई । यही योजना ' कांग्रेस-लीग योजना ' या लखनऊ पैक्ट ' के नाम से जानी जाती है ।
  • लखनऊ समझौते के द्वारा कांग्रेस ने पहली बार मुसलमानों के लिए प्रथम निर्वाचन मण्डल की मांग औपचारिक रूप से स्वीकार कर लिया जो कालान्तर में एक बड़ी भूल सिद्ध हुई । लखनऊ समझौते के अन्तर्गत तैयार उन्नीस सूत्री ज्ञापन-पत्र में ब्रिटिश सरकार से भारत को अविलम्ब स्वशासन प्रदान करने प्रांतीय विधान परिषदों और गवर्नर जनरल की विधान परिषद का विस्तार करने तथा इनमें अधिक निर्वाचित सदस्यों को प्रतिनिधित्व देने की मांग की गई थी ।
  • लखनऊ समझौते के अन्तर्गत भारत के लिए स्वशासित डोमेनियन की तरह की जिस स्थिति की मांग की गई थी उसकी ओर तो सरकार ने कुछ ध्यान नहीं दिया किंतु कांग्रेस ने मुसलमानों को प्रतिनिधित्व के क्षेत्र में जो रियायतें दी थी उन्हें 1919 में मांटेग्यू - चेम्सफोर्ड सुधारों का आधार माना गया ।
  • कांग्रेस और लीग की यह निकटता असहयोग आंदोलन के स्थगित होने तक बनी रही |

 

मांटेग्यू घोषणा ( 1917 )

  • पहले विश्व युद्ध की समाप्ति और उसमें भारतीयों का सहयोग, क्रांतिकारी गतिविधियों में तेजी तथा होमरूल लीग आंदोलन की लोकप्रियता ने सरकार को अपनी भारत के प्रति नीतियों में परिवर्तन के लिए मजबूर किया ।
  • ब्रिटिश प्रधानमंत्री लॉयड जार्ज ने भारतीय जनमत को सांत्वना देने के विचार से एडविन मांटेग्यू को भारत सचिव नियुक्त किया, मांटेग्यू को भारतीय राष्ट्रीय भावनाओं का समर्थक माना जाता था । ब्रिटिश संसद में मांटेग्यू ने कहा भी था कि शिक्षित भारतीयों की मांग निसंदेह उनका अधिकार है तथा उन्हें उत्तरदायित्व संभालने और आत्म निर्णय का अवसर दिया जाना चाहिए । ' 20 अगस्त , 1917 ब्रिटेन के हाऊस ऑफ कॉमंस में मांग्टेग्यू ने भारत के सम्बन्ध में बिटिश सरकार की भावी नीति की घोषणा करते हुए कहा कि " ब्रिटिश साम्राज्य के अभिन्न अंग के रूप में भारत में उत्तरदायी सरकार का क्रमिक रूप से विकास करने के लिए , भारतीयों को प्रशासन के प्रत्येक क्षेत्र में अधिकाधिक रूप से सम्बद्ध किया जाए और स्वशासी संस्थाओं का क्रमिक रूप से विकास किया जाये । "
  • मांटेग्यू घोषणा का निष्कर्ष भारत में उत्तरदायी सरकार की स्थापना थी जिसमें शासक , जनता के निर्वाचित सदस्यों के प्रति उत्तरदायी होते ।
  • मांटेग्यू अपनी योजना पर भारतीय नेताओं से बातचीत के उद्देश्य से नवम्बर 1917 में भारत की यात्रा पर आये । यहां के नेताओं से विचार - विमर्श के बाद मांटेग्यू ने संवैधानिक सुधारों पर एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की जो कालांतर में मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधारों या भारत सरकार अधिनियम 1919 का आधार बनी ।
  • मांटेग्यू घोषणा को उदारवादियों ने 'भारत के मैग्नाकार्टा '(Magna Carta ) की संज्ञा दी । मांटेग्यू घोषणा और मांटेग्यू - चेम्सफोर्ड रिपोर्ट के आधार पर निर्मित भारत सरकार अधिनियम 1919 को मांटेग्यू ने संसद द्वारा निर्मित सरकार और भारत के जनप्रतिनिधियों के बीच सेतु की संज्ञा दी । '
  • लोकमान्य तिलक ने 1919 के सुधारों को 'असन्तोषप्रद और निराशाजनक , एक बिना सूरज का सवेरा' बताया ।
  • 1919 के कांग्रेस के अमृतसर अधिवेशन में कांग्रेस ने इन सुधारों को 'अपर्याप्त, असंतोषजनक और निराशाजनक' बताया । 1919 के सुधारों को लेकर कांग्रेस में उत्पन्न मतभेद के कारण कांग्रेस में द्वितीय विभाजन हो गया ।
  • 1918 में सुरेन्द्र नाथ बनर्जी के नेतृत्व में कांग्रेस के उदारवादी नेताओं ने मांटेग्यू सुधारों का स्वागत किया तथा कांग्रेस से अलग होकर अखिल भारतीय उदारवादी संघ की स्थापना की है 1919 के अधिनियम के संवैधानिक सुधार 1921 में लागू हुए ।
  • 1919 के अधिनियम की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता थी ' प्रान्तों में वैध शासन प्रणाली' । प्रांतीय विषय पहली बार आरक्षित और हस्तांतरित में विभाजित हुए । भारतीय विधानमण्डल को बजट पास करने सम्बन्धी अधिकार पहली बार मिला । इस अधिनियम ( 1919 ) द्वारा ही भारत में पहली बार 'लोक सेवा आयोग ' की स्थापना का प्रावधान किया गया ।
  • 1919 के अधिनियम की दस वर्ष वाद समीक्षा हेतु एक वैधानिक आयोग की नियुक्ति का प्रावधान था , कालांतर में यह आयोग ' साइमन कमीशन ' के नाम से जाना गया ।
  • 1919 के अधिनियम द्वारा 1909 के अधिनियम में की गई व्यवस्था जिसमें मुसलमानों को पृथक निर्वाचन मण्डल की सुविधा दी गई थी , का विस्तार कर इसमें सिखों और गैर ब्राहमणों को भी शामिल कर लिया गया । 

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